February 17, 2011

25 साल पहले का बिहार, 25 साल पहले की एक फिल्म


 निराला
कोई फिल्मी लटका-झटका, न ही खुशी-गम, प्रेम-प्यार-इश्क-मोहब्बत का रोनी धुन. गीत-संगीत का जलवा भी नहीं कि जुबान पर चढ़ जाये और लोगों को सिनेमा हाॅल तक पहुंचा दे. 25 साल पहले बिहार की धरती पर, बिहार की समस्या को लेकर, बिहारी गंवई मुहावरे से लवरेज एक ऐसी ही फिल्म बनी थी.फिल्म का नाम था-दामुल. उस जमाने में दो बिहारियों की परिकल्पना मायावी परदे पर उतरी थी लेकिन मायाजाल कहीं नहीं था. एक थे शैवाल जो अपनी लेखनी से एक साधारण-सी कहानी का फलक विस्तारित करते हुए एक गांव के प्लाॅट में देश-दुनिया के सिस्टम को स्थापित करने में लगे हुए थे तो दूसरे थे प्रकाश झा, जो बाॅलीवुड के बने-बनाये तमाम फाॅर्मूले को एक झटके में ध्वस्त कर रहे थे. बाजार को झुठलाकर एक नया फाॅर्मूला गढ़ रहे थे. प्रकाश झा बिहारशरीफ दंगे पर एक डोक्यूमेंट्री फिल्म तथा हिप-हिप-हुर्रें जैसी फिल्म बना लेने के बाद भी बिहार में मजबूत कथानक की तलाश कर रहे थे. शैवाल और प्रकाश झा जैसे दो ठेठ समझ वाले बिहारी मिले, तो ‘दामुल’ नाम से फिल्म बनी. तकनीकी रूप से साल 1984 के आखिरी दिन यह फिल्म रीलिज हुई लेकिन व्यावहारिक तौर पर 1985 की फिल्म थी. बिहार के एक गांव की समस्या पर बनी फिल्म में पूरी हिंदी पट्टी ने अपने गांव की समस्या को तलाशना शुरू किया, देश भर के सिनेप्रेमी, समीक्षक और सिनेमा के पंडित हैरत में पड़ गये कि भला ऐसी फिल्म भी बन सकती है और तब बड़े-बडे समीक्षकों ने सार्वजनिक तौर पर लिखंत में यह घोषणा की कि हिंदी पट्टी की समस्या पर, हिंदी भाषा में, हिंदी वालों के द्वारा बनी यह भारत की पहली फिल्म है. फिल्म के कहानीकार शैवाल बताते हैं कि तब नेशनल फिल्म अवार्ड की बारी आयी तो अरविंदम की मलयालम फिल्म ‘मुखा मुखम’, सत्यजीत रे की ‘घरे बाहिरे’ और गौतम घोष की ‘पार’ जैसी फिल्मों को रेस में पछाड़कर ‘ दामुल’ ने अपना स्थान बनाया. लेकिन कहते हैं न कि वक्त के बदलाव के साथ सबकुछ बदल जाता है. रीतियां, नीतियां, पद्धतियां, प्रणालियां, महत्व, मान्यतायें... सब. 25 साल में बिहार ने वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. प्रकाश झा ने भी वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. बकौल मुंबई के फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्ामत्मज, प्रकाश झा की फिल्मों में अब वैसी राजनीतिक आवाज नहीं सुनायी पड़ती, जैसी कि दामुल में थी या उसके बाद मृत्युदंड में. जो दामुल को देखेगा, वह यह कहेगा कि प्रकाश झा की पकड़ बिहार के विषयों पर कमजोर हुई या फिर साहस में कमी आयी है. मशहूर व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम कहते हैं कि ‘ दामुल’ निश्चित तौर पर अपने समय की बेहतरीन फिल्म थी और एक लिहाज से हिंदी पट्टी की समस्या पर उस तरह कीदूसरी फिल्म उस माहौल को दिखाते हुए नहीं बनी लेकिन अब इतने साल बाद उसके सिक्वल की गुंजाइश है और उसके रिमेकिंग की भी. दामुल एक इतिहास बन गया. अब नयी पीढ़ी के बीच प्रकाश झा की पहचान ‘ अपहरण’,‘ राजनीति’ जैसी फिल्मों के माध्यम से है. बिहार को अब देखने-समझने वाले नौजवान दामुल देखें तो रोम-रोम में सिहरन पैदा हो जाएगी कि क्या ऐसा भी होता था. लेकिन बिहार ने पिछले तीन दशक में कैसे करवट लिया है इसे समझने के लिए लोक के बीच सबसे पाॅपूलर विधा सिनेमा के जरिये यदि महसूसना हो तो ‘ दामुल’ को देखा जा सकता है. कहा जाता है कि बिहार की सामाजिक और राजनतिक धारा जाति के खोल में बंधी रहती है. बिहार नक्सलियों के आंदोलन के कारण भी काफी चरचे में रहा. जातीय नरसंहार के लिए भी यहां की धरती काफी उर्वरा रही. अब यह भी सुनने को मिलता है कि सब बिते दिनों की बात हुई. बिहार में विकास की राजनीति को अब मुख्यधारा की राजनीति माना जा रहा है. सच शायद इतना भर नहीं है. बिहार में कई ऐसे कोने हैं, जो आज भी सिसक रहे हैं. उस स्थिति की कल्पना से रोम-रोम में सिहरन पैदा हो सकती है. और यदि 25 साल पहले के बिहार के एक हिस्से को महसूसना हो तो इसे मंुहामुंही सुनने की बजाय जीवंत चित्रण के साथ एक फिल्म को देखकर समझा जा सकता है.


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