March 19, 2011

मैं आपकी ‘ होली’, मुझे बचा लो ! प्लीज...


निराला
मैं आपकी होली. पिछले कुछ वर्शों से मुझसे एक बड़ा वर्ग अलगाव-दुराव का भाव बरतने लगा है. वे कहते हैं कि मैं तो लुच्चे-लफंगों का त्यौहार हूं. मुझे उन्मादी बताते हैं. लेकिन मैं वैसी हूं नहीं. लोक को मस्ती में पिरोनेवाली हूं मैं. पर्व-त्यौहारों, धार्मिक उत्सवों-आयोजनों के बीच अपने तरह की संभवतः अकेली हूं मैं. धार्मिक पर्व-त्यौहार की षक्ल में रहते हुए भी उससे बहुत अलहदा हूं. सीधा वास्ता नहीं है मेरा धार्मिक अनुश्ठानों या कर्मकांडों से. मेरे नाम पर पूजा-पाठ कर लो तो ठीक, नहीं करो तो भी कोई बात नहीं. अन्य पर्व-त्यौहारों की तरह किसी खास देवी-देवता की उपासना से भी मेरा ठोस संबंध नहीं. ब्रज वाले कृष्ण को केंद्र में रखते हैं, अवध वाले रामचंद्र को. बनारस वालों के लिए दिगंबर यानि शंकर की होली भाती है. गांव-जवार में अपने-अपने कुलदेवता को केंद्र में रखते हैं सब. परलोक से भले वास्ता ज्यादा न हो लेकिन लोक से जितना वास्ता है, उतना षायद अन्य त्यौहारों का नहीं. अब भी चलो गांव में, देख लो कि मैं कैसे अपने नाम पर जातीय और सांप्रदायिक दूरियों को पाटती हूं. कोई दलित और अगड़ी का भेद नहीं होता. जिसे चाहे रंग लगाओ, राह गुजरते हुए पीछे से धूल-गरदा डालकर भाग जाओ. कोई किसी भी जाति का हो, गांव के सार्वजनिक जगह पर जब गीत-गवनई का दौर शुरू होता है तो यह नहीं पूछा जाता कि कौन फलां जाति का है, कौन क्या है. सब एक साथ बैठते हैं ढोल, झाल लेकर. एक ही रंग में रंगे हुए. बड़े लोगों के दरवाजे पर भी उसी भदेस अंदाज में बात होती है, जो अंदाज किसी मामूली और छोटे लोगों के दरवाजे पर होता है. मस्ती, मस्ती और मस्ती... अल्हड़पन के साथ सामूहिकता को बचाये-बनाये रखने की कोषिष होती है मेरी. मैं सिर्फ हिंदू की नहीं हूं. फणीष्वरनाथ रेणु को जानते हो न! वे अपने गांव में होली गाने के बाद बगल के मुसलमानों के गांव में झलकूटन आयोजन करवाते थे. वाजिद अली शाह, नजीर अकबराबादी का नाम सुना है आपने, मेरे पर कई-कई गीत लिख डाले हैं उन्होंने. और भी कई हैं, कितना बताउं. यह तो आप भी मानते हो न, मैं अकेली हूं, जिसे आप चाहकर भी अकेले नहीं मना सकते. आप दिवाली की तरह नहीं कर सकते कि घर में तरह-तरह के पटाखे लाओ, मिठाइयां लाओ, नये कपड़े पहनो और चकाचैंध लाइट वगैरह जलाकर मना लो. मैं व्यक्तिवाद को तोड़ती हूं. होली मना रहे हो या मनाओगे, इसके लिए समूह में आना ही होगा. दिन-ब-दिन व्यक्तिवादी होते समाज और पर्व-त्यौहारों के बदलते स्वरूप के बीच मेरी पहचान ही सामूहिकता से है. सब यह भी कहते हैं कि मैं तो दारू-सारू वालों की हूं. यह तो वैसी ही बातें करते हैं जैसे पूरा समाज एक मेरे लिए ही सालों भर इंतजार करता रहता है कि मैं आउं तो दारु-सारू पियेगा. बाकि सालों भर हाथ ही नहीं लगाता. सड़कों पर