July 4, 2011

मोक्ष मांगती मोक्ष की नगरी


निराला

धूल भरी, पुरानी और कटी-फटी एक तस्वीर मंगवाकर चेहरे पर गर्वमिश्रित हंसी का भाव लाते हुए कुर्सी पर बैठे-बैठे ही किशनलाल इशारे से बताते हैं. कहते हैं- देख लीजिए, यही थी ढेलाबाई. मेरे पूर्वज की रखैलन. इस एक वाक्य को बोल लेने के बाद एकाध वाक्य और भी कुछ बुदबुदाते हैं किशनलाल.
किशनलाल का पूरा नाम किशनलाल बारिक है. वे हिंदुस्तान के मशहूर हारमोनियम वादक पन्नालाल बारिक उर्फ दादूजी के पुत्र हैं. गया के पंडा समाज के वरिष्ठ व अभिभावकतुल्य सदस्य. उम्र के करीब आठवें दशक में चल रहे किशनलाल अपने इस एक वाक्य से गया के उस ढेलाबाई से हमारा परिचय कराते हैं, जो 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ठुमरी-दादरा की मशहूर गायिकाओं में शुमार थीं. जब गया भारतीय संगीत का अहम केंद्र हुआ करता था, उस जमाने में अपनी खास अदा और आवाज से ढेलाबाई ने गया में रहते हुए अपने कद्रदानों की परिधि का विस्तार पूरे हिदुस्तान में किया था. लेकिन अब पन्नालाल जैसे संगीतकार के पुत्र किशनलाल सरीखे लोग अजनबी के सामने ढेलाबाई को मात्र ‘रखैलन’ की परिधि में बांधकर रखने की कोशिश करते हैं. जाहिर सी बात है, किशनलाल का वह एक वाक्य दुखद आश्चर्य की तरह कानों में टकराता है लेकिन उनकी हवेली से बाहर निकलकर अंदर गया की गलियों में घूमते हुए जब कुछ और लोगों से बात-मुलाकात होती है तो बात समझ में आ जाती है कि किशनलाल कोई अकेले नहीं हैं जो समृद्ध परंपरा को महत्वहीन नजरिये से देखने लगे हैं. फल्गू की रेत और गया की गलियों में लगभग आठ घंटे पैदल खाक छानने के क्रम में कुछ-कुछ यह अहसास भी होता है कि अपनी क्षमता के दम पर खुद-ब-खुद ‘गया’ से ‘गयाजी’ के तौर पर लोकमानस में स्थापित हो जानेवाला यह प्राचीनतम नगर ‘उफ्फ यह गया’ के तौर पर तेजी से क्यों स्थापित हो रहा है.
किशनलाल की हवेली से निकलने के बाद हमारी मुलाकात फल्गु किनारे शंकर राम से होती है. शंकर कैमरा वगैरह देख हमें किसी सरकारी महकमे का मुलाजिम अथवा सर्वेयर समझते हैं. वे झट अपने समूह के साथ आकर कहते हैं.
‘‘ फल्गु के बचावेला हमनी सब के घरवा उजाड़े पर काहे पड़े हैं आपलोग. सरकारो तो मानती है कि ई फल्गु एतना बड़ा रहके का करेगा, कउनो पानी थोड़े देता है ई. तब्बे तो सरकार भी ई नदी में शहर के सब कूड़ा-कचरा भरेवाला काम करवा रही है और ओही कचरवा पर कुछो-कुछो बनवाते भी जा रही है. त सरकार करे तो सब ठीक आउर हमलोग फलगु में खाली रहेला घर बना लिये तो जुलूम हो गया...’’
अनपढ़ शंकर का फल्गु के प्रति यह पाॅप्यूलर नजरिया भी कुछ वैसा ही है, जैसा कि किशनलाल जैसे समझदार लोगों का ढेलाबाई के प्रति. द्वंद्व के ऐसे ही मुहाने से टकराते हुए दुनिया का प्राचीनतम शहर और भारतीय पुराणों के अनुसार तीर्थों के महाप्राण के रूप में स्थापित यह धार्मिक नगर वर्षों जड़ता के दौर से गुजरने के बाद अब धीरे-धीरे अवसान की ओर है!

बेमौत मर रही गया की गंगा

गया में विष्णुपद मंदिर के करीब फल्गु नदी के तट पर वरिष्ठ समाजसेवी सुरेश नारायण रहते हैं. सुरेश नारायण वर्षों से हर पितृपक्ष में अज्ञात, अनाथ अथवा हादसे में मारे गये लोगों के नाम का तर्पण कर उनकी मुक्ति की कामना के साथ गया श्राद्ध करते हैं. हम उनसे पूछते हैं कि यदि गया से फल्गु नदी को हटा दे ंतो इस शहर की कल्पना किस रूप में करते हैं? उनका जवाब होता है- तो गया की पूरी कथा-कहानी भी खत्म समझिए. सुरेश नारायण ही नहीं, इसका अहसास अमूमन हर गयावालों को है कि गया और बिहार की गंगा कही जानेवाली फल्गु यहां है, तभी गया का अस्तित्व है. फल्गु के कारण ही गया को गयाजी का दर्जा प्राप्त है. आठ लाख की आबादी वाले इस शहर में 20 प्रतिशत तो ऐसे लोग हैं, जिनके घर-परिवार को चलाने का जिम्मा सीधे-सीधे फल्गु पर ही है. फल्गु ही है जिस कारण तमाम मुश्किलों को झेलते हुए देश-दुनिया के लोग यहां पीढ़ियों से पहुंचते रहे हैं. गया पंडा समाज के सिजुआर घराने के प्रमुख राजन सिजुआर के मुताबिक अब भी पितृपक्ष के पखवाड़े में करीबन पांच लाख और उसके बाद शेष दिनों में लगभग दस लाख यानि कुल मिलाकर लगभग हर साल 15 लाख लोग देश के अलग-अलग हिस्से से अपने पित्तरों को मोक्ष दिलाने गयाजी पहुंचते हैं. और यहां पहुंचकर मोक्षदायिनी फल्गु को खुद मरणसेज पर पड़े मोक्ष की कामना करते पाते हैं.
ब्रिटिश सर्वेयर फ्रांसिस बुकावन ने 1811-12 में इस नदी की चैड़ाई गया के इलाके में 800 गज तक दर्ज किया था. 1956 में तैयार गया डिस्ट्रिक्ट गजेटियर बताता है कि नदी 900 गज तक चैड़ी है. अब नदी की चैड़ाई कितनी रह गयी है, यह सही-सही बतानेवाला कोई नहीं. हां नदी में शहर के 53 वार्डों की लगभग 250 मिट्रिक टन गंदगी का अंबार हर रोज लगते देख अनुमान लगा सकते हैं कि कचरों के टिलों ने नदी को कितना घेर लिया है. विष्णुपद मंदिर से नीचे देवघाट उतर कर बरसात के अलावा कभी भी नदी में कचरे के इन टिलों को दूर-दूर तक देखा जा सकता है. हद यह कि इन कचरों के टिलों पर ही सरकार के सौजन्य से नये श्मशान के निर्माण को देख सकते हैं, जिसका उद्घाटन अभी बाकी है. फल्गु किनारे घूमते-फिरते यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि इकबाल नगर, लखीबाग, पंचायती अखाड़ा, किरानी घाट, बालू पर, भूसंडा मेला के क्षेत्र में कुकुरमुत्ते की तरह बेतरतीब तरीके से जो सैकड़ों मकान उग आये हैं,े वे फल्गु का हक मारकर ही खड़े किये गये हैं. शहर के गंदे नाले-नालियों के मुंह भी नगर प्रशासन की मेहरबानी से फल्गु में ही खुलते हैं. और इन सबका असर कई रूपों में गयावालो और प्रशासन को भी दिखता ही होगा.
इस शहर में 40 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति इसी फल्गु से होती है. नदी में गंदगी जा रही है तो गंदा पानी ही सप्लाई भी होता है. ठेकेदार फल्गु के रेत को धड़ल्ले से 900 रुपये प्रति ट्रैक्टर के हिसाब से उठवा रहे हैं. रेत की उपरी परत हटा दिये जाने से फिल्टरेशन की प्रक्रिया करने में नदी अब सक्षम नहीं रह गयी है. फल्गु अंतःसलीला नदी है यानि उपर से भले ही पानी न दिखे लेकिन एक-दो हाथ रेत हटाने पर यहां शुद्ध जल हमेशा से मिलते रहा है लेकिन अब दस फीट भी जाये ंतो शायद ही पानी मिले. और यदि पानी मिल गया तो वह इतना बदबूदार और गंदा होगा कि उसका इस्तेमाल आप शौच क्रिया करने के बाद भी करने में हिचकेंगे लेकिन दस फीट गड्ढा खोदकर निकलने वाले बदबूदार गंदे पानी ने भी कइयों को नया रोजगार दे रखा है. पींडदानियों को पांच-दस रुपये या कुछ और रेट लेकर प्रति ग्लास के हिसाब से यहां से पानी दिया जाता है ताकि फल्गु जल का तर्पण कर वे अपने पित्तरों के मोक्ष की कामना कर सके. गया में रहनेवाले कथाकार व फिल्म लेखक शैवाल कहते हैं, फल्गु सिर्फ एक नदी भर नहीं है, यह गया की पहचान है. इसके मौत की कल्पना के बाद आप गया की कल्पना भी एक सेकेंड के लिए नहीं कर सकते. यह नदी पीने का पानी देती है, गयावासियों को रोजगार देती है और बारिश के अलावा अन्य मौसम में हजारों राहगिरों, मजदूरों को रात में सोने का आश्रय भी. शैवाल जो कहते हैं, उसका अहसास तो सबको होगा कि फल्गु सिर्फ एक नदी भर नहीं है. पुराण कहते हैं कि गया तीर्थों का महाप्राण है, शैवाल कहते हैं फल्गु गया को प्राणरस देनेवाली नदी है. यहां के रहनिहार बहुत गर्व से बताते हैं कि भगवान राम, सीता, युद्धिष्ठिर, भीष्म पितामह सब अपने पित्तरों को पींड दान देने आ चुके हैं इस फल्गु में. फिर एक प्रचलित कथा जरूर सुनाते हैं कि सीता मईया ने इस फल्गु को श्राप दिया था कि तुम अंतःसलीला बहोगी. यह तो हर किसी ने सुन रखा है कि सीता के श्राप के कारण यह नदी अंतःसलीला बहती है लेकिन गया में यह स्वीकार करनेवाले कम ही मिलेंगे कि श्राप के बाद भी तमाम संभावनाओं से भरी नदी को खत्म करने का काम सब मिलकर सामूहिक रूप से कर रहे हैं. शैवाल फल्गु पर लिखी अपनी हालिया कविता का एक अंश सुनाते हैं-
सभासदों दरबार से बाहर आओ,
यहां आकर देखो,
नदी से एकात्म होकर,
तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो जाएगा.
नदी तुम्हे अपनी गोद में लेकर गाये,
क्या यह अविस्मरणीय नहीं होगा!
शैवाल को भी पता है कि सभासदों को ऐसी बातें सुनने की फुर्सत नहीं. वे फल्गु को गंगा से जोड़कर इसे सदानीरा बनाने का स्वप्न दिखाते रहते हैं. सभासदी की राजनीति का मसला नहीं बन सकी है फल्गु. परलोक से कनेक्शन करानेवाली फल्गु को अपने मोक्ष के लिए सिर्फ लोक पर ही भरोसा है.

मुश्किलों और चुनौतियों का शहर

‘ मोक्षधारा’ में गया के बारे में सुधीर रंजन एक जगह लिखते हैं.

