April 8, 2011

तमाशा तो मैंने भी खूब किया यार !


    निराला          
      कुछ माह पहले की बात है. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की. बिहार चुनावी सरगर्मी से तप रहा था. मुजफ्फरपुर जाना हुआ था. उम्र के 90वें साल में प्रवेश कर चुके शास्त्रीजी की हालत कई माह से कुछ ज्यादा ही नाजुक थी, लेकिन बीमारियों को पछाड़ देने के बाद कुछ दिनों के लिए हालत सुधर भी गयी थी. हिंदी साहित्य की दुनिया में अपना तमाम जीवन खपा चुके शास्त्रीजी की तबियत से हिंदी साहित्य जगत बेखबर था. उस महान कवि को अकेला छोड़ दिया था हिंदी साहित्य जगत ने, जिनके कृतित्व से प्रभावित होकर कभी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी जैसे दिग्गज खुद उनसे मिलने मुजफ्फरपुर पहुंचे थे. एक भाषण से पृथ्वीराज कपूर जैसे फिल्मकार पर ऐसा प्रभाव डाला कि कपूर को जब भी समय मिलता, देश-दुनिया को छोड़ मुजफ्फरपुर में शास़्त्रीजी के घर ही आकर रहा करते थे. छोटे-बड़़े रचनाकारों का मजमा लगा करता था, लेकिन चलाचली की बेला में जब वे अकेले बिस्तर पकड़ लिये तो उन्हें देखने-सुनने या उनकी सुध लेने कोई नहीं आ रहा था. न साहित्यिक मठ-सठ के ठेकेदार, न शास्त्रीजी के मार्गदर्शन में डाॅक्टरेट की उपाधि ले अच्छी जगह नौकरी बजा रहे उनके दर्जनों चेले. उम्र के हिसाब से शरीर की अस्वस्थता तो काफी पहले से ही थी लेकिन उस हाल मंे भी जब कभी वे रंग में आते तो बातें भी खूब करते. जब कोई बात करनेवाला नहीं आता तो घर में ही अपनी पत्नी से बच्चों की तरह जिद मचाये रहते कि मेरी मां मर गयी, मैं रहकर क्या करूं. जबकि सच यह था कि उनकी मां तभी दुनिया छोड़ गयी थीं, जब शास़्त्रीजी चार साल के थे. लेकिन मन में मां ही मां छायी हुई रहती हैं. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की बात है. तब शास्त्रीजी कुछ स्वस्थ हुए थे. एक रोज उनके घर अनायास पहुंचना हुआ. उस रोज वे अपने पूरे रौ में थे. रंग में थे. पहुंचते ही पहले नाश्ते-पानी के लिए पूछा और मना करने पर तुरंत कहा- इसका मतलब यह कि मैं भी जब तुम्हारे घर आउंगा तो कुछ नहीं खिलाओगे. शास्त्रीजी से मिलने हम मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान अवस्थित ‘निराला निकेतन’ आवास में पहुंचे थे. उसी चतुर्भुज स्थान वाले इलाके में, जिसे सबसे बड़ी बदनाम बस्ती की बसाहट माना जाता है. वे जिस बरामदे में आराम कर रहे थे ं, वहां सामने ग्रिल में बिस्किट के पैकेट के दर्जनों कवर सजे थे. चारों ओर कई-कई रूपों में उनकी खुद की तसवीरें. और तरह-तरह के कई आईने भी. जिस वक्त हम पहुंचे थे, उसके ठीक पहले उनके सोये रहने के क्रम में ही उनके बाल को डाई कर दिया गया था. हमारे वहां पहुंचने पर उन्होंने सामने लगे कई आईने मंे से एक को उठाकर खुद को निहारते हुए उन्होंने कहा- दो घंटे पहले आते तो वृद्ध शास्त्री मिलता, अब बाल रंग दिया तो जवान शास़्त्री सामने है. हर बात पर क्या तमाशा है या तमाशा मैंने भी खूब किया, तकियाकलाम की तरह दुहरातें. उस रोज शास्त्रीजी हम पर कई बार गुस्साये, जाने को भी कहें लेकिन फिर रूकवाकर अपनी बात भी कहते रहे. थोड़े मजाक के मूड में थे तो बातचीत के बीच में ही अपनी पत्नी को भी बड़े भाई, कहां हैं, जरा आइये के संबोधन से बुलायें और परिचय यह कहकर करवायें कि ये मेरी गुरु हैं, अब आगे कुछ इनसे भी पूछ लीजिए... शास़्त्रीजी से बातों-बातों में ही हुई बातचीत के कुछ अंश यहां उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि के तौर पर प्रस्तुत है
   
 सवाल- जीवन की ढलान की बेला में पढ़ने-लिखने से कितना वास्ता रख पाते हैं अब! 
