March 5, 2011

लोकरस के धार की असल सूत्रधार थीं वह


                                पांच मार्च को पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी की जयंती पर विशेष
निराला
आज के कुछेक, विशेषकर भोजपुरी लोकगीत गायक-गायिकाओं से समय-समय पर बात-मुलाकात होती है. अधिकतर जो इस क्षेत्र में नये-नवेले आये हैं, वे बेतरतीब आग्रहों के साथ बताते हैं कि बस! फलां अलबम आ जाये तो छा जायेंगे. जो इस क्षेत्र में खुर्राट हो चुके हैं उनका भी अमूमन जवाब होता है- फलां अलबम आ रहा है न...! गाना गा भर लेना, अलबमों की संख्या अधिक से अधिक बढ़ा लेना, अधिक से अधिक कार्यक्रमों को अपने पाले में कर लेना, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु की तरह हो गया है. ऐसे में विंध्यवासिनी से हुई इकलौती मुलाकात बार-बार याद आती है. अब के समय में उनके व्यक्तित्व, कृतित्व को याद करना कल्पनालोक में विचरने-सा लगता है.
18 फरवरी 2006 का वह दिन याद आता है. उस रोज दुपहरिया का समय था. पटना के कंकड़बाग मोहल्ले के वकील साहब की हवेली में उनसे मिलने पहुंचा था. नहीं मालूम था कि यह मुलाकात इकलौती और आखिरी मुलाकात साबित होगी. तब उम्र के 86वें साल में बिहार की स्वर कोकिला विंध्यवासिनी कई बीमारियों की जकड़न में थी. न ठीक से बैठने की स्थिति थी, न बोलने-बतियाने की ताकत. लेकिन बच्चों जैसी उमंग, उत्साह लिये सामने आयीं. गरजे-बरसे रे बदरवा, हरि मधुबनवा छाया रे..., हमसे राजा बिदेसी जन बोल..., हम साड़ी ना पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा द... जैसे कई गीतों को सुनानेे लगीं. तन एकदम साथ नहीं दे रहा था, गले को बार-बार पानी से तर करतीं लेकिन मन और मिजाज ऐसा कि मना करने पर भी रूक नहीं रही थीं. एक के बाद एक गीत सुनाते गयीं. दरअसल, लोक संगीत की लोक देवी विंध्यवासिनी ऐसी ही थीं. अपने रोम-रोम में लोकसंगीत को जिंदगी की आखिरी बेला तक रचाये-बसाये रहीं. जिन दिनों कैसेट, सीडी, रिकार्ड का चलन नहीं था, उस दौर में रेडियो के सहारे विंध्यवासिनी बिहार के लोकजुबान और दिलों पर राज करती थीं. वह सिर्फ गा भर नहीं रही थी, उसी दौरान लोक रामायण की रचना भी कर रही थीं, ऋतुरंग जैसे गीतिका काव्य भी रच रही थी. पटना में विंध्य कला केंद्र के माध्यम से कई-कई विंध्यवासिनी को तैयार कर रही थीं.
पांच मार्च 1920 को मुजफ्फरपुर में जन्मीं थीं विंध्यवासिनी. आजादी से पहले का समय था. तब की परिस्थितियों के अनुसार इतना आसान नहीं था कि वह गीत-गवनई की दुनिया में आयें. सामाजिक और पारिवारिक बंदिशें उन्हें इस बात का इजाजत नहीं देती थीं लेकिन संयोग देखिए कि बचपने से ही संगीत के सपनों के साथ जीनेवाली विंध्यवासिनी को शादी के बाद उनके पति सहदेवेश्वर चंद्र वर्मा ने ही प्रथम गुरू, मेंटर और मार्गदर्शक की भूमिका निभाकर बिहार में लोकक्रांति के लिए संभावनाओं के द्वार खोलें. स्व. वर्मा खुद पारसी थियेटरों के जाने-माने निर्देशक हुआ करते थे. विंध्यवासिनी को संगीत नाटक अकादमी सम्मान, पद्मश्री सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, देवी अहिल्या बाई सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान आदि मिलें. विंध्यवासिनी कहती थीं कि इन सबसे कभी किसी कलाकार का आकलन नहीं होगा. न ही सीडी-रिकार्ड आदि से, जिसकी उम्र बहुत कम होती है. जो पारंपरिकता को बचाये-बनाये रखने और बढ़ाने के लिए काम करेगा, दुनिया उसे ही याद करेगी. विंध्यवासिनी उसी के लिए आखिरी समय तक काम करते रहीं. वह भी एक किसी एक भाषा, बोली को पकड़कर नहीं बल्कि जितने अधिकार से वे मैथिली गीतों को गाती-रचती थीं, वही अधिकार उन्हें भोजपुरी में भी प्राप्त था. डिजिटल डोक्यूमेंटेशन के पाॅपूलर फाॅर्मेट में जाये ंतो विंध्यवासिनी ने दो मैथिली फिल्मों- भैया और कन्यादान में गीत गाये, छठी मईया की महिमा हिंदी अलबम तैयार किये तथा डाक्टर बाबू में पाश्र्व गायन-लेखन किये लेकिन इस कोकिला की कूक अब भी बिहार के लोकमानस में गहराई से रची-बसी है. आजादी के पहले से लेकर उसके बाद के कालखंड में विंध्यवासिनी ने ही पहली बार महिला कलाकारों के लिए एक लीक तैयार की थी , जिस पर चलकर आज महिला लोकसंगीत कलाकारों की बड़ी फौज सामने दिखती है, भले ही भटकाव ज्यादा है, मौलिकता नगण्य...

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