मेरा पुराना परिचय है इस नगर से
   यहां बिजली हाथी पर चढ़कर आती है
और घोड़े की गति से भाग जाती है
सुधीर रंजन पुराने परिचय की दुहाई देते हुए गया के बारे में यह लिखते हैं. जिनका गया से नये जमाने में वास्ता पड़ा है, उनका अनुभव भी शायद ऐसा ही है. बिजली यहां फुद्दी चिरैयां की तरह कब आती है और कब फुर्र से उड़कर अलोप हो जाती है, पता ही नहीं चलता. और बिजली के बाद यदि पानी की बात करें तो इस वजह से शहर के वाशिंदे अमूमन हर साल गर्मी के मौसम में अपनो के बीच बेपानी होते रहते हैं. यहां के घरों में लगे हुए नलों से पानी की स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं. मजबूत घेरे के अंदर बने कई घरों में नलों को ताले में जड़ा हुआ देखा जा सकता है. जाहिर सी बात है ताले का इस्तेमाल चोरों से रखवाली के लिए ही होता है. पानी की चोरी की आशंका हो तो इसे कोई सामान्य चोरी तो मानी नही जा सकती. पानी के मामले में इस शहर की विवशता यहीं खत्म नहीं होती. यहां गरमियों में छुट्टी गुजारने कोई मेहमान आने को कह दे तो उसे विनम्रता से मना करने की नयी परंपरा भी बन  रही है. और इन सबके बाद यदि आंकड़ों की भाषा में बात करें तो गया शहर को आबादी के अनुसार प्रतिदिन छह करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है लेकिन गर्मी के दिनों में पांच लाख लीटर पानी की आपूर्ति ही हो पाती है. कल्पना कर सकते हैं, पानी के लिए कैसा दृश्य उत्पन्न होता होगा यहां.
पानी-बिजली के सवाल पर बवाल इस शहर की नियति-सी बनती जा रही है. जो उम्मीदों के सहारे गया में घर बनाकर गयवाल होने आ चुके हैं, उनमें कइयों को गरमी के दिनों में अपने गांव की ओर रूख करना पड़ता है. पहले किरायेदारों को घर छुड़ाया जाता है, फिर खुद मकानमालिक रखवाली का जिम्मा किसी एक के हवाले कर पूरी गर्मी कहीं और रहना मुनासिब समझते हैं.
रोजमर्रा के जीवन में पानी के लिए बेपानी होते गयवालों की मुश्किलें अपनी जगह है. सड़कों पर बजबजाती नालियां शहर की गलियों को पानी-पानी किये रहती हैं, वह अलग किस्म की समस्या है. गयावाले विवश हैं. उन्हें न कुछ उगलते बनता है, न निगलते. वे शहर के अनुसार अपने को ढालने की कोशिश में लगे हुए हैं. अधिकांश ढल गये हैं. जो बचे हुए हैं, उन्हें ढल जाना होगा. जो दूर-दराज से यात्रा कर सैकड़ों की संख्या में हर रोज गया पहुंचते हैं, उन  तीर्थयात्रियों को कोई कम मुश्किलों और चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता. लेकिन वे भी मन-मसोसकर रह जाते हैं. सरकार यह मानकर चलती है कि गयाजी में तीर्थयात्री पितृपक्ष के अवसर पर ही आते हैं. इसलिए पितृपक्ष के अवसर पर ही सुरक्षा और सुविधा के विशेष इंतजाम करने की कोशिश होती है. जबकि सच यह है कि पितृपक्ष के अलावा शेष दिनों में  दो गुना ज्यादा तीर्थयात्री गया पहुंचते हैं.
 सड़क पर बहती नालियों को पार करते, सड़क के बीचो-बीच विचरण करते जानवरों से खुद को बच-बचाकर जब पींड दान देने पहुंचते हैं तो बेदियों के आसपास की गंदगी का अंबार दिखता है. और जब सरोवरों में जाते हैं तो वहां के पानी का रंग देख आचमन-स्नान करने की बात क्या, उसमें उंगली डालने में भी डर-सा लगता है. इसके कई नतीजे सामने दिखने लगे हैं. हाल के वर्षों तक अधिकांश पींडदानी 17 दिनों तक गया में रहकर पित्तरों के मोक्ष के लिए जगह-जगह पींडदान करते थे. अब कुछ यात्री ही गया में 17 दिनों तक रहने को तैयार मिलते हैं, अधिकांश उस श्रेणी में आते जा रहे हैं, जो जल्दी से जल्दी रस्मों की अदायगी कर गयाजी की धरती को सादर प्रणाम कर लेना चाहते हैं. जिन्हें 17 दिन रूकना था, वे 17 मिनट में निकलना चाहते हैं. क्या गया और गयवालों पर इसका असर कई रूपों में नहीं पड़ता होगा!
गया बनाम बोधगया- सौतिया डाह के बीच मनराखन की बात
गया और बोधगया के बीच लगभग उतनी ही दूरी है, जितनी की बनारस और सारनाथ के बीच. सारनाथ और बोधगया, दोनों बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण स्थल हैं. गया और बनारस सनातन धर्म के अहम केंद्र. सारनाथ भी कोई कम तेजी से विकसित नहीं हुआ है लेकिन बनारस वाले उसकी कोई खास परवाह नहीं करते और न ही बनारस शहर और बनारसीपन पर इस फैक्टर का कोई खास असर दिखता है. लेकिन गया और बोधगया के बीच का मामला भी ऐसा ही नहीं है. गया की बदहाली और बोधगया का सरपट विकास, इसने दोनों करीबी स्थलों को कुछ मायनों में काफी दूर ला खड़ा किया है.
हालांकि रेनेसां संस्थान के माध्यम से साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिये गया में राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तित्वों को बुलाकर समय-समय पर आयोजन करानेवाले संस्थान के प्रमुख संजय सहाय कहते हैं कि बनारस और गया की तुलना नहीं कर सकते. बनारस अपनी सांस्कृतिक पहचान और शैली के साथ जीनेवाला दुर्लभ शहर है, वैसे दूसरे शहर बहुत कम मिलेंगे. जबकि कथाकार शैवाल मानते हैं कि बात कुछ और है. शैवाल कहते हैं, गया कभी व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहां के मानपुर को भारत का मिनी मैनचेस्टर कहा जाता था. व्यापारिक नगरी होने के कारण यहां भोग और भक्ति के अहम स्थल विकसित हुए. गया में सराय रोड स्थापित हुआ, विष्णुपद मंदिर बना. दर्जनों की संख्या में धर्मशालाएं बनीं. अब अंतरराष्ट्रीय व्यापार का रिश्ता बोधगया से जुड़ता हुआ दिख रहा है तो वह जगह तेजी से विकसित हो रहा है. वहां नये निर्माण हो रहे है. बोधगया के सामने गयाजी का कद बौना पड़ता जा रहा है. मंदिरों के इस शहर में कोई नया मंदिर बनते हुए नहीं दिखेगा, यह कोई कम गौर करनेवाली बात है क्या?
बातें और भी हैं. इन बातों के बीच मान्य सच यह तो है ही कि बोधगया की तुलना में गया अतिप्राचीन शहर है. सनातनधर्मियों का अहम स्थल है. इसे विष्णु की नगरी माना जाता है. यहां महारानी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर है. वायुपुराण के अनुसार इस नगरी में 62 देवी-देवताओं का जीवंत वास है. सभी तीर्थों का जमघट तो यहां है ही. लेकिन गया इन तमाम आख्यानों-व्याख्यानों और संभावनाओं के बावजूद कई मायनों मंे जड़ शहर बना रहा और अब धीरे-धीरे पूरी पहचान दांव पर लगनी शुरू हुई है तो अपने ही बोझ से झूककर चलता हुआ यह बूढ़ा शहर अब अवसान की ओर जाता हुआ भी दिख रहा है. दूसरी ओर बोधगया है, जहां की चमचमाती सड़कें, शाम ढलते ही छा जानेवाली दुधिया रौशनी, तमाम आधुनिक सुविधाएं, आधुनिक होटल, रिसोर्ट, हवाई अड्डा, सालों भर देश-दुनिया से पहुंचनेवाले सैलानियों का जमावड़ा आदि. इन सभी उपलब्धियों ने बुद्ध की नगरी में तेजी से संभावनाओं के द्वार खोले हैं. गयावाले फटी आंखों से अपने पड़ोस की तेज रफ्तार देख रहे हैं. कुछ ही सालों में दोनो स्थान जुड़कर शहर के रूप में एकाकार हो जानेवाले हैं लेकिन असमानता सौतिया डाह का भाव भर रहा है. आनेवाले कल में दोनों के एकाकार हो जाने के बाद भी अगर दूरिया और बढ़ी हुई दिखे तो इसे कोई खास आश्चर्य नहीं माना जा सकता.
गयवाल पंडा समुदाय के वरिष्ठ सदस्य राजन सिजुआर कहते हैं, सरकार गया को अपने भरोसे छोड़ दी है और बोधगया के लिए सब कुछ कर रही है.मुख्यमंत्री खुद गया आने से बचते हैं जबकि बोधगया जब-तब जाते रहते हैं. सिजुआर कहते हैं कि इससे दुखद क्या होगा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद ही पिछले साल कहा कि गया में आॅनलाइन पिंडदान की व्यवस्था होनी चाहिए. सीएम गया की समस्या को तो खत्म नहीं कर पा रहे लेकिन ऐसा कहकर गया को खत्म कर देने का संकेत जरूर दे रहे हैं. बकौल सिजुआर, जब पिंडदान आॅनलाइन ही होने लगेगा तो कोई क्या करने गया आयेगा. जब गया कोई आयेगा ही नही ंतो यह शहर किसी उद्योग पर तो चलता नहीं कि सबकी दाल रोटी चलती रहेगी!
