February 17, 2011

25 साल पहले का बिहार, 25 साल पहले की एक फिल्म


 निराला
कोई फिल्मी लटका-झटका, न ही खुशी-गम, प्रेम-प्यार-इश्क-मोहब्बत का रोनी धुन. गीत-संगीत का जलवा भी नहीं कि जुबान पर चढ़ जाये और लोगों को सिनेमा हाॅल तक पहुंचा दे. 25 साल पहले बिहार की धरती पर, बिहार की समस्या को लेकर, बिहारी गंवई मुहावरे से लवरेज एक ऐसी ही फिल्म बनी थी.फिल्म का नाम था-दामुल. उस जमाने में दो बिहारियों की परिकल्पना मायावी परदे पर उतरी थी लेकिन मायाजाल कहीं नहीं था. एक थे शैवाल जो अपनी लेखनी से एक साधारण-सी कहानी का फलक विस्तारित करते हुए एक गांव के प्लाॅट में देश-दुनिया के सिस्टम को स्थापित करने में लगे हुए थे तो दूसरे थे प्रकाश झा, जो बाॅलीवुड के बने-बनाये तमाम फाॅर्मूले को एक झटके में ध्वस्त कर रहे थे. बाजार को झुठलाकर एक नया फाॅर्मूला गढ़ रहे थे. प्रकाश झा बिहारशरीफ दंगे पर एक डोक्यूमेंट्री फिल्म तथा हिप-हिप-हुर्रें जैसी फिल्म बना लेने के बाद भी बिहार में मजबूत कथानक की तलाश कर रहे थे. शैवाल और प्रकाश झा जैसे दो ठेठ समझ वाले बिहारी मिले, तो ‘दामुल’ नाम से फिल्म बनी. तकनीकी रूप से साल 1984 के आखिरी दिन यह फिल्म रीलिज हुई लेकिन व्यावहारिक तौर पर 1985 की फिल्म थी. बिहार के एक गांव की समस्या पर बनी फिल्म में पूरी हिंदी पट्टी ने अपने गांव की समस्या को तलाशना शुरू किया, देश भर के सिनेप्रेमी, समीक्षक और सिनेमा के पंडित हैरत में पड़ गये कि भला ऐसी फिल्म भी बन सकती है और तब बड़े-बडे समीक्षकों ने सार्वजनिक तौर पर लिखंत में यह घोषणा की कि हिंदी पट्टी की समस्या पर, हिंदी भाषा में, हिंदी वालों के द्वारा बनी यह भारत की पहली फिल्म है. फिल्म के कहानीकार शैवाल बताते हैं कि तब नेशनल फिल्म अवार्ड की बारी आयी तो अरविंदम की मलयालम फिल्म ‘मुखा मुखम’, सत्यजीत रे की ‘घरे बाहिरे’ और गौतम घोष की ‘पार’ जैसी फिल्मों को रेस में पछाड़कर ‘ दामुल’ ने अपना स्थान बनाया. लेकिन कहते हैं न कि वक्त के बदलाव के साथ सबकुछ बदल जाता है. रीतियां, नीतियां, पद्धतियां, प्रणालियां, महत्व, मान्यतायें... सब. 25 साल में बिहार ने वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. प्रकाश झा ने भी वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. बकौल मुंबई के फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्ामत्मज, प्रकाश झा की फिल्मों में अब वैसी राजनीतिक आवाज नहीं सुनायी पड़ती, जैसी कि दामुल में थी या उसके बाद मृत्युदंड में. जो दामुल को देखेगा, वह यह कहेगा कि प्रकाश झा की पकड़ बिहार के विषयों पर कमजोर हुई या फिर साहस में कमी आयी है. मशहूर व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम कहते हैं कि ‘ दामुल’ निश्चित तौर पर अपने समय की बेहतरीन फिल्म थी और एक लिहाज से हिंदी पट्टी की