     जवाबः- यार, या तो आप गलत आदमी हो या फिर गलती से गलत आदमी के पास आ गये हो. क्या फालतू बात कर रहे हो यार! आखिरी सांस तक शास्त्री का लिखने-पढ़ने से वास्ता टूट सकता है, यह बात आयी कैसे तुम्हारे दिमाग में. 90 की उम्र का हूं. अभी इस उम्र में किताब लिखा हूं, हजार रुपये में बिक रही है. राधा महाकाव्य की रचना की है मैंने. कोई लेखक रचे हिंदी में साहित्य और बिकवा ले हजार रुपये में अपनी किताब तो... भाई, मैं और कोई दुनियावी काम नहीं कर सकता, लिखना-पढ़ना ही मेरा कर्म है, समझे...
सवाल- नयी पीढ़ी के हिंदी लेखकों को लेकर क्या नजरिया है आपका? कितनी उम्मीदें रखते हैं आपं?
जवाबः- पैसा कमाने के लिए चार किताबों को मिलाकर एक किताब लिखते हैं और कहलाते हैं क्या, तो लेखक. आउटस्टैंडिंग कोई दिखता ही नहीं. कालजयी रचना करने की क्षमता नहीं दिखती किसी में. एक किताब लिख देंगे, परीक्षा में वह किताब चले, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु है हिंदी साहित्य लेखन का. दरअसल यह समय का भी दोष है. अब के समय में साहित्यिक मठाधीश कर क्या रहे हैं, यह भी देखना होगा. अपने बारे में कभी नहीं सोचते लेकिन दूसरे की आलोचना करना हो तो बित्ता भर का जिभ निकाल देंगे. आज के कथित बड़े लेखकों को देखिए, एक-दूसरे को गिराने-पटकने में ही ज्यादा समय लगाते हैं और बाकि बचे समय में मुर्खों को कवि-लेखक और विद्वान का सर्टिफिकेट देने में लगे हुए हैं. तो समझ सकते हैं कि नयी पीढ़ी क ेलेखकों में किस तरह की प्रतिभा विकसित होगी. कोई पंत, दीनकर, बेनीपुरी की तरह कवि-लेखक कहां हाल के वर्षों में हुआ!
सवाल- आप सुमित्रानंदन पंत की बात कर रहे हैं, उनके ज्यादातर रचनाओं को तो विगत वर्ष कूड़ा-कचरा कह गये थे एक बड़े साहित्यकार-आलोचक.
जवाब- मुर्खाधीराज हैं वे जो उलूल-जुलूल बकते रहते हैं. वे क्या कहते हैं, खुद ही पता नहीं होता. मैंने कहा न कि हिंदी पट्टी की यह विडंबना है कि खुद के बारे में कोई नहीं देखता कि तुमने क्या किया,  दूसरे के अवगुणों की चर्चा में बड़ा आनंद आता है.
सवाल- आपने अपने घर के अहाते में अपने बाबूजी का मंदिर बनवा रखा है, रोज बाबूजी की ही पूजा करते हैं और फिर शेष स्थान में गायों की समाधि स्थल है, कुछ इसके बारे में बतायें.