सिजुआर की नाराजगी अपनी जगह है. फिलहाल एक अहम बात गया बनाम बोधगया की करते हैं. दोनों के बीच मसला सिर्फ असमान चकाचैंधी विकास भर का नहीं है. गया और बोधगया के बीच सदियों से फंसा एक पेंच भी है, जो मौके-बेमौके जिन्न की तरह बाहर आते रहता है. बोधगया में हिंदू और बौद्ध आमने-सामने आते रहते हैं. विवाद काफी पुराना है. 25 फरवरी 1895 को श्रीलंका के बौद्धभिक्षु जब जापान से बुद्ध की प्रतिमा लेकर यहां उसे स्थापित करने पहुंचे थे तो बोधगया के महंथ ने मूर्ति स्थापना की इजाजत नहीं दी थी. दोनों धर्मावलंबियों के बीच तनाव के बीज तभी पड़े, अब समय-समय पर वह अंकुरित होकर निकलने की कोशिश करता है.  बोधगया मंदिर परिसर में एक पंच पांडव मंदिर भी है. तारा मंदिर, शिव मंदिर आदी भी हैं. हिंदुओं का एक खेमा कहता है कि जो पंच पांडव मंदिर है, उसमें पांचों पांडव और द्रौपदी की प्रतिमा है. बौद्ध कहते हैं, नहीं वे बुद्ध के भिन्न रूप में स्थापित प्रतिमाएं हैं या उनके शिष्यों की और बीच में जो महिला दिखती है, वह बुद्ध की मां महामाया हैं.बौद्ध कर्मकांड के विरोधी माने जाते हैं, हिंदू वहां शादी-ब्याह आदि के मौके पर कर्मकांड करते-करवाते रहते हैं. कभी मूर्तियों को वहां से हटवाने के लिए तो कभी मंदिर प्रबंधन समिति के एक्ट मे ंपरिवर्तन कर मंदिर को बौद्धों को अधीन कर देने के विषय को लेकर बहसबाजी का दौर चलता है. हिंदू खेमेवाले कहते हैं, बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार थे, इसलिए हिंदुओं का समिति में रहना जरूरी है. बौद्ध इस पर खुलकर नहीं बोल पाते लेकिन बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने उनकी ओर से बहुत पहले ही हिंदुओं को जवाब दे दिया था कि मानता हूं कि बुद्ध विष्णु के अवतार हैं लेकिन अगर ऐसा है तो हिंदू मंदिरों में बुद्ध की प्रतिमाएं स्थापित क्यों नहीं की जातीं? यह बात बहुत पुरानी हो चली है, विवाद अब एक्ट बदलने को लेकर है. दूसरी ओर गया का विष्णुपद मंदिर है, जहां के दरवाजे पर ही साफ-साफ शब्दों में लिखा हुआ मिलेगा- अहिंदुओं का प्रवेश वर्जित है. अहिंदू का एक बड़ा मतलब तो मुस्लिम से होता है लेकिन बौद्ध भी तो अपने को हिंदू नहीं मानते! वैसे भी बौद्धों का गया से वास्ता कम ही रहता है लेकिन यह बात तो उनकी ओर से समय-समय पर आते ही रहती है कि जो गया में विष्णुपद है, वह विष्णु के नहीं बुद्ध के पदचिह्न हैं. दोनों धर्मावलंबियों के बीच यह तुर्रा और तर्क का खेल वर्षों से चल रहा है. बुद्ध किसके थे, किसके हैं, इसे लेकर विवाद होते रहता है.
बुद्ध किसके थे, किसके हैं, इस पर तो दोनों धर्मावलंबी आपस में तर्क-वितर्क करते ही रहते हैं लेकिन इस बीच जरा एक तीसरे पक्ष की बात भी सुन सकते हैं. यह पक्ष मनराखन किस्कू की ओर से है. मनराखन किस्कू रांची में रहते हैं. उम्र यही करीब 65 साल की होगी. वे न तो साहित्यकार हैं, न आधिकारिक तौर पर अनुसंधानकर्ता. न ही इतिहासकार. लेकिन अपने आदिवासी धर्म की जड़ों की तलाश करते-करते मनराखन ने 15-20 वर्षों के अनवरत स्वाध्याय से कुछ तथ्य और तर्क जुटाये हैं. मनराखन की बात बहुत छोटी है. उसके फलक के विस्तार की गुंजाइश कितनी है, यह इतिहासकार ही बता पायेंगे. मनराखन कहते हैं कि गौतम बुद्ध और आदिवासी समाज के बीच गहरा रिश्ता रहा है. अगर विस्तार से चीजों को देखें तो यह बात सामने आती है कि आदिवासी ही बौद्ध धर्म के सच्चे अनुयायी हैं और यह भी कि बुद्ध आदिवासी ही थे!
वर्षों पहले मनराखन के मन में सवाल उठे कि फूलों का राजा गुलाब, सुंदरता के मामले में चंपा-चमेली का भी कोई जवाब नही ंतो फिर आदिवासी समाज इन सब को छोड़ सखुआ के फूलों से इतना मोह क्यों पाल लिया? क्यों सरहुल जैसे महत्वपूर्ण त्योहार में भी सखुआ ही प्रधान हो गया और उसके पेंड़ को सरना वृक्ष का नाम मिल गया. इस एक बात को लेकर मनराखन ने अपनी पहुंच के हिसाब से खोज शुरू की. गया-पटना जहां भी जाते, लाईब्रेरी की खाक छानते, अपने सामथ्र्य के अनुसार किताबें खरीदतें. सबको पढ़ लेने के बाद उन्हें इस बिंदु पर पहुंचकर संतुष्टि मिली कि आदिवासी समाज में इस सखुआ का प्रवेश बुद्ध के कारण हुआ. बुद्ध का जन्म सखुआ वृक्ष के शालकुंज में हुआ. और उनका महापरिनिर्वाण भी सखुआ वृक्ष के नीचे. बौद्ध धर्म से जब दो अलग-अलग धाराएं निकलीं तो हीनयानियों के लिए वृक्ष ओर धम्मचक्र प्रमुख हो गया. महायानी मूर्ति पूजक हो गये. मनराखन कहते हैं, आदिवसी समाज संभवतः हीनयान की राह पर चला अथवा हीनयानियों ने आदिवासी परंपरा को अपना लिया.  बौद्धकाल के पहले कभी भी आदिवासी जीवन में शालवृक्ष की चर्चा नहीं मिलती. मनराखन अपनी बातों को रखने के लिए मशहूर इतिहासकार  डीडी कौशांबी के लिखे का हवाला देते हैं. कौशांबी ने लिखा है कि बुद्ध का कोई गोत्र नहीं था, बल्कि टोटम था. टोटम का चलन आदिवासी समाज में ही है. बुद्ध का टोटम शाल ही था. फिर इतिहासकार डाॅ राधाकुमुद मुखर्जी की बात रखते हैं. मुखर्जी ने लिखा है कि बुद्ध का कुल मूल कोल मुंडा था. मनराखन एक-एक कर कई पुस्तकों और तर्कों का हवाला देते हैं. आगे कहते हैं कि रघुनाथ सिंह ने अपनी चर्चित किताब ‘ बुद्ध कथा’ में लिखा है कि बुद्ध की माता महामाया देवदह नामक कोल राज के राजा की पुत्री थी. मनराखन ने ऐसे कई तथ्य जुटाये हैं. वह अपनी बात कहना चाहते हैं लेकिन हिंदू और बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच एक पेंच तो सदियों से फंसा हुआ है, इसमें मनराखन जैसे गुमनाम व्यक्तित्व का मन रखने के लिए यह दूसरा पेंच कौन फंसाना चाहेगा!
भोग और भक्ति के बीच की संभावनाएं, जो शेष हैं...
गया में एक है राजेंद्र चैक. यह हालिया वर्षों में दिया हुआ नाम है. गयवालों के बीच वह टावर चैक के रूप में मशहूर है. वहां से चार रास्ते निकलते हैं. दो रास्ते एक-दूसरे की विपरित दिशा में जाते हुए दिखते हैं. एक सराय रोड ले जाता है, जिसे अब रेडलाइट का इलाका कहते हैं. जिस्म के धंधे के लिए मशहूर है वह अब. कभी वहां ढेलाबाई, जद्दनबाई की महफिलें भी सजती थीं. टावर चैक से सराय रोड के विपरित दिशावाला रास्ता विष्णुपद मंदिर की ओर जाता है. शाम को उस चैक पर जमकर चैपाली होती है. सराय रोड से आने, या सराय रोड में जानेवाले भी यहां आते हैं, विष्णुपद से आनेवाले या वहां जानेवाले भी. टावर चैक भोग और भक्ति के बीच का रास्ता है. संधिस्थल है. किस राह जाना है, यह यहां के रहनिहारों को और यहां आनेवालों को खुद ही तय करना होता है. भोग और भक्ति को जोड़नेवाले ऐसे स्थल गया के परिवेश में चप्पे-चप्पे पर मिलेंगे. भक्ति पर भोग और भोग पर भक्ति के विजय की गाथा भी यहां कोई कम नहीं है. अंगरेज अधिकारी इस शहर में आकर बस गये थे तो एक प्रमुख चैक वाले इलाके का नाम ही साहेबगंज हो गया था. यहां के बगल में ही एक मशहूर रजवाड़ा भी हुआ करता था. वहां के टेकारी राजा के प्रेम के किस्से हवा में अब भी तैरते रहते हैं. उन्होंने गया में व्हाईट हाउस अपने प्रेमिका के नाम कर दी थी, यह हर कोई जानता है. यह भी बतानेवाले कोई कम नहीं मिलते कि राजा सुबह-सुबह अपनी गाड़ी से कलकत्ते तक की यात्रा पर निकल जाते थे, अपनी प्रेमिका से मिलने.
गयवाल पंडों का जो इलाका है, जिसे अंदर गया कहते हैं, वह कभी गया का अहम सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था. चार दरवाजों के बीच की परिधि में बसे अंदर गया में कभी 14 जीवंत बैठकें होती थीं. गाना-बजाना का महफिल सजता था आनेवालों बड़े नामचीन तीर्थयात्रियों के लिए. जब भोग पर भक्ति हावी था तो तब उन्हें कलाकार माना जाता था, अब भोग हावी होने का दौर है तो अब गया में कुछ कलाकारों को गवैया-नचवैया या रखैलन तक की परिधि में भी बांध दिया जाता है.
पंडा समाज भी कोई कम द्वंद्व के रास्ते नहीं गुजर रहा. नये लड़कों की एक छोटी जमात ही सही, अपने इस पेशे से दूरियां बनाकर रखना चाहता हैं. विष्णुपद मंदिर के रास्ते में पंडा घरानों के कई नौजवानों को लस्सी वगैरह की दुकानें चलाते देख सकते हैं. जिस समाज में परदेदारी ऐसी कि डोली के बगैर महिलाएं निकलती नहीं थी या रिक्शे पर भी ओहार लगा रहता था, उस गली से निकलकर अब लड़कियां बदलते समाज से कदमताल करते हुए नौकरी करने भी जा रही हैं. यह शुकूनदायी संकेत हैं. अंदर गया में मिले शुभम कहते हैं कि मेरे बड़े भाई ने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की है, मैं भी जल्दी से जल्दी यहां से निकलकर मैनेजमेंट पढ़ने चले जाना चाहता हूं.
भक्ति पर भोगवादी प्रवृत्ति के हावी होने की प्रक्रिया ने गया की नयी पहचान भी दी. अपराध की नगरी के रूप में भी जाना जाने लगा यह शहर. कभी यहां के जनप्रतिनिधि अपने जीत के जश्न में सड़कों पर गोलियां बरसाते हुए अपने ताकत का प्रदर्शन करते हैं तो एक बच्ची को मार देते हैं तो कोई नेता ऐसा भी निकलता है तो अपने सिपहसलारों से सरेआम गोलियां चलवाता है. हथियारों के जखीरे के साथ यहीं के जननेता पकड़े जाते हैं, हवाओं को भी अपने कहे अनुसार बहने की इजाजत देने की कामना करनेवाले भी यहां कोई कम नेता नहीं हुए. यह वह गया भी है, जहां बहनेवाली फल्गु मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, ठेकेदारों के लिए वही फल्गु प्राप्ति का सबसे बड़ा जरिया है. मुक्ति और प्राप्ति के बीच झूलता यह शहर नयी संभावनाओं की तलाश में भटक रहा है. संभावनाएं पटवा टोली में नजर आ रही हैं, जहां से हर साल गरीब बच्चे अपने दम पर आइआइटी की प्रवेश परीक्षा निकालकर देश के प्रतिष्ठित संस्थान में पहुंच रहे हैं. तिलकुट ने संभावना बचाकर रखी हैं, जो बिहार के ब्रांड के तौर पर स्थापित हो चुका है. संभावनाएं रोज-ब-रोज खुल रहे मार्केटिंग कांपलेक्स में नजर आ रही हैं. और इन सबके बाद आखिर में पानी पर काम करनेवाले प्रसिद्ध समाजसेवी प्रभात शांडिल्य की बात करें तो वे एक लाइन में अपनी बात रखते हैं. शांडिल्य कहते हैं- गया इकलौता प्राचीन शहर है, जिसका नाम नहीं बदल सका कोई. यह पुराणों में भी गया था, अब भी गया है जबकि काशी बनारस हो गया. प्रयागराज इलाहाबाद हो गया. गया तो गया था, गया है और गया ही रहेगा...