समस्या पर उस तरह कीदूसरी फिल्म उस माहौल को दिखाते हुए नहीं बनी लेकिन अब इतने साल बाद उसके सिक्वल की गुंजाइश है और उसके रिमेकिंग की भी. दामुल एक इतिहास बन गया. अब नयी पीढ़ी के बीच प्रकाश झा की पहचान ‘ अपहरण’,‘ राजनीति’ जैसी फिल्मों के माध्यम से है. बिहार को अब देखने-समझने वाले नौजवान दामुल देखें तो रोम-रोम में सिहरन पैदा हो जाएगी कि क्या ऐसा भी होता था. लेकिन बिहार ने पिछले तीन दशक में कैसे करवट लिया है इसे समझने के लिए लोक के बीच सबसे पाॅपूलर विधा सिनेमा के जरिये यदि महसूसना हो तो ‘ दामुल’ को देखा जा सकता है. कहा जाता है कि बिहार की सामाजिक और राजनतिक धारा जाति के खोल में बंधी रहती है. बिहार नक्सलियों के आंदोलन के कारण भी काफी चरचे में रहा. जातीय नरसंहार के लिए भी यहां की धरती काफी उर्वरा रही. अब यह भी सुनने को मिलता है कि सब बिते दिनों की बात हुई. बिहार में विकास की राजनीति को अब मुख्यधारा की राजनीति माना जा रहा है. सच शायद इतना भर नहीं है. बिहार में कई ऐसे कोने हैं, जो आज भी सिसक रहे हैं. उस स्थिति की कल्पना से रोम-रोम में सिहरन पैदा हो सकती है. और यदि 25 साल पहले के बिहार के एक हिस्से को महसूसना हो तो इसे मंुहामुंही सुनने की बजाय जीवंत चित्रण के साथ एक फिल्म को देखकर समझा जा सकता है.


दामुल: साधारण कहानी, असाधारण संवाद


 गांव के ठेठ मुहावरों के साथ देसी छौंके का प्रयोग है फिल्म की जान
यह थी कहानीः
गांव का एक मुखिया है माधो पांड़े. ब्राह्मण जाति का. उसका छोटा भाई है राधो. मुखिया के राजनीतिक दुश्मन हैं राजपूत जाति के बच्चा बाबू. माधो पांडे़ का जीतना बच्चा बाबू को गंवारा नहीं. चुनाव का समय आने पर बच्चा बाबू खुद न खड़ा होकर हरिजन जाति के गोकुल को माधो के मुकाबले का उम्मीदवार बनाते हैं. यह खबर लगते ही माधो पांड़े के सिपहसलार  दलित जाति को कब्जे में रखने के लिए दलित जाति के ही बंधुआ मजदूर पुनाई चमार को हथियार-असलहा लाने के लिए भेजते हैं. लेकिन इस बात की भनक मुखिया माधो के भाई राधो को लग जाती है कि हथियार लेकर आने के बाद पुनाई हरिजन टोला में जा सकता है, लठैत पुनाई को मार देते हैं चुनाव में हरिजन टोला के लोग बंधक बना दिये जाते हैं. माधो फिर चुनाव जीतता है. पुनाई को मारने के बाद माधो मुखिया के लठैत उसके खेतों से फसल काटने लगते हैं. संजीवना को बताया जाता है कि उसके बाप पुनाई ने जो करजा लिया था, उसके एवज में फसल काट रहे हैं. मुखिया संजीवना से सादे कागज पर अंगूठा लगवा लेते हैं. संजीवना कर्ज वापसी के वादे के साथ घर चला जाता है. उसी रात गांव में संेधमारी कर एक घर में चोरी होती है. आरोप संजीवना पर लगाया जाता है जबकि चोरी वाले रात संजीवना बुखार के मारे घर में तड़पता होता है..