षादी-बारात का जो जुलूस दिखता है, उसमें कोई कम पीकर हंगामा करते हैं . वही क्यों, सरस्वती पूजा, दुर्गा पूजा के भसान में तो दारू उत्सव ही मनाते हैं सब. कोई नेता जीत जाये तो दारू की नदी बहती है, किसी को जीतना हो तो दारू का ड्राम लाकर रखता है. फिर मेरे से ही दारू वगैरह का नाम क्यों जोड़ते हैं सब. खैर! मैं इससे बहुत परेषान नहीं हूं. मैं आज खुद को बचाने की गुहार लगा रही हूं तो उसकी वजह कुछ दूसरी है, जिससे मेरे अस्तित्व पर संकट मंडराता दिख रहा है.
अब उन्मादी के बाद मुझमें संकट के तत्वों की तलाष की जा रही है. रोज-ब-रोज तरह-तरह के विज्ञापन आ रहे हैं. अभियान चल रहा है. अनुरोध किया जा रहा है. निजी और सरकारी स्तर पर भी. प्रकारांतर से सबकी एक ही गुहार है, एक ही सलाहियत है कि सुखी होली खेलें, तिलक होली खेलें, अबीर की होली खेलें, पानी को बचा लें. पानी को बचाने के लिए मुझे बीच में लाया गया है. सामूहिक रूप से कोषिष हो रही है, जैसे जल संकट का कारण मैं ही हूं. आंकड़े बताये जा रहे हैं कि मैं कितना पानी बर्बाद करवा देती हूं. साल में एक दिन आती हूं मैं, तो इस कदर मेरे नाम से भय का भाव भरा जा रहा है. पानी का वास्ता देकर. कोई यह नहीं पूछता कि एक-एक आदमी ने अपने समाज में कई-कई गाड़ियां क्यों रखी हैं. इटली समेत कई देषों में तो एक घर में एक गाड़ी से ज्यादा रखी ही नहीं जाती. एक-एक आदमी ने यहां चार-चार गाड़ियां रखी हैं, उन्हें धोने में जो पानी जाता है, उससे पानी की बर्बादी नहीं होती क्या? मेरी पहचान को  खत्म करने का अभियान चल रहा है जैसे मैंने ही सारे जलस्रोतों को सूखा दिया है, नदियों का अस्तित्व मैंने ही खत्म कर दिया है. तालाबों और जलाषयों के नामों निषां जैसे मैंने ही मिटा दिये हैं. मैं लोक पर्व हूं, सामूहिकता में जीती हूं. मैं पानी बचाने का विरोध नहीं कर रही. पानी बचेगा तभी मैं बचूंगी लेकिन मेरे मूल पहचान को भी बचे रहने दो. अब तो रंग-पानी ही मेरी पहचान है न! पहले तो लोग अलकतरा, अलमुनियम पेंट वगैरह भी लगा देते थे लेकिन अब सब अपने-अपने समाज ने बदल लिया है. समाज चाहता है कि उसका आयोजन बदलते समय के साथ सुंदर रूप में रहे. सर्वाइव करने लायक रहे. अब रंग-पानी पर भी आफत नहीं लाओ. अखबारवाले अभियान नहीं चलाओ न! लोगों का मानस नहीं बदलो न! मुख्यमंत्री-राज्यपाल वगैरह भी अपील कर रहे हैं कि सूखी होली खेलें, तिलक-अबीर होली खेलें. वे यह क्यों नहीं कहते कि एक गाड़ी रखो, गाड़ी रोज नहीं धोया करो, वह पानी की ज्यादा बर्बादी करवाता है. मैं ही सबके निशाने पर क्यों हूं. बाजार वाले चाहकर भी मेरे नाम पर दिपावाली या दशहरे की तरह बाजार खड़ा नहीं कर पा रहे इसलिए क्या! नहीं मालूम. लेकिन एक सच्ची बात कहूं. मैं रहूंगी तो समाज का पानी भी बचाकर रखूंगी. मुझे बचा लो प्लीज!

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