April 8, 2011

तमाशा तो मैंने भी खूब किया यार !


    निराला          
      कुछ माह पहले की बात है. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की. बिहार चुनावी सरगर्मी से तप रहा था. मुजफ्फरपुर जाना हुआ था. उम्र के 90वें साल में प्रवेश कर चुके शास्त्रीजी की हालत कई माह से कुछ ज्यादा ही नाजुक थी, लेकिन बीमारियों को पछाड़ देने के बाद कुछ दिनों के लिए हालत सुधर भी गयी थी. हिंदी साहित्य की दुनिया में अपना तमाम जीवन खपा चुके शास्त्रीजी की तबियत से हिंदी साहित्य जगत बेखबर था. उस महान कवि को अकेला छोड़ दिया था हिंदी साहित्य जगत ने, जिनके कृतित्व से प्रभावित होकर कभी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी जैसे दिग्गज खुद उनसे मिलने मुजफ्फरपुर पहुंचे थे. एक भाषण से पृथ्वीराज कपूर जैसे फिल्मकार पर ऐसा प्रभाव डाला कि कपूर को जब भी समय मिलता, देश-दुनिया को छोड़ मुजफ्फरपुर में शास़्त्रीजी के घर ही आकर रहा करते थे. छोटे-बड़़े रचनाकारों का मजमा लगा करता था, लेकिन चलाचली की बेला में जब वे अकेले बिस्तर पकड़ लिये तो उन्हें देखने-सुनने या उनकी सुध लेने कोई नहीं आ रहा था. न साहित्यिक मठ-सठ के ठेकेदार, न शास्त्रीजी के मार्गदर्शन में डाॅक्टरेट की उपाधि ले अच्छी जगह नौकरी बजा रहे उनके दर्जनों चेले. उम्र के हिसाब से शरीर की अस्वस्थता तो काफी पहले से ही थी लेकिन उस हाल मंे भी जब कभी वे रंग में आते तो बातें भी खूब करते. जब कोई बात करनेवाला नहीं आता तो घर में ही अपनी पत्नी से बच्चों की तरह जिद मचाये रहते कि मेरी मां मर गयी, मैं रहकर क्या करूं. जबकि सच यह था कि उनकी मां तभी दुनिया छोड़ गयी थीं, जब शास़्त्रीजी चार साल के थे. लेकिन मन में मां ही मां छायी हुई रहती हैं. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की बात है. तब शास्त्रीजी कुछ स्वस्थ हुए थे. एक रोज उनके घर अनायास पहुंचना हुआ. उस रोज वे अपने पूरे रौ में थे. रंग में थे. पहुंचते ही पहले नाश्ते-पानी के लिए पूछा और मना करने पर तुरंत कहा- इसका मतलब यह कि मैं भी जब तुम्हारे घर आउंगा तो कुछ नहीं खिलाओगे. शास्त्रीजी से मिलने हम मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान अवस्थित ‘निराला निकेतन’ आवास में पहुंचे थे. उसी चतुर्भुज स्थान वाले इलाके में, जिसे सबसे बड़ी बदनाम बस्ती की बसाहट माना जाता है. वे जिस बरामदे में आराम कर रहे थे ं, वहां सामने ग्रिल में बिस्किट के पैकेट के दर्जनों कवर सजे थे. चारों ओर कई-कई रूपों में उनकी खुद की तसवीरें. और तरह-तरह के कई आईने भी. जिस वक्त हम पहुंचे थे, उसके ठीक पहले उनके सोये रहने के क्रम में ही उनके बाल को डाई कर दिया गया था. हमारे वहां पहुंचने पर उन्होंने सामने लगे कई आईने मंे से एक को उठाकर खुद को निहारते हुए उन्होंने कहा- दो घंटे पहले आते तो वृद्ध शास्त्री मिलता, अब बाल रंग दिया तो जवान शास़्त्री सामने है. हर बात पर क्या तमाशा है या तमाशा मैंने भी खूब किया, तकियाकलाम की तरह दुहरातें. उस रोज शास्त्रीजी हम पर कई बार गुस्साये, जाने को भी कहें लेकिन फिर रूकवाकर अपनी बात भी कहते रहे. थोड़े मजाक के मूड में थे तो बातचीत के बीच में ही अपनी पत्नी को भी बड़े भाई, कहां हैं, जरा आइये के संबोधन से बुलायें और परिचय यह कहकर करवायें कि ये मेरी गुरु हैं, अब आगे कुछ इनसे भी पूछ लीजिए... शास़्त्रीजी से बातों-बातों में ही हुई बातचीत के कुछ अंश यहां उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि के तौर पर प्रस्तुत है
   
 सवाल- जीवन की ढलान की बेला में पढ़ने-लिखने से कितना वास्ता रख पाते हैं अब! 
     जवाबः- यार, या तो आप गलत आदमी हो या फिर गलती से गलत आदमी के पास आ गये हो. क्या फालतू बात कर रहे हो यार! आखिरी सांस तक शास्त्री का लिखने-पढ़ने से वास्ता टूट सकता है, यह बात आयी कैसे तुम्हारे दिमाग में. 90 की उम्र का हूं. अभी इस उम्र में किताब लिखा हूं, हजार रुपये में बिक रही है. राधा महाकाव्य की रचना की है मैंने. कोई लेखक रचे हिंदी में साहित्य और बिकवा ले हजार रुपये में अपनी किताब तो... भाई, मैं और कोई दुनियावी काम नहीं कर सकता, लिखना-पढ़ना ही मेरा कर्म है, समझे...
सवाल- नयी पीढ़ी के हिंदी लेखकों को लेकर क्या नजरिया है आपका? कितनी उम्मीदें रखते हैं आपं?
जवाबः- पैसा कमाने के लिए चार किताबों को मिलाकर एक किताब लिखते हैं और कहलाते हैं क्या, तो लेखक. आउटस्टैंडिंग कोई दिखता ही नहीं. कालजयी रचना करने की क्षमता नहीं दिखती किसी में. एक किताब लिख देंगे, परीक्षा में वह किताब चले, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु है हिंदी साहित्य लेखन का. दरअसल यह समय का भी दोष है. अब के समय में साहित्यिक मठाधीश कर क्या रहे हैं, यह भी देखना होगा. अपने बारे में कभी नहीं सोचते लेकिन दूसरे की आलोचना करना हो तो बित्ता भर का जिभ निकाल देंगे. आज के कथित बड़े लेखकों को देखिए, एक-दूसरे को गिराने-पटकने में ही ज्यादा समय लगाते हैं और बाकि बचे समय में मुर्खों को कवि-लेखक और विद्वान का सर्टिफिकेट देने में लगे हुए हैं. तो समझ सकते हैं कि नयी पीढ़ी क ेलेखकों में किस तरह की प्रतिभा विकसित होगी. कोई पंत, दीनकर, बेनीपुरी की तरह कवि-लेखक कहां हाल के वर्षों में हुआ!
सवाल- आप सुमित्रानंदन पंत की बात कर रहे हैं, उनके ज्यादातर रचनाओं को तो विगत वर्ष कूड़ा-कचरा कह गये थे एक बड़े साहित्यकार-आलोचक.
जवाब- मुर्खाधीराज हैं वे जो उलूल-जुलूल बकते रहते हैं. वे क्या कहते हैं, खुद ही पता नहीं होता. मैंने कहा न कि हिंदी पट्टी की यह विडंबना है कि खुद के बारे में कोई नहीं देखता कि तुमने क्या किया,  दूसरे के अवगुणों की चर्चा में बड़ा आनंद आता है.
सवाल- आपने अपने घर के अहाते में अपने बाबूजी का मंदिर बनवा रखा है, रोज बाबूजी की ही पूजा करते हैं और फिर शेष स्थान में गायों की समाधि स्थल है, कुछ इसके बारे में बतायें.
जवाबः- मेरे जिंदगी में तमाशा खूब हुआ. गया के पास शेरघाटी के एक गांव का रहनेवाला हूं. चार साल का था तो मां गुजर गयीं. उस उम्र से ही मेरे बाबूजी ने मां और बाप दोनों का प्यार दिया तो स्वाभाविक है कि मेरे लिए वही भगवान बन गये. उनकी देख-रेख में ही मैं 16 साल की उम्र में शास्त्री बन गया और 18 साल की उम्र में प्राध्यापक. अब बताओ तो यह तमाशा कि मैं पहली बार गंगा पार कर यहां मुजफ्फरपुर पहंुचा था घूमने के लिए और यहीं प्राध्यापकी की नौकरी मिली गयी. ऐसा होता है भला कहीं. मैं तो रोने लगा था तब कि कहां फंस गया भाई. और क्या तो यहां के बच्चा बाबू ने मुझे चतुर्भुज स्थान में एक एकड़ जमीन भी दे दिया कि घर बनवा लीजिए. मैंने एक एकड़ में घर बनवा लिया. बाद में यहां बाबूजी भी आये. एक रात खाने में वे दूध मांगे. बाहर से दूध आया तो उन्होंने कहा कि मैं बाहर का दूध नहीं लूंगा. तुरंत रात में ही गाय खरीद कर लाया. बाबूजी ने कहा कि न दूध कभी बेचना न गायों को कभी किसी को देना. तब से यही कर रहा हूं. पहली गाय का नाम कृष्णा रखा और फिर उसके बच्चे होते गये, गायों का परिवार बढ़ता गया. जिनकी मृत्यु हुई, यहीं उनका अंतिम संस्कार करता गया. इसलिए गोशाला का नाम भी कृष्णायतन रखा. तब से यहां रहकर यही कर रहा हूं.
सवाल- आपने कुत्ते भी बहुत रखे हैं. आपके साथ रहते हैं. आपके बिस्तर पर भी घर के परिवार की तरह रहते हैं. कुत्तों से इतना प्यार...
जवाबः- हंसते हुए- भाई मैं सोचता हूं कि अगर अब के समय में बढ़ियां से बढ़ियां लोग, नामचीन लोग कुत्ते की तरह दूम हिलानेवाले हो गये हंै तो उनसे क्यों दोस्ती रखी जाए. कुत्ते ही चाहिए तो ओरिजिनल वाला क्यों न हो, जो वफादार होता है और जिसे प्यार, अपनापन की जरूरत भी है.
सवालः- पहले आपके यहां साहित्यकारों, नेताओं का आना-जाना हमेशा हुआ करता था. अब भी कोई आता है. कभी मलाल होता है कि अब कोई नहीं आता...!
जवाबः-कैसी बात करते हो. यहां कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे थोड़े ही आ सकता है. यहां पृथ्वीराज कपूर महीने भर रहते थे. दिनकर, बेनीपुरी, पंत जैसे साहित्यकार-लेखक आकर रूकते थे. नेताओं में राजेंद्र बाबू, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर, भैरो सिंह शेखावत आते थे. तो अब बताओ के आज के नेताओं-साहित्यकारों के नहीं आने का मलाल भला शास्त्री को क्यों रहेगा. मेरे यहां मांस-मदिरा का इंतजाम तो रहता नहीं, तो फिर यहां कौन समय जाया करेगा. लेकिन एक तरह से देखो तो यह भी बढ़ियां ही है कि फालतू लोग यहां फालतू का समय बर्बाद करवाने नहीं आते.
सवालः आपने कुछ नेताओं के भी नाम लिये. अभी तो बिहार में चुनाव चल रहा है. नेतागिरी उफान पर है. अपने पसंदीदा नेताओं के बारे में बतायें.
जवाबः- मैं महामना मदनमोहन मालवीय जी के साथ रहा हूं. मैंने बताया न कि यहां कौन-कौन और कैसे-कैसे नेता आते थे. लेकिन सच कहूं तो बिहार में अब तक मुझे दो ही नेता नजर आये. पहले राजेंद्र बाबू और दूसरे कर्पूरी ठाकुर. कर्पूरी बाबू हमेशा आते थे यहां इन दोनों नेताओं की तरह यहां कोई दूसरा नेता नहीं हुआ, जिसमें सज्जनता दिखती हो. एक संस्कार हो. चरित्र हो. अब तो सब एक-दूसरे को गरियाने में लगे हुए हैं. जाति को गरिया कर लोगों को मुर्ख बनाने में निपुण हो गये हैं. सब के सब ढोंगी है.




 विदाई की बेला में शास्त्रीजी की कुछ चुनिंदा पंक्तियां


दूर देश है जाना

 दूर देश है जाना
जहां न कोई भी मेरा
अपना जाना-पहचाना
तपना तनिक धूप में
क्षण भर छांह देख सो जाना
फिर आने की कौन बताये
दूर देश है जाना...

- अपनी साहित्य यात्रा पर

 अब आखिरी विदा लेता हूं...

कहां मिले स्वर्गीय सुमन?, मेरी दुनिया मिट्टी की
विहंस बहन क्यों तुझे सताउं, कसक बताकर जी की!
अब आखिरी विदा लेता हूं आह, यही इतना कह
मुझ सा भाई हो न किसी का, तुझ-सी बहन सभी की

- अपनी बहन सुमित्रा की स्मृति में

वह सुख न कभी मिले मुझे, जिससे दुख ही होता दूना...

वह सुख न कभी भी मिले मुझे
जिससे होता दुख ही दूना
जिससे की भींगती आंखें ही
रहता अंतर भूना-भूना
जो अमृत नहीं वह बह जाये
मेरा घट रहे, रहे सूना
हर स्वर-लय तेरा ध्यान
विश्व मुझको अभिमानी कहे, कहे
मैं गाउं तेरा मंत्र समझ
जग मेरी वाणी कहे, कहे...