जवाबः- मेरे जिंदगी में तमाशा खूब हुआ. गया के पास शेरघाटी के एक गांव का रहनेवाला हूं. चार साल का था तो मां गुजर गयीं. उस उम्र से ही मेरे बाबूजी ने मां और बाप दोनों का प्यार दिया तो स्वाभाविक है कि मेरे लिए वही भगवान बन गये. उनकी देख-रेख में ही मैं 16 साल की उम्र में शास्त्री बन गया और 18 साल की उम्र में प्राध्यापक. अब बताओ तो यह तमाशा कि मैं पहली बार गंगा पार कर यहां मुजफ्फरपुर पहंुचा था घूमने के लिए और यहीं प्राध्यापकी की नौकरी मिली गयी. ऐसा होता है भला कहीं. मैं तो रोने लगा था तब कि कहां फंस गया भाई. और क्या तो यहां के बच्चा बाबू ने मुझे चतुर्भुज स्थान में एक एकड़ जमीन भी दे दिया कि घर बनवा लीजिए. मैंने एक एकड़ में घर बनवा लिया. बाद में यहां बाबूजी भी आये. एक रात खाने में वे दूध मांगे. बाहर से दूध आया तो उन्होंने कहा कि मैं बाहर का दूध नहीं लूंगा. तुरंत रात में ही गाय खरीद कर लाया. बाबूजी ने कहा कि न दूध कभी बेचना न गायों को कभी किसी को देना. तब से यही कर रहा हूं. पहली गाय का नाम कृष्णा रखा और फिर उसके बच्चे होते गये, गायों का परिवार बढ़ता गया. जिनकी मृत्यु हुई, यहीं उनका अंतिम संस्कार करता गया. इसलिए गोशाला का नाम भी कृष्णायतन रखा. तब से यहां रहकर यही कर रहा हूं.
सवाल- आपने कुत्ते भी बहुत रखे हैं. आपके साथ रहते हैं. आपके बिस्तर पर भी घर के परिवार की तरह रहते हैं. कुत्तों से इतना प्यार...
जवाबः- हंसते हुए- भाई मैं सोचता हूं कि अगर अब के समय में बढ़ियां से बढ़ियां लोग, नामचीन लोग कुत्ते की तरह दूम हिलानेवाले हो गये हंै तो उनसे क्यों दोस्ती रखी जाए. कुत्ते ही चाहिए तो ओरिजिनल वाला क्यों न हो, जो वफादार होता है और जिसे प्यार, अपनापन की जरूरत भी है.
सवालः- पहले आपके यहां साहित्यकारों, नेताओं का आना-जाना हमेशा हुआ करता था. अब भी कोई आता है. कभी मलाल होता है कि अब कोई नहीं आता...!
जवाबः-कैसी बात करते हो. यहां कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे थोड़े ही आ सकता है. यहां पृथ्वीराज कपूर महीने भर रहते थे. दिनकर, बेनीपुरी, पंत जैसे साहित्यकार-लेखक आकर रूकते थे. नेताओं में राजेंद्र बाबू, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर, भैरो सिंह शेखावत आते थे. तो अब बताओ के आज के नेताओं-साहित्यकारों के नहीं आने का मलाल भला शास्त्री को क्यों रहेगा. मेरे यहां मांस-मदिरा का इंतजाम तो रहता नहीं, तो फिर यहां कौन समय जाया करेगा. लेकिन एक तरह से देखो तो यह भी बढ़ियां ही है कि फालतू लोग यहां फालतू का समय बर्बाद करवाने नहीं आते.
सवालः आपने कुछ नेताओं के भी नाम लिये. अभी तो बिहार में चुनाव चल रहा है. नेतागिरी उफान पर है. अपने पसंदीदा नेताओं के बारे में बतायें.
जवाबः- मैं महामना मदनमोहन मालवीय जी के साथ रहा हूं. मैंने बताया न कि यहां कौन-कौन और कैसे-कैसे नेता आते थे. लेकिन सच कहूं तो बिहार में अब तक मुझे