मुखिया पुलिस से बचाने के एवज में संजीवना से इलाके में जाकर पशुओं की चेारी करने के लिए विवश कर देता है. माधो मुखिया की नजर गांव के ही एक बाल विधवा महत्माईन के देह और खेत दोनों पर रहती है. दूसरी ओर गरीबी से तंग गांव के दलित पंजाब जाने की तैयारी करते हैं. हरिजन मजदूरों के जाने से राधो का काम गड़बड़ा जाता क्योंकि वह इन्हीं मजदूरों का शोषण कर ठेकेदारी में कमाता था. रास्ते में पलायन करनेवाले मजदूरों को मारा जाता है. उनकी बस्ती जला दी जाती है. मामला यह बनाया गया कि दूसरे गांव के डकैतों से भिंड़ने में मारे गये. संजीवना और महत्माईन राधो के इस कारनामे के खिलाफ मंुह खोलते हैं. मुखिया महत्माईन को मरवा डालता है और उस हत्या में संजीवना को फंसा देता है.यह सब खेल करने के पहले माधो मुखिया और बच्चा बाबू एक हो जाते हैं. बच्चा बाबू को हरिजनों को भ्रम का पाठ पढ़ाने के बदले में महत्माईन की जमीन देने का वादा माधो मुखिया करते हैं. संजीवना को फांसी की सजा होती है. माधो मुखिया सब करने के बाद एक शाम चैपाल में अलाव ताप रहे होते है तभी संजीवना की पत्नी रजूली गंड़ासे से मुखिया पर प्रहार करती है. माधो का सिर धड़ से अलग हो जाता है.
संवादों की बानगी
-तड़प रहा है रजपूतवा. अरे एक अंडा भी आ जाये बस्ती से भोट देने त पेसाब कर दीजिएगा हमरे मोछ पर मालिक.
- अगर माधो पांड़े का सतरंगा खेल जानोगे तो तरवा से पसेना निकलेगा, पसेना...
- चमार को भोट देने के लिए कहियेगा बच्चा बाबू तो ई तो सुअर के गुलाबजल से नहवावे वाला बात हुआ न! एक बेर किलियर बेरेन से सोच लीजिए बच्चा बाबू.
- बेरेन तो आपलोगों का मारा गया है. अरे गोकुलवा को खड़ा कउन किया है? हम. जितायेगा कउन? हम. तो राज का करेगा चमार. आपलोग समझिये नहीं रहे हैं. बाभन के राज को खत्म करने के लिए ईहे आखिरी पोलटिस बच गया है.
- अब जरा परची बना द हो दामु बाबू, कउवा बोले से पहिले लउटना है.
- चेहरा एकदम पीयर- कल्हार हुआ है. का बात है, बीमार-उमार थी का?
- जनावर के ब्यौपार में कउनो झंझट नहीं है.
- बड़ी तफलीक में है हमरा साला.
- बस कर रे रंडी,छू लिया तो हमरा स्नान करना पड़ेगा. अरे चलो भागो इहां से, का हो रहा है इहां, रंडी के नाच!
- मुंहझउंसा, अभी त लउटा है.
- काम तो उहां बदनफाड़ है मालिक लेकिन पइसा भी खूबे मिलता है पंजाब में. दिन भर में एक टैम भोजन अउर दस गो रुपइया.
- ए माधो पांड़े, छोड़ो लल्लो-चप्पो का बात. जबान का चाकू ना चलाओ. डायरेक्ट प्वाइंट पर आओ.
- महत्माईन बड़ा उड़ रही है रून्नू बाबू.
- संजीवना रे संजीवना, तू मुखियवा को काट के दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे संजीवना...

काश! ‘दामुल के रास्ते चलता बाॅलीवुड लेकिन वह तो सपना दिखानेवाला संसार रचने में ही लगा रहा


दामुल फिल्म के २५ साल पुरे होने पर लेखक शैवाल से निराला की बातचीत 

- 25 साल पहले लौटकर जब आप अपनी ही फिल्म ‘दामुल’ को देखते हैं तो अब कैसा लगता है.