April 4, 2011

हे राम, आप स्वीकार करें नये भक्तों का भाव


निराला
कुछ वर्ष पूर्व जब भारतीय राजनीति में किन्नरों की सक्रियता बढ़ी, निकाय वगैरह के चुनावों में उनकी जीत हुई तो एक किस्सा पढ़ने को मिला था. भगवान राम जब लंका से अयोध्या लौट रहे थे तो सरयू किनारे उन्होंने एक नयी बस्ती बसी हुई देखी. उन्होंने पुष्पक विमान को वहां उतरवा दिया. वहां उतरने के बाद वे बस्ती में गये और पूछा कि 14 साल पहले जब मैं अयोध्या से जा रहा था तो यहां कोई बस्ती नहीं थी, क्या यह उसके बाद की नयी बसाहट है. बस्तीवालों ने बताया कि आप जब विदा हो रहे थे तो आपने यह कहा था कि हे अयोध्या के नर-नारी, आपलोग अब लौट जायें और मुझे वनवास के लिए जाने दें. आपके कहने के बाद अयोध्या के सारे नर-नारी तो वापस चले गये थे लेकिन हमलोगों से आपने कुछ कहा ही नहीं. हम तो न नर थे, न नारी. सो हम यहीं बस गये कि आपके आगमन के इंतजार में. कथा-कहानी के अनुसार भगवान राम ने उन किन्नरों को अपना सबसे बड़ा भक्त बताते हुए वर दिया कि जिस धैर्य से इतने वर्षों तक आपलोगों ने इंतजार किया, उसका फल कलियुग में मिलेगा. आप भी राजा बनोगे. कलियुग में किन्नरों की जीत का उस वरदान से वास्ता हो न हो लेकिन भगवान राम ने उन्हें अपना सबसे बड़ा और सच्चा भक्त कहा था.
 दो अप्रैल की रात जब अचानक रामभक्तों का सैलाब सड़कों पर निकला तो वह रामायण का वह किस्सा याद आने लगा. रावण को तरह-तरह की गालियां देते हुए, बाइक-कार को 80-100 की रफ्तार में चला रहे कलियुग के ये नये रामभक्त थे. सड़क पर दारू की बोतल फोड़ते हुए ‘जयश्रीराम’ का नारा लगानेवालेे, सबको रौंदकर आगे निकल जाने को बेताब नये रामभक्त. वैसे रामभक्त जो पल भर में उत्सव को चुटकी बजाते हुए उन्माद में बदलते हैं.
 पाकिस्तान से जीत हुई तो तमाशा वैसा ही हुआ था. पाकिस्तान के खिलाफ रगों में  इष्र्याभाव है तो हुड़दंग का मचना तय था. श्रीलंका से जीतने पर भी उत्सव की बजाय उन्माद ही दिखेगा, इसकी उम्मीद तो नहीं थी. लग रहा था कि यह सिर्फ क्रिकेट या एक खेल तक सीमित रहेगा. खेल में जीत होगी तो उत्सव मनेगा, खुशियां मनेंगी. इस अपेक्षा के वाजिब कारण भी थे. चारों ओर से अशांत वातावरण में घिरे भारत का रिश्ता जो भी थोड़ा बहुत ठीक है, वह श्रीलंका से ही है वरना सबसे पास रहते हुए भी नेपाल से फासले किस कदर बढ़ते जा रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है. बांग्लादेश और पाकिस्तान खुद अशांत है और भारत में उसे बिल्कुल दूसरे रूप में पेश किया जाता है. म्यांमार, तिब्बत वगैरह चीन की चिरौरी करते है. फिलहाल, श्रीलंका ही थोड़ा-थोड़ा अपना जैसा लगता है. लेकिन बहुत हद तक मीडिया के सौजन्य से श्रीलंका को रावण से कनेक्ट कर दुश्मनी के तत्व को तलाश लिया गया. उत्सव के लिए नहीं, उन्माद के लिए. नतीजा यह कि ंजीत की रात और उसके अगले दिन तीन अप्रैल की शाम तक उन्माद छाया रहा. किन्नरों की धैर्यक्षमता से प्रभावित होकर उन्हें सबसे अहम भक्त बतानेवाले भगवान राम क्या सोच रहे होंगे अपने इन नये असंख्य भक्तों के बारे, यह सिर्फ कल्पना करने की बात है. फिलहाल तो जश्न का माहौल है. क्रिकेट धर्म है, उसके खिलाड़ी भगवान. फिलहाल हम विश्वविजेता के यूटोपिया में जी रहे हैं, कल इस खेल में हार जायेंगे तो हम दुनिया के सामने सबसे लाचार- बीमार देश होंगे, अभी के अनुसार परारित मुल्क के नागरिक हो जायेंगे. राम जो सोच रहे होंगे, वह सोचते रहें फिलहाल जश्न के इस माहौल विश्वकप मंदिर बननेवाला है, उसका इंतजार कीजिए, माॅडल पूनम अपने पिता के सहयोग से खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए न्यूड होने को बेकरार हैं, उसका साथ दीजिए. यह समय की मांग है. आगे आइपीएल है.

April 1, 2011

पानीदारी, जमींदारी, रंगदारी- सब जारी है


       निराला    
      एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है. कथा यह कि एक प्रणयरत् क्रौंच पक्षी की जोड़ी को एक निषाद ने मार गिराया. महर्षि बाल्मिकी की नजर खून से लथपथ उस घायल क्रौंच की जोड़ी पर पड़ी. पक्षियों को छटपटाते देख महर्षि बाल्मिकी काफी उद्विग्न हो गये. अपने को रोक न सके और अनायास उन्होंने निषाद को श्राप दे दिया कि जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक तुम्हारा मन भी इसी तरह अशांत रहेगा, जिस तरह अभी इन क्रौंच पक्षियों का है. महर्षि बाल्मिीकी ने वह श्राप एक श्लोक के माध्यम से दिया था, जिसे दुनिया का पहला श्लोक भी माना जाता है.
     पता नहीं इस पौराणिक कथा में सच्चाई है या नहीं, लेकिन जिस श्रापयुक्त श्लोक को दुनिया का पहला श्लोक माना गया, उसका असर आज हजारों वर्ष बाद भी निषादों की जिंदगी में देखने को मिलता है. कम से कम धरनीपट्टी पूर्वी गांव में तो ऐसा ही दिख रहा था. धरनीपट्टीपूर्वी बिहार के समस्तीपुर जिले में गंगा किनारे दियारा इलाके में मछुआरों की एक बस्ती है. 250 घरों से अधिक की बस्ती में एकाध घरों को छोड़ दे ंतो मछुआरों का ही वास है यहां. अमूमन शांत रहनेवाले और तमाम विडंबनाओं को अपनी नियति मान जिंदगी गुजार लेनेवाले लोग अंदर से कितने अशांत है, यह धरनीपट्टी पहुंचने पर पता चलता है.
      वहां हम पहुंचे तो थे पानीदारी खत्म होने के बाद और बदलते बिहार में मछुआरों की जिंदगी में आयी तब्दीली को करीब से देखने-समझने लेकिन पत्थरघाट मोड़ से गांव तक हमारे पथप्रदर्शक बन गाड़ी में सवार हुए फूच्चीलाल सहनी और शिवनाथ सहनी रास्ते में ही बताते हैं, आप उस इलाके में चल रहे हैं, जहां के लोग हमेशा पीटे जाते हैं और मार भी दिये जाते हैं. फूच्चीलाल कहते हैं- अतीत की बातें गांव में चलकर समझियेगा, अभी हम सिर्फ यह बता सकते हैं कि पिछले आठ माह में हमारे गांव के दो लोगों को मछली की वजह से मार दिया गया. दो बच्चे गायब हो गये हैं, जिनका कोई पता नहीं. पत्थरघाट से सीधे गये होते तो मोहनपुर बस्ती भी मिलता, जहां कुछ साल पहले 13 मछुआरों को मार दिया गया था. हम मछुआरे हर जगह मारे जाते हैं. फूच्चीलाल बात को जारी रखते हैं- अभी 15 दिन पहले हमारे गांव से नौजवानों का एक समूह गया है बाहर चाकरी की तलाश में, और भी जाने की तैयारी में हैं. अब कोई मछली मारकर अपनी जान गंवाना नहीं चाहता. फूच्चीलाल पूरी कहानी को गाड़ी में ही बता देना चाहते थे लेकिन तब तक हम धरनीपट्टी के उस चैपाल में पहुंच चुके थे, जहां सामने एक प्राथमिक विद्यालय, टूटा-फूटा मिट्टी का दालान और विशाल पेंड़ के नीचे गंगा माई, ज्ञानू माई और बाबा अमर सिंह की प्रतिमा वाली खुली मंदिर के सामने छोटे से मैदान में जाल को ठीक करते मछुआरे दिखते हैं.
      उस चैपाल में दशरथ सहनी, जयपाल सहनी, लाला सहनी, दिलीप सहनी आदि जमा होते हैं और एक-एक कर बातों को बताना शुरू करते हैं. दशरथ कहते हैं- हमारी स्थिति न घर के, न घाट के वाली हो गयी है. नदी में मछली मारते हैं तो दबंग आकर कहते हैं कि नदी जहां से बह रही है, वह जमीन कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे हिस्से में थी इसलिए जो मछली मारे हो, उसमें से हिस्सा दो. वहां से बच गये तो गंगा से निकलते ही दबंग यह कहते हुए मछली लेते हैं कि नदी से निकलकर जिस जमीन से गुजर रहे हो, वह हमारी है, इसलिए हिस्सेदारी चाहिए नहीं तो जाल ले लेंगे और इतने के बाद भी निकल गये तो मछली बेचने निकलने पर मछलियां छीन ली जाती हैं. अगर हम यह सब नहीं कर सकते तो रात में जब मछली मारने के लिए नाव पर निकलते हैं तो नदी में घेरकर हमारी पिटाई की जाती है, घाट से नाव को खोलकर बहा दिया जाता है या नाव में छेद कर बीच गंगा में छोड़ दिया जाता है. गंगा में जहर डाल दिया जाता है, जिससे मछलियां मर जाती हैं. दशरथ यह सब बताते-बताते भर्राये हुए गले से कहते हैं- आप भी तो जानते होंगे कि मल्लाहों की पूरी संपत्ति ही जाल और नाव होती है. हमने या हमारे पुरखों ने सदा से ही जिंदगी पानी में गुजारी इसलिए कभी जमीन लेने की सोचे ही नहीं. अब तो घाट से यात्रियों को लाने-ले जाने के लिए भी हम मल्लाहों का नाव नहीं लगने दिया जाता, उस पर भी दूसरी जातियों का कब्जा हो गया. ऐसी स्थितियों में मछली मरवाने के लिए हमारा अपहरण कर भी कुछ दिनों के लिए रखा जाता है. बताइये कैसे जिंदा रहेंगे हमलोग...!

      दशरथ की बातों में एक जोड़ जोड़ते हुए जयलाल सहनी कहते हैं कि सरकार ने फ्री-फिशिंग कर और पानीदारी को कागज पर तो खत्म कर दिया है लेकिन सच यही है कि हम अभी भी पानीदारी, जमींदारी और रंगदारी तीनों का सामना रोज ही कर रहे हैं. दिन-ब-दिन भयावह रूप में. जयलाल कहते हैं- यहां से लेकर कहलगांव तक चले जायें, दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के ऐसी ही समस्याएं मिलेंगी, उनके जीवन का स्तर ऐसा ही मिलेगा. कहलगांव आदि के इलाके में तो और ज्यादा.
      सच भी ऐसा है. पूरे बिहार में पारंपरिक मछुआरों के सामने स्थिति विकट है. धरनीपट्टीवालों को या उन जैसे बिहार के लाखों मछुआरों को भी अभी ठीक से इसका अहसास नहीं कि निकट भविष्य में उन जैसे पारंपरिक मछुआरों के सामने और भी ज्यादा बड़ी चुनौती खड़ी होनेवाली है. जैसा कि जल श्रमिक संघ के राज्य समन्वयक योगेंद्र सहनी कहते हैं- एक तो कई वजहों से नदियों में यूं ह ी मछलियों की संख्या घट रही है, उपर से सरकार द्वारा सुलतानगंज से कहलगांव तक डाॅल्फिन रिजर्व क्षेत्र घोषित किये जाने पर मछुआरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आया. अब सरकार इस डाॅल्फिन रिजर्व एरिया की सीमा मनिहारी से बक्सर तक बढ़ाने की तैयारी में है. यदि सच में ऐसा हुआ तो सोचिए कि एकबारगी से लाखों परिवारों के सामने अस्तित्व का संकट होगा. योगेंद्र कहते हैं- दूसरा सबसे बड़ा संकट मछुआरों के उपर दबंगों का आतंक है. मछुआरों को मार दिये जाने का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा. दो दशक पहले बटेश्वर स्थान में 13 मछुआरों की हत्या हुई थी तो राज्य में चरचा हुआ. उसके बाद फिर मोहनपुर बस्ती में 13 मछुआरों को दबंगों ने मारा. इस दौरान एक्यारी में दो मछुआरे मारे गये. छिटपुट तौर पर दियारा इलाके में मछुआरों की हत्या होती रही. मछुआरों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं. और इतने के बाद बिहार में जब दो साल पहले कोसी प्रलय आया तो लोगों की जिंदगी बचाने और मौत से खेलने के लिए मछुआरों को नाव समेत वहां बुलाया गया. मछुआरे गये भी लेकिन बकौल सहनी, न तो मछुआरों को उचित मजदूरी मिली और न ही कई मछुआरों के नाव अब तक वापस किये गये.
      बिहार में मछुआरों की कितनी आबादी है, इसे सही-सही बताने की स्थिति नहीं, क्योंकि मछुआरों की जाति समूह में मल्लाह के अलावा केवट, गंगोता प्रमुख हैं तो सुरहिया, चाईं, मुरियारी, तीयर, बनपट, बिंद, खुनौट, कोल, भील समेत 22 उपजातियांे को भी मछुआरों के समूह में ही माना जाता है. जैसा कि मछुआरों पर गहन अध्ययन करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से अधिकवक्ता प्रभाकर कुमार कहते हैं- सामूहिक रूप से यह जाति बिहार में यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी जाति है, आबादी करीब एक करोड़ के है. यह बात अलग है कि राजनीतिक रूप से मुखर नहीं होने की वजह से आज इसकी मजबूत पहचान नहीं है. दूसरी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पारंपरिक रूप से नदी पर ही आश्रित रहनेवाली इस जाति ने जमीन के बारे में नहीं सोचा तो आज स्थिति यह भी है कि 90 प्रतिशत से अधिक मछुआरे भूमिहीन हैं. यह स्थिति तो धरनीपट्टी में भी देखने को मिली, जहां 250 घरों के मछुआरों की पूरी जमीन मिलाने के बाद भी कुल 20 एकड़ से अधिक जमीन उनके हिस्से में नहीं. अधिकतर ने किसी तरह अपने घर बनाने भर जमीन का इंतजाम कर लिया है. प्रभाकर कहते हैं- दलितों-आदिवासियों की तरह इस जाति को कभी सरकारों ने आगे बढ़ाने का काम नहीं किया, जिस कारण स्थिति आज इतनी विकट है. राजनीतिक रूप से देखें तो जल श्रमिक संगठन के योगेंद्र सहनी के अनुसार बिहार में 25 विधानसभा सीटों के गणित को मछुआरा समुदाय के लोग ही तय करते हैं लेकिन सब इनके वोटों का इस्तेमाल भर ही करते हैं. यहां तक कि स्वजातीय नेता भी. फिलहाल बिहार से एक लोकसभा सदस्य, दो राज्य सभा सदस्य और विधानसभा में चार प्रतिनिधि इस जाति-समुदाय से आते हैं.
      अब एक और विडंबना पर गौर कीजिए, जिससे मछुआरों की स्थिति खस्ताहाल हुई. दो दशक पहले तक बिहार देश का नमूना राज्य था. यहां गंगा में 80 किलोमीटर तक यानि सुलतानगंज से पिरपैंती तक महाशय घोष और मुशर्रफ हुसैन की पानीदारी यानि पानी पर जमींदारी चलती थी. यह सब सिर्फ इस नाम पर होता रहा कि जमींदारी उन्मूलन कानून में पानी की चरचा नहीं थी. इन दोनों परिवारों के लठैत मछुआरों से रंगदारी समेत अन्य किस्म के टैक्स लेते थे. पानी में पनपे अपराध ने 1987 में बटेश्वर स्थान में हुए 13 मछुआरों की हत्या समेत कई बार उनके खून से दियारा इलाके को लाल किया. 1982 में आंदोलनकारियों ने गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की तो 1991 में राज्य सरकार ने संशोधन कर पानीदारी को तो खत्म किया, मछुआरों के लिए निःशुल्क शिकारमाही की घोषणा हुई, पहचान पत्र देने की बात हुई  लेकिन मुफ्त शिकारमाही भी सपना ही बना रहा और पहचान पत्र का आज तक पता नहीं. दूसरी ओर पानीदारी खत्म करने के बाद तत्कालीन सरकार ने डाॅल्फिन के लिए सेंक्चुरी क्षेत्र घोषित कर दिया जिससे मछुआरों के सामने मछली मारने का संकट पैदा हो गया. समस्या यह हुई कि यदि डाॅल्फिन प्रदूषण या अन्य कारणों से भी मरे तो दोष मछुआरों के उपर मढ़ा जाता है. बाद में नीतीश सरकार के पहले चरण में मछलीपालन को बढ़ाने के उद्देश्य से निली क्रांति की शुरुआत हुई लेकिन वह भी कुल मिलाकर परंपरागत मछुआरों को एक मजदूर बनाने वाला ही साबित हो रहा है. हालांकि अब नीतीश सरकार ने अपनी दूसरी पारी में मछुआरों को आतंक से मुक्त करवाने के लिए पांच नदी थाना बनाने का फैसला भी चार दिनों पहले लिया है.
      गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख कर्ताधर्ता रहे अनिल प्रकाश कहते हैं कि यह बड़ा हास्यास्पद है कि एक ओर राज्य सरकार निली क्रांति का सपना दिखा रही है, दूसरी ओर नदियों के पानी को औद्योगिक कचरे से लाल और काला किया जा रहा है. पहले सरकार प्रदूषण रोकने के कारगर उपाय करे, नदियों को बचाये तभी मछलियां बचेंगी. बकौल अनिल प्रकाश, हम सिर्फ मछुआरों या मल्लाह की बात कर रहे हैं लेकिन यह संकट सिर्फ उनका नहीं है, सबके जीवन का सवाल है. यह अलग बात है कि आज प्रदूषण के कारण और गलत सरकारी नीतियों के कारण मछुआरों को मछलियां नहीं मिल रहीं या नहीं मार पा रहे तो वे बेमौत मरने को विवश हुए हैं या फिर रिक्शा चलाकर, मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे हैं लेकिन कल को वे डकैत, माओवादी भी बनेंगे.
     अनिल प्रकाश मूल सवालों को उठा रहे हैं, उसके इर्द-गिर्द भी सवाल कम नहीं हैं. 1975 में जब फरक्का बैराज बना तो भी उसकी मार मछुआरों को झेलनी पड़ी. फरक्का बैराज बन जाने से हिलसा, झिंगा जैसी मछलियों का समुद्र से इधर आना बंद हो गया जबकि एक समय वह भी था जब बिहार से हिलसा और झिंगा जैसी मछलियों का निर्यात अन्य राज्यों को होता था. अब तो बाजार में आंध्रा वाली मछली का ही बोलबाला पटना या बड़े शहर ही नहीं, छोटे-छोटे शहरों में भी देखा जाता है. संकट सिर्फ नदी किनारे या दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के साथ नहीं बल्कि सासाराम जैसे नदीविहीन इलाके में, जहां पारंपरिक मछुआरों की संख्या काफी है, संकट दूसरे रूपों में सामने आ रहा है. उन इलाकों में, जहां सदाबहार नदियां नहीं हैं, वहां कोल-ढाब-तालाबों में मछलीपालन का काम होता है. वैसे इलाकों में दूसरे किस्म के मछली माफिया सक्रिय हैं, जो मल्लाहों के नाम पर कोआॅपरेटिव सोसाइटियों पर कब्जा जमाकर मल्लाहों को सिर्फ मजदूर बनाकर रखते हैं. और उस पर भी मछली माफियाओं की लड़ाई ऐसी चलती है कि एक-दूसरे के अधिकार वाले तालाब में जहर डालकर मछलियों को मार दिये जाने का खेल भी खूब होता है. सासाराम के रहनेवाले और बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के निदेशक कोमल पासवान बताते हैं- सासाराम, तिलौथू, नौहट्टा, नोखा, चेनारी, शिवसागर आदि क्षेत्रों में लगातार ऐसे केस सामने आ रहे हैं, जिसमें तालाब में जहर डालकर मछली खत्म करने का खेल चल रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि बिहार सुखाड़ की चपेट में आता है तो तालाबों और ताल-तलैया का पानी लोग खेत में उतारते हैं. जब पानी नहीं बचता तो मछलियां भी खत्म हो जाती हैं जिससे मछुआरों का रोजगार छिन जाता है.
संकट-दर-संकट में घिरते पारंपरिक मछुआरों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है  िक उनके पास जमीन नहीं होने की वजह से उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता. बिहार लोक अधिकार मंच के प्रवीर कहते हैं, केंद्र की योजना है कि हर जिले में 100 मछुआरों को इंदिरा आवास बनाया जायेगा लेकिन इंदिरा आवास के लिए मछुआरे जमीन कहां से लायें, इस पर भी सरकार को गौर करना चाहिए. उसी तरह सरकार ने जमीन रहने पर मत्स्यपालन के लिए ़ऋण या मुआवजे की योजना बनायी है लेकिन यहां भी जमीन नहीं होने के कारण पारंपरिक मछुआरों को वंचित होना पड़ता है.
ऐसी कई चुनौतियों से घिरा बिहार का विशाल मछुआरा समुदाय आज एक नायक की तलाश में है. मुजफ्फरपुर में अंगरेजों से लोहा लेेनेवाले शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर जब सार्वजनिक पार्क बना तो इस समुदाय को गौरव बोध हुआ. कैप्टन जयनारायण निषाद जब मुजफ्फरपुर से ही विजयी होकर संसद भवन पहुंचे तो राजनीतिक बल भी मिला. लेकिन पानी में, पानी के सहारे जिंदगी गुजारनेवाला यह समुदाय जिस तरह भूमि से हीन होने की वजह से कई सरकारी सुविधाओं से वंचित है, उसी तरह इस समुदाय का शिक्षा से वंचित रहना भी इसे मेनस्ट्रीम से दूर रखे हुए है. हालांकि अब स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं. जब हम समस्तीपुर जिले के धरनीपट्टी गांव के चैपाल में थे तो वहां प्राथमिक विद्यालय को दिखाते हुए लाला सहनी कहते हैं- हम खुद तो नहीं पढ़ सकें लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने की बारी आयी तो हमलोगों ने गांव में चंदा इकट्ठा कर 40 हजार रुपये में जमीन खरीदे ताकि यहां सरकारी स्कूल बन सके.
लेकिन इस मुफलिसी और तमाम विपरित हालत में भी मस्ती से जिंदगी गुजारने वाले मछुआरे अपनी परंपराओ को, जीवन की मस्ती को बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. यह तब साफ अहसास हो रहा था, जब हम धरनीपट्टी गांव से विदा हो रहे थे. विदा होते वक्त गांव की चार महिलाएं आयीं और यह आग्रह कीं कि यदि गांव में आये हैं तो गंगा मईया का गीत सुनते जाइये. कुशिया देवी, शांति, फुलझरिया, बुधनी चैपाल में गंगा मईया के सामने बैठकर सामूहिक रूप से कई गीत सुनाती हैं. उसमें पहला गीत निषाद राज और रामचंद्र भगवान के बीच के संवाद का होता है तो आखिरी गीत वर्तमान में निषादों के हालात पर, जिसके बोल होते हैं- गंगा मईया में मिलई ना मछरिया, कईसे के दिनवा जईतई हो...

              हादसे दर हादसे के दौर में चूप रहने की मजबूरी

1. धरनीपट्टी गांव के रंजीत सहनी की मौत करीब चार साल पहले राजस्थान के बिकानेर में बोरा ढोते समय हो गयी. मछली में अवसर कम होने पर वह वहां मजदूरी कर परिवार चलाने के इंतजाम में गये थे. एक लड़की, तीन लड़के के पिता रंजीत की मौत के बाद उनकी पत्नी रीता देवी अपने पति का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के लिए साल भर भटकती रहीं, दर-दर की ठोकरें खाती रहीं लेकिन सरकारी विभाग से कागजी प्रमाण नहीं दिया जा सका मौत का. लाचारी में मछली बेचकर गुजारा करने लगीं. अब इसी साल के आरंभ में रीता का बेटा बभीक्षन शाम को गांव में खेलते-खेलते ही गायब हो गया. अब तक दस वर्षीय बभीक्षन का पता नहीं चल सका. बभीक्षन कहां गायब हुआ किसी को पता नहीं. कुछेक कहते हैं किडनी वाला रैकेट ले गया, अधिकतर कहते हैं, दबंगों ने उठा लिया उसे.
2. बभीक्षन के गायब होने के करीबन एक माह बाद दिनेश सहनी का बेटा बब्बी भी गांव से गायब पाया गया. बब्बी की मां राजपत देवी कहती हैं, खेलते-खेलते ही बच्चे को कोई उठा ले गया. अब कैसे कहूं कि वे लोग कौन थे और हमसे क्या दुश्मनी है. मेरे बेटा का कोई क्यों अपहरण करेगा. हमारे पास तो खाने के लिए अनाज ही मुहाल रहता है तो हम फिरौती क्या दे सकती हूं. मेरे बेटे का अपहरण नहीं हुआ है बल्कि... राजपत कहती हैं- मैं जानती हूं कि अब मेरा बेटा वापस नहीं आयेगा लेकिन उम्मीदें भी नहीं टूट रहीं.
3. करीब आठ माह पहले धरनीपट्टी के शंकर सहनी मछली मारने गांव से 15 किलोमीटर दूर पंडारक गये लेकिन फिर शंकर वहां से कभी वापस नहीं आ सके. शंकर मछली मारने गये थे तो उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी लाश को हाॅस्पिटल से लाया गया. शंकर के पिता दीपा सहनी कहते हैं- मेरे बेटे को दबंगों ने मारा है. शंकर की पत्नी अब मजदूरी करने बाल-बच्चों के साथ दिल्ली चली गयी हैं. घर में ताला लटक गया है. शंकर का तो लाश भी गांववालों को मिल गया लेकिन सत्तू सहनी का तो लाश भी नहीं पाया जा सका. करीब 8-9 माह पहले सत्तू घर से निकले तो थे मछली मारने लेकिन उसके बाद वे कभी अपने घर वापस नहीं लौट सके.सत्तू के भतीजा राजू कहते हैं, मछली मारने गये तो वापस नहीं लौटे इसका साफ मतलब है कि दबंगों की चपेट में आ गये. वैसे सत्तू की पत्नी ने नाउम्मीदी में आकर सिंदूर लगाना भी अब छोड़ दिया है लेकिन विडंबना तो देखिए कि आर्थिक मुफलिसी से गुजर रहा यह परिवार सत्तू को मार दिये जाने की बात को सच मानते हुए भी उनका अंतिम क्रिया-क्र्म नहीं कर सका.



श्रीमान प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र


दरणीय प्रधानमंत्रीजी
सादर प्रणाम
इधर के दिनों में झंझावतों में लगातार घिरे रहने के बाद कल मोहाली स्टेडियम में आपको देखा। खुशमिजाजी के साथ घंटों बैठे हुए। पाकिस्तान से जीत हासिल होने के पहले तालियां बजाते हुए। सोनियाजी को भी देखा। बच्चों की तरह खुशी से चहकते-दमकते हुए। राहुलजी को देखा, जीत के जोश से उभरे जज्बे का भाव। कई-कई मंत्रियों को देखा, विपक्षी खेमे के नेताओं को भी। आमिर खान, प्रीटी जिंटा, सुनील शेट्टी जैसे बॉलीवुड कलाकारों को भी। अच्छा लग रहा था। सच कह रहा हूं। पूरा देश एक छत के नीचे। स्टेडियम में 25 हजार की भीड़ के साथ इतनी देर तक देश के आलाअलम लोग शायद ही कभी इतिहास में बैठे हों। कहीं नहीं पढ़ा-सुना। किसे धन्यवाद दूं, समझ में नहीं आ रहा। क्रिकेट खेल के अविष्कारकों को, जिनकी वजह से यह दिन आया? भारतीय टीम के खिलाड़ियों को, जिन्होंने आप सबको वहां तक बुला लिया? या नये बाजार को, जिसने क्रिकेट को बुलंदियों तक पहुंचाकर देश में राष्ट्रीयता की भावना की व्याख्या नये सिरे से करना शुरू किया है?
मेरी उतनी समझ नहीं इसलिए राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता या क्रिकेट से कूटनीति वगैरह की बातें ज्यादा पल्ले नहीं पड़ती, लेकिन पता नहीं क्यों, टीवी पर आप सबों को देखते हुए बार-बार कुछ चीजें मन को कुरेदती रहीं। इससे आप राष्ट्र के प्रति मेरी निष्ठा या राष्ट्रीयता के प्रति मेरे सम्मान में कोई कमी नहीं समझिएगा। युद्ध की स्थिति और क्रिकेट के खेल, इन दोनों समय में ही राष्ट्र का एकीकरण होता है, राष्ट्रीयता की भावना जगती है, इसे मैं भी जानने-समझने-मानने लगा हूं। वरना, इस देश में कितने देश बन रहे हैं, हर कोई उपराष्ट्रीयता के छलावे के साथ अपनी ब्रांडिंग में लगा हुआ है, इससे मेरे जैसे लोग अवगत हैं। मेरी समझदारी पर तरस जरूर खाइएगा लेकिन राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के संदर्भ में मेरी निष्ठा पर संदेह न कीजिएगा, प्लीज!
इसे सनकमिजाजी या पागलपंथी ही कहिए सर कि टीवी पर क्रिकेट का रोमांच परवान चढ़ रहा था और मेरे आंखों के सामने उस वक्त दो-ढाई साल पहले बिहार का एक दृश्य उभर रहा था। वही 2008 के कोसी के कोप का दृश्य, जब 25 लाख से अधिक की आबादी हाहाकार मचा रही थी। कोसी के तांडव से लोग मर रहे थे, तब केंद्र से आप लोगों को पहुंचने में चार-पांच दिनों का समय लग गया था। यह तय करने में कि यह राष्ट्रीय मामला है या नहीं, 100 घंटे से अधिक का समय लग गया था। याद है न सर! कोसी के इलाके अभी-अभी चार-पांच रातें गुजारकर लौटा हूं, जहां विकास के नाम पर महासेतु बनाकर फिर विनाश की बुनियाद तैयार कर रहे हैं आप दिल्लीवाले। तो शायद कोसी यात्रा का असर है कि क्रिकेट के समय में भी उसी की खुमारी छायी हुई थी। तभी तो आप और सोनियाजी वगैरह-वगैरह जब-जब दिख रहे थे, तब-तब कोसी के कोप वाले ढाई साल पहले के दृश्य सामने आ-जा रहे थे और फिर आपलोग भी याद आ रह थे।
यह बेवकूफी है सर, मुझे पता है लेकिन क्या करूं? राहुलजी को किसी बच्चे की तरह चहकते हुए देखकर अच्छा लगा। उन्हें कितना मिस कर रहा था क्रिकेट के समय, कह नहीं सकता। वे ही तो इकलौते दिल्लीवाले हैं, जो आदिवासियों को सखा-भाई-बंधु वगैरह-वगैरह बताते हैं। गांव में जाकर रात गुजारते हैं। झारखंड में पिछले दिनों हुए राष्ट्रीय खेल का आयोजन भी कल टीवी पर क्रिकेट देखते हुए बार-बार याद आने लगा। लगभग सात हजार खिलाड़ी देश के कोने-कोने से झारखंड में पहुंचे थे। वैसे-वैसे खेलों के खिलाड़ी, जो खेल सरकार के ही रहमोकरम पर जिंदा हैं। क्रिकेट के खिलाड़ियों से कोई कम जोश, जज्बा या उत्साह उनमें नहीं था सर, सच कह रहा हूं, हर दिन खेल में मौजूद था मैं। राष्ट्रीय खेल था सर, 34वां राष्ट्रीय खेल लेकिन आपलोगों में से कोई भी नहीं आया उसमें। न उदघाटन करने, न समापन करने। आप प्रधानमंत्री हैं, आपकी व्यस्तता का अंदाजा सबको है। राष्ट्रपति के आने के पेंच का भी अंदाजा हम जैसे लोगों को है। उपराष्ट्रपति भी नहीं आ सके यहां। और तो और, क्या कहूं सर, आपके खेल मंत्री भी नहीं आये थे यहां। आपके खेल मंत्री वही माकन साहब हैं न सर, जो कल तक इसी झारखंड में कांग्रेस के प्रभारी हुआ करते थे और गाहे-बगाहे यहां पहुंचकर मीडिया वालों के सामने झारखंड-झारखंड की रट किसी बच्चे की तरह लगाते थे। वे क्यों नहीं आये झारखंड के राष्ट्रीय खेल में सर, उनको आपलोगों ने क्यों नहीं भेज दिया जबरिया, इसका जवाब अब तक नहीं मिल पा रहा। आप सब व्यस्त रहे होंगे, खेल मंत्री के लिए तो वह एक बड़ा आयोजन था, वह तो आते, उन्हें तो भेजते आपलोग।
बहुत सवाल पूछते हैं अपने झारखंडी भाई लोग। कहते हैं कि कल संपदा का दोहन करना होगा तो झारखंड राष्ट्र का अभिन्न अंग हो जाएगा, कल माओवादियों का हमला होगा तो राज्य के वर्तमान और भविष्य का दिल्ली से ही खाका तैयार होगा और राज्य बनने के बाद पहली बार एक राष्ट्रीय आयोजन हो रहा था, तो यह राष्ट्र का अभिन्न अंग नहीं था। किसी को समय नहीं मिला। मालूम है सर, यहां के लोग पिछड़े हैं। मीन माइंडेड हैं, इसलिए ऐसी छोटी-छोटी बातों को बतंगड़ बना देते हैं। सच कह रहा हूं सर, मैं आपलोगों के क्रिकेटिया प्रेम का जरा भी विरोधी नहीं वरना यह सवाल ही सबसे पहले पूछता कि क्या किसी देश का पूरा सिस्टम एक खेल के लिए ठप किया जा सकता है! घोषित तौर पर। तब यह भी पूछता कि आखिर अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश क्या अब तक इस खेल से इसी डर से तौबा करते आये हैं कि यह राष्ट्रविध्वंसक खेल है, जो एक बार में पूरे राष्ट्र की गति को आठ-आठ घंटे तक रोक कर रख देता है। अमेरिका, चीनवाले खेल में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं, यह तो आप जानते ही हैं न सर। ओलिंपिक में देखे हैं कि नहीं। मैं यह सब पचड़ा भरा सवाल नहीं कर रहा। एक मामूली नागरिक हूं। सवाल नहीं पूछ सकता। बस जी में आया तो आपसे साझा कर रहा हूं कि क्या वाकई हमारा देश राष्ट्रीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है! बस यूं ही पूछ रहा हूं, अन्यथा न लीजिएगा।
आपका ही
निराला

March 19, 2011

मैं आपकी ‘ होली’, मुझे बचा लो ! प्लीज...


निराला
मैं आपकी होली. पिछले कुछ वर्शों से मुझसे एक बड़ा वर्ग अलगाव-दुराव का भाव बरतने लगा है. वे कहते हैं कि मैं तो लुच्चे-लफंगों का त्यौहार हूं. मुझे उन्मादी बताते हैं. लेकिन मैं वैसी हूं नहीं. लोक को मस्ती में पिरोनेवाली हूं मैं. पर्व-त्यौहारों, धार्मिक उत्सवों-आयोजनों के बीच अपने तरह की संभवतः अकेली हूं मैं. धार्मिक पर्व-त्यौहार की षक्ल में रहते हुए भी उससे बहुत अलहदा हूं. सीधा वास्ता नहीं है मेरा धार्मिक अनुश्ठानों या कर्मकांडों से. मेरे नाम पर पूजा-पाठ कर लो तो ठीक, नहीं करो तो भी कोई बात नहीं. अन्य पर्व-त्यौहारों की तरह किसी खास देवी-देवता की उपासना से भी मेरा ठोस संबंध नहीं. ब्रज वाले कृष्ण को केंद्र में रखते हैं, अवध वाले रामचंद्र को. बनारस वालों के लिए दिगंबर यानि शंकर की होली भाती है. गांव-जवार में अपने-अपने कुलदेवता को केंद्र में रखते हैं सब. परलोक से भले वास्ता ज्यादा न हो लेकिन लोक से जितना वास्ता है, उतना षायद अन्य त्यौहारों का नहीं. अब भी चलो गांव में, देख लो कि मैं कैसे अपने नाम पर जातीय और सांप्रदायिक दूरियों को पाटती हूं. कोई दलित और अगड़ी का भेद नहीं होता. जिसे चाहे रंग लगाओ, राह गुजरते हुए पीछे से धूल-गरदा डालकर भाग जाओ. कोई किसी भी जाति का हो, गांव के सार्वजनिक जगह पर जब गीत-गवनई का दौर शुरू होता है तो यह नहीं पूछा जाता कि कौन फलां जाति का है, कौन क्या है. सब एक साथ बैठते हैं ढोल, झाल लेकर. एक ही रंग में रंगे हुए. बड़े लोगों के दरवाजे पर भी उसी भदेस अंदाज में बात होती है, जो अंदाज किसी मामूली और छोटे लोगों के दरवाजे पर होता है. मस्ती, मस्ती और मस्ती... अल्हड़पन के साथ सामूहिकता को बचाये-बनाये रखने की कोषिष होती है मेरी. मैं सिर्फ हिंदू की नहीं हूं. फणीष्वरनाथ रेणु को जानते हो न! वे अपने गांव में होली गाने के बाद बगल के मुसलमानों के गांव में झलकूटन आयोजन करवाते थे. वाजिद अली शाह, नजीर अकबराबादी का नाम सुना है आपने, मेरे पर कई-कई गीत लिख डाले हैं उन्होंने. और भी कई हैं, कितना बताउं. यह तो आप भी मानते हो न, मैं अकेली हूं, जिसे आप चाहकर भी अकेले नहीं मना सकते. आप दिवाली की तरह नहीं कर सकते कि घर में तरह-तरह के पटाखे लाओ, मिठाइयां लाओ, नये कपड़े पहनो और चकाचैंध लाइट वगैरह जलाकर मना लो. मैं व्यक्तिवाद को तोड़ती हूं. होली मना रहे हो या मनाओगे, इसके लिए समूह में आना ही होगा. दिन-ब-दिन व्यक्तिवादी होते समाज और पर्व-त्यौहारों के बदलते स्वरूप के बीच मेरी पहचान ही सामूहिकता से है. सब यह भी कहते हैं कि मैं तो दारू-सारू वालों की हूं. यह तो वैसी ही बातें करते हैं जैसे पूरा समाज एक मेरे लिए ही सालों भर इंतजार करता रहता है कि मैं आउं तो दारु-सारू पियेगा. बाकि सालों भर हाथ ही नहीं लगाता. सड़कों पर षादी-बारात का जो जुलूस दिखता है, उसमें कोई कम पीकर हंगामा करते हैं . वही क्यों, सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा के भसान में तो दारू उत्सव ही मनाते हैं सब. कोई नेता जीत जाये तो दारू की नदी बहती है, किसी को जीतना हो तो दारू का ड्राम लाकर रखता है. फिर मेरे से ही दारू वगैरह का नाम क्यों जोड़ते हैं सब. खैर! मैं इससे बहुत परेषान नहीं हूं. मैं आज खुद को बचाने की गुहार लगा रही हूं तो उसकी वजह कुछ दूसरी है, जिससे मेरे अस्तित्व पर संकट मंडराता दिख रहा है.
अब उन्मादी के बाद मुझमें संकट के तत्वों की तलाष की जा रही है. रोज-ब-रोज तरह-तरह के विज्ञापन आ रहे हैं. अभियान चल रहा है. अनुरोध किया जा रहा है. निजी और सरकारी स्तर पर भी. प्रकारांतर से सबकी एक ही गुहार है, एक ही सलाहियत है कि सुखी होली खेलें, तिलक होली खेलें, अबीर की होली खेलें, पानी को बचा लें. पानी को बचाने के लिए मुझे बीच में लाया गया है. सामूहिक रूप से कोषिष हो रही है, जैसे जल संकट का कारण मैं ही हूं. आंकड़े बताये जा रहे हैं कि मैं कितना पानी बर्बाद करवा देती हूं. साल में एक दिन आती हूं मैं, तो इस कदर मेरे नाम से भय का भाव भरा जा रहा है. पानी का वास्ता देकर. कोई यह नहीं पूछता कि एक-एक आदमी ने अपने समाज में कई-कई गाड़ियां क्यों रखी हैं. इटली समेत कई देषों में तो एक घर में एक गाड़ी से ज्यादा रखी ही नहीं जाती. एक-एक आदमी ने यहां चार-चार गाड़ियां रखी हैं, उन्हें धोने में जो पानी जाता है, उससे पानी की बर्बादी नहीं होती क्या? मेरी पहचान को  खत्म करने का अभियान चल रहा है जैसे मैंने ही सारे जलस्रोतों को सूखा दिया है, नदियों का अस्तित्व मैंने ही खत्म कर दिया है. तालाबों और जलाषयों के नामों निषां जैसे मैंने ही मिटा दिये हैं. मैं लोक पर्व हूं, सामूहिकता में जीती हूं. मैं पानी बचाने का विरोध नहीं कर रही. पानी बचेगा तभी मैं बचूंगी लेकिन मेरे मूल पहचान को भी बचे रहने दो. अब तो रंग-पानी ही मेरी पहचान है न! पहले तो लोग अलकतरा, अलमुनियम पेंट वगैरह भी लगा देते थे लेकिन अब सब अपने-अपने समाज ने बदल लिया है. समाज चाहता है कि उसका आयोजन बदलते समय के साथ सुंदर रूप में रहे. सर्वाइव करने लायक रहे. अब रंग-पानी पर भी आफत नहीं लाओ. अखबारवाले अभियान नहीं चलाओ न! लोगों का मानस नहीं बदलो न! मुख्यमंत्री-राज्यपाल वगैरह भी अपील कर रहे हैं कि सूखी होली खेलें, तिलक-अबीर होली खेलें. वे यह क्यों नहीं कहते कि एक गाड़ी रखो, गाड़ी रोज नहीं धोया करो, वह पानी की ज्यादा बर्बादी करवाता है. मैं ही सबके निशाने पर क्यों हूं. बाजार वाले चाहकर भी मेरे नाम पर दिपावाली या दशहरे की तरह बाजार खड़ा नहीं कर पा रहे इसलिए क्या! नहीं मालूम. लेकिन एक सच्ची बात कहूं. मैं रहूंगी तो समाज का पानी भी बचाकर रखूंगी. मुझे बचा लो प्लीज!

March 5, 2011

लोकरस के धार की असल सूत्रधार थीं वह


                                पांच मार्च को पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी की जयंती पर विशेष
निराला
आज के कुछेक, विशेषकर भोजपुरी लोकगीत गायक-गायिकाओं से समय-समय पर बात-मुलाकात होती है. अधिकतर जो इस क्षेत्र में नये-नवेले आये हैं, वे बेतरतीब आग्रहों के साथ बताते हैं कि बस! फलां अलबम आ जाये तो छा जायेंगे. जो इस क्षेत्र में खुर्राट हो चुके हैं उनका भी अमूमन जवाब होता है- फलां अलबम आ रहा है न...! गाना गा भर लेना, अलबमों की संख्या अधिक से अधिक बढ़ा लेना, अधिक से अधिक कार्यक्रमों को अपने पाले में कर लेना, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु की तरह हो गया है. ऐसे में विंध्यवासिनी से हुई इकलौती मुलाकात बार-बार याद आती है. अब के समय में उनके व्यक्तित्व, कृतित्व को याद करना कल्पनालोक में विचरने-सा लगता है.
18 फरवरी 2006 का वह दिन याद आता है. उस रोज दुपहरिया का समय था. पटना के कंकड़बाग मोहल्ले के वकील साहब की हवेली में उनसे मिलने पहुंचा था. नहीं मालूम था कि यह मुलाकात इकलौती और आखिरी मुलाकात साबित होगी. तब उम्र के 86वें साल में बिहार की स्वर कोकिला विंध्यवासिनी कई बीमारियों की जकड़न में थी. न ठीक से बैठने की स्थिति थी, न बोलने-बतियाने की ताकत. लेकिन बच्चों जैसी उमंग, उत्साह लिये सामने आयीं. गरजे-बरसे रे बदरवा, हरि मधुबनवा छाया रे..., हमसे राजा बिदेसी जन बोल..., हम साड़ी ना पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा द... जैसे कई गीतों को सुनानेे लगीं. तन एकदम साथ नहीं दे रहा था, गले को बार-बार पानी से तर करतीं लेकिन मन और मिजाज ऐसा कि मना करने पर भी रूक नहीं रही थीं. एक के बाद एक गीत सुनाते गयीं. दरअसल, लोक संगीत की लोक देवी विंध्यवासिनी ऐसी ही थीं. अपने रोम-रोम में लोकसंगीत को जिंदगी की आखिरी बेला तक रचाये-बसाये रहीं. जिन दिनों कैसेट, सीडी, रिकार्ड का चलन नहीं था, उस दौर में रेडियो के सहारे विंध्यवासिनी बिहार के लोकजुबान और दिलों पर राज करती थीं. वह सिर्फ गा भर नहीं रही थी, उसी दौरान लोक रामायण की रचना भी कर रही थीं, ऋतुरंग जैसे गीतिका काव्य भी रच रही थी. पटना में विंध्य कला केंद्र के माध्यम से कई-कई विंध्यवासिनी को तैयार कर रही थीं.
पांच मार्च 1920 को मुजफ्फरपुर में जन्मीं थीं विंध्यवासिनी. आजादी से पहले का समय था. तब की परिस्थितियों के अनुसार इतना आसान नहीं था कि वह गीत-गवनई की दुनिया में आयें. सामाजिक और पारिवारिक बंदिशें उन्हें इस बात का इजाजत नहीं देती थीं लेकिन संयोग देखिए कि बचपने से ही संगीत के सपनों के साथ जीनेवाली विंध्यवासिनी को शादी के बाद उनके पति सहदेवेश्वर चंद्र वर्मा ने ही प्रथम गुरू, मेंटर और मार्गदर्शक की भूमिका निभाकर बिहार में लोकक्रांति के लिए संभावनाओं के द्वार खोलें. स्व. वर्मा खुद पारसी थियेटरों के जाने-माने निर्देशक हुआ करते थे. विंध्यवासिनी को संगीत नाटक अकादमी सम्मान, पद्मश्री सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, देवी अहिल्या बाई सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान आदि मिलें. विंध्यवासिनी कहती थीं कि इन सबसे कभी किसी कलाकार का आकलन नहीं होगा. न ही सीडी-रिकार्ड आदि से, जिसकी उम्र बहुत कम होती है. जो पारंपरिकता को बचाये-बनाये रखने और बढ़ाने के लिए काम करेगा, दुनिया उसे ही याद करेगी. विंध्यवासिनी उसी के लिए आखिरी समय तक काम करते रहीं. वह भी एक किसी एक भाषा, बोली को पकड़कर नहीं बल्कि जितने अधिकार से वे मैथिली गीतों को गाती-रचती थीं, वही अधिकार उन्हें भोजपुरी में भी प्राप्त था. डिजिटल डोक्यूमेंटेशन के पाॅपूलर फाॅर्मेट में जाये ंतो विंध्यवासिनी ने दो मैथिली फिल्मों- भैया और कन्यादान में गीत गाये, छठी मईया की महिमा हिंदी अलबम तैयार किये तथा डाक्टर बाबू में पाश्र्व गायन-लेखन किये लेकिन इस कोकिला की कूक अब भी बिहार के लोकमानस में गहराई से रची-बसी है. आजादी के पहले से लेकर उसके बाद के कालखंड में विंध्यवासिनी ने ही पहली बार महिला कलाकारों के लिए एक लीक तैयार की थी , जिस पर चलकर आज महिला लोकसंगीत कलाकारों की बड़ी फौज सामने दिखती है, भले ही भटकाव ज्यादा है, मौलिकता नगण्य...