- खुशी होती है, गम भी होता है. खुशी इस बात की कि समस्या को केंद्र में रखकर बिल्कुल आम आदमी की जबान में हिंदी में पहली बार ऐसी फिल्म बन गयी. अफसोस इस बात का होता है कि उसके बाद बाॅलीवुड दामुल के रास्ते चलने का साहस  नहीं जुटा सका. मैं मानता हूं कि यदि बाॅलीवुड ‘दामुल’ के रास्ते चलता तो आज फिल्मों का परिदृश्य कुछ और होता.
- क्यों नहीं चल सका बाॅलीवुड उस रास्ते पर, कोई वजह तो होगी? हिंदी में वैसी फिल्मों का दर्शक वर्ग भी है क्या?
- बाॅलीवुड के लिए यही तो सबसे बड़ी विडंबना है कि हिंदी के प्रतिबद्ध दर्शकों का समूह अब तक तैयार नहीं हो सका है. हिंदी सिनेमा ने सपने दिखलानेवाला संसार रचने का काम ही प्रमुखता से किया. दर्शक वर्ग है क्यों नहीं? आखिर रोटी या दो आंखें-बारह हाथ जैसी फिल्में हिंदी में ही बनती थी, खूब चलती थी तो दर्शक वर्ग तो था ही न! लेकिन अब समय के साथ जो बदलाव हुए हैं, उसमें बड़ा फर्क यह आया है कि जिसके पास पैसा है, उन्हें गांव और गांव की समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं.
- ‘दामुल’ जमींदारी, सामंती व्यवस्था से त्रस्त समाज की कहानी है. अब वैसी व्यवस्था बिते दिन की बात हुई तो उसकी प्रासंगिकता कितनी है?
- बिल्कुल प्रासंगिकता है. मैं तो यह कहता हूं कि प्रासंगिकता और बढ़ गयी है. क्या बदल गया है, मानसिकता में बदलाव हुआ क्या. पहले जमींदार थे, सामंत थे वे दूसरे आवरण के साथ ठेकेदार-नेता और कारपोरेट्स बन गये हैं. अब जो मुखिया चुने जा रहे हैं, क्या उनका अपना आतंक नहीं है. देखिए तो उनकी जीवन शैली को बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर चलते हैं, कहां से आ रहा है पैसा? दामुल में हमने पनहा व्यवस्था को उठाया है यानि जानवरों को चुराकर उसके एवज में पैसे की मांग करना. अब आदमी का अपहरण हो रहा है और पनहा की जगह फिरौती मांगी जाती है. पूरे हिंदुस्तान में मानसिकता में बहुत बदलाव नहीं हुआ है. दामुल के वक्त भी पुलिस और कानून व्यवस्था भ्रष्ट थी, पहुंच वाले लोगों का साथ देती थी. व्यवस्था अब भ्रष्टतम रूप में है और रसूख वालों का अब भी कुछ नहीं बिगड़ता.
- ‘दामुल’ फिल्म की कहानी लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
- दरअसल मेरे साहित्यिक जीवन में मेरा कोई गुरु नहीं बल्कि जहानाबाद जिला और वहां के अति पिछड़ा घोसी ब्लाॅक के लोगों को, परिवेश को ही मैं अपना गुरू मानता हूं. मैं सरकारी नौकरी में सबसे ज्यादा दिन 1972-80 तक उसी इलाके में रहा. उन दिनों ‘रविवार’ पत्रिका में गांव काॅलम लिखा करता था. मैंने इस इलाके से एक रिपोर्ट लिखी-जमींदारों द्वारा जानवरों की चोरी करवाने की व्यवस्था यानि पनहा सिस्टम पर. देश भर से प्रतिक्रिया मिली. बाद में मैंने उसी रिपोर्ट को एक्सटेंड कर ‘ कालसूत्र’ नाम से कहानी लिखी तो हिंदी जगत में उसे नोटिस लिया गया. प्रकाश झा उन दिनों संघर्ष कर रहे थे. बिहारशरीफ में दंगा छिड़ा तो उस पर डोक्यूमेंट्री बनाने के लिए प्रकाश झा यहां आये. उन्होंने ‘फेसेज आफ्टर द स्टाॅर्म’ नाम से डोक्यूमेंट्री बनाने के क्रम में मुझसे संपर्क किया. तब मैंने बिहारशरीफ दंगे पर कुछ कविताएं लिखी थीं. प्रकाश झा ने अपने डोक्यूमेंट्री में उन कविताओं के इस्तेमाल की इजाजत मांगी. हमारे संबंध बने.उसके बाद प्रकाश झा ने ‘कालसूत्र’ पर फिल्म बनाने की बात मुझसे कही और यह भी कहा  िकइस पूरी कहानी को मैं आपके नजरिये से देखना चाहता हूं. मैंने स्क्रिप्ट पर काम शुरू किया. फिर जो फिल्म बन ीवह तो सबके सामने आयी ही.
- क्या फिर दामुल जैसी कहानी लिखने को किसी ने कहा आपसे...?
- किसी ने नहीं कहा.
- प्रकाश झा ने तो ‘दामुल’ के बाद ‘मृत्युदंड’ जैसी फिल्म बनायी तो फिर कहानी आपकी ही रही. फिर यह चर्चित जोड़ी रीपीट नहीं हो सकी...?
 मृत्युदंड के समय ही कुछ तकनीकी बातों पर हमारे रास्ते अलग हो गये. और फिर मैंने कभी कोशिश भी तो नहीं की उनसे जुड़ने की. दरअसल, हम दोनों में एक बड़ा फर्क है- प्रकाश झा कहते हैं मार्केट ओरिएंटेड होना होगा और मैं वह कभी हो नहीं सकता. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमारे व्यक्तिगत संबंधों पर इसका असर पड़ा है. हम सामाजिक सरोकार के फ्रंट पर अलग हैं, व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है.
- ‘ दामुल’ ने समग्रता में अपनी पहचान छोड़ी थी. कहानी, प्रस्तुति, संवाद, लोकेशंस एंड काॅस्ट्यूम... आपको सबसे ज्यादा क्या पसंद आयी थी.
- फिल्म का प्रयोगशील निर्देशन और रघुनाथ सेठ का बैकग्राउंड म्यूजिक. वह पूरे फिल्म को बांधकर रखता है. बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को किस तरह एक नया आयाम दे सकता है, उसे दामुल में देख सकते हैं.
- आपके अनुसार ‘दामुल’ में सबसे अहम दृश्य...
- जब नायक संजीवना की पत्नी रजुली मुखिया को मारने गंड़ासा लेकर पहुंचती है, मारते हुए चिल्लाती है, वह दृश्य. दलित मानवता की न्याय यात्रा है उस दृश्य में. और फिर यह संदेश भी कि स़्त्री कोमल स्वभाव की होती है लेकिन समाज के केंद्र में वही होती है, प्रतिशोध वही कर सकती है.
- उस फिल्म से जुड़ी हुई कुछ यादें, जो अब भी जेहन में जीवंतता के साथ मौजूद हो.
 कई यादें हैं. उस फिल्म में लौंडा नाच करते हुए जिन दो नचनियों को दिखाया गया है, वे बेतिया-मोतिहारी के रहनेवाले थे. उनकी फोटोग्राफी होनी थी. कई बार मैं समझाता रहा कि मिनट भर के लिए स्थिर खड़े रहो लेकिन दोनों नहीं रह सके, कमर हिला ही देते थे. और फिर फिल्म में ताड़ीखाने का दृश्य, जिसे समझाने के लिए प्रकाश झा ने कहा कि आप खुद समझाइये कि ताड़ीखाना का माहौल कैसा रहता है, क्योंकि आपका अनुभव है.
- तो क्या दूसरे ‘ दामुल’ की उम्मीद शैवाल से अब भी की जा सकती है?
 दूसरे ‘दामुल’ की बात तो नहीं करूंगा लेकिन एक दशक को यदि एक कालखंड माने तो बिहार में दामुल के बाद तीन कालखंड गुजर गये और उन तीनों कालखंड पर फिल्म बननी चाहिए. उसके लिए कहानी लिख चुका हूं. उम्मीद कीजिए कि निकट भविष्य में उसे परदे पर भी देखेंगे. पहला ‘दास कैपिटल’ है, जो निम्न मध्यवर्ग की त्रासदी को बयां करेगी और ब्यूरोक्रैसी पर व्यंग्य भी करेगी.

                                                                      यह बातचीत तहलका हिंदी के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है.

‘‘ बुद्धिजीवियों और शुद्धतावादियों को सक्सेस चीजें बर्दाश्त नहीं होती’’ं



‘ दामुल’ फिल्म के 25 साल पूरे होने पर निर्देशक प्रकाश झा से निराला की बातचीत

 आपकी पहली चर्चित, सफल व यादगार फिल्म ‘दामुल’ के 25 साल पूरे हो गये. अब के परिवेश में ‘दामुल’ की प्रासंगिकता को कैसे आंकते हैं आप?
प्रकाश झा- इतने वर्षों में सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित हो चुकी है. अब जमींदार और मजदूरों के बीच रिश्ते वैसे नहीं रहे, जो दामुल के दौर में थे. बिहार संकीर्ण पगडंडियों से निकलकर अब विकास के रास्ते पर है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के नेतृत्व में बहुत कुछ बदल चुका है, बदल रहा है. लोकतांत्रिक बदलाव भी हुए हैं. पिछड़ी जातियों का सशक्तिकरण हुआ है, हो रहा है. तो अब ऐसे समय मंे ‘ दामुल’ जैसी फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती.
- लेकिन उसके ‘सिक्वल’ या ‘रिमेक’ की गुंजाइश तो बचती-बनती है....!
प्रकाश झाः- मैं कर क्या रहा हूं? दामुल के बाद उसकी सिक्वल ही तो बनाता रहा. जमींदार की जगह ठेकेदार आये, ठेकेदार की जगह नेता आये, सबको तो समेटते रहा अपनी फिल्मों में. आप देखिए दामुल के बाद आयी फिल्म मृत्युदंड को या उसके बाद गंगाजल, अपहरण या हालिया फिल्म राजनीति को, सभी एक-दूसरे के सिक्वल में ही तो है. स्थितियों, चरित्रों, मूल्यों में जैसे-जैसे बदलाव हुए, उसी रूप में फिल्मों के विषय, पात्र बदलते गये और अपने फिल्मों को बदलाव के साथ कदमताल करवाने की कोशिश मैंने हरसंभव की.
आप पोलिटिकल फिल्मों को बनाने के लिए जाने जाते हैं. कुछ समीक्षक और विशेषज्ञ कहते हैं कि ‘ दामुल’ की तरह पोलिटिकल फिल्म फिर आप नहीं बना सके....?
प्रकाश झाः- आप बुद्धिजीवियों की बात नहीं कीजिए. आमलोगों और सामान्य तौर पर सजग दर्शकों से बात कीजिए, उनसे पूछिए कि उन्हें गंगाजल, अपहरण, मृत्युदंड या राजनीति पावरफुल पोलिटिकल फिल्म लगती है या नहीं. दरअसल बुद्धिजीवियों और शुद्धतावादियों को काॅमर्शियली सफल चीजें बर्दाश्त नहीं होतीं. ऐसा होने पर वे सब सत्यानाश करने पर पड़ जाते हैं. ‘ दामुल’ अपनी जगह पर, समय-देस-काल-परिस्थिति के अनुसार बेहतर फिल्म है, इससे कहां इंकार है.
... तो एक समय में बाजार के ग्रामर को झुठलाने और बदल देने वाले प्रकाश झा भी अब मानते हैं कि मार्केट फैक्टर एक अनिवार्य और सबसे महत्वपूर्ण शर्त है?
प्रकाश झाः- बिल्कुल. आप मार्केट फैैक्टर को नहीं समझेंगे, उसके साथ नहीं चल सकेंगे तो आपकी क्रीयेटिविटी बचने-बनने या बढ़ने की बात क्या, जिंदा भी नहीं बच सकती. क्रीयेटिविटी को जिंदा रखने के लिए उसके साथ कदमताल करना होगा. और फिर सिर्फ फिल्मों को ही क्यों देख रहे हैं? क्या आज के समय में आप बाजार को समझे बगैर राजनीति कर सकते हैं? आज देखिए कि हमारे देश की संसद में यह बार-बार सफाई देनी पड़ रही है कि देश के प्रधानमंत्री ईमानदार छवि के हैं, उन्हें संदेह के नजरिये से न देखें. क्यों? ताकि देश की जनता यह न समझ बैठे कि पीएम भी ईमानदार नहीं है. ऐसा समय है अभी. उस दौर में हैं हम सब. मार्केट का इनफ्लुएंस इस तरह का है. कुछ समय के लिए छोड़ दीजिए इन बड़ी-बड़ी बातों को. आज के समय में शिक्षा का महत्व सबके बीच बढ़ा है, हर वर्ग के लिए वह जरूरी और महत्वपूर्ण होता जा रहा है लेकिन उस सेक्टर में क्या हालत है? दो दशक पहले की शैक्षणिक व्यवस्था की अभी कल्पना तक नहीं कर सकते. अब उसका भी प्राइमरी लेवल से ही मार्केट पैकेज तैयार हो रहा है. तब ऐसे में इंटरटेनमेंट के मार्केट फैक्टर और मार्केट पैकेज पर क्या बात करना, क्यों ऐतराज जताना!
25 साल पहले जब ‘दामुल’ फिल्म आयी तो उसे हिंदी में, हिंदीवालों के द्वारा, हिंदी पट्टी की समस्याओं को केंद्र में रखकर मौलिकता और गहराई से रेखांकित करनेवाला पहली फिल्म माना गया. इस लिहाज से या फिल्म को मिले सम्मान, फिल्म के प्रभाव, समग्रता में फिल्म निर्माण के तमाम पक्ष अथवा प्रयोगधर्मिता के आधार पर भी उसे ‘ दो बीघा जमीन’, ‘ पाथेर पंचाली’ या ‘ मदर इंडिया’ जैसी माइलस्टोन फिल्मों की श्रेणी में जगह क्यों नहीं मिल सकी?
प्रकाश झाः- आप जिसे हिंदी पट्टी कह रहे हैं या जो हिंदी इलाके वाले लोग हैं, उन्हें कई-कई बातों से बड़ी तकलीफ होती है. खैर... छोड़िये उन बातों को, बांग्ला, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम आदि भाषा-भाषियों का समाज सीमित होता है. हिंदी में यह मुश्किल है और इसका दायरा भी बहुत बड़ा और विविधता भरा है. हिंदीभाषी होते हुए भी आपस में ही क्षेत्रवाद के शिकार हैं. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद मैं यही कहना चाहूंगा कि ‘दामुल’ को जो भी मान-सम्मान मिला, जितना भी रिस्पांस मिला, वह अच्छा रहा. और फिर यह क्या कम है कि 25 सालों बाद आज आप उस फिल्म पर बात कर रहे हैं, उसे याद करने को सोच रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं.
                                                                       
                                                                       यह बातचीत तहलका हिंदी के हालिया अंक में प्रकाशित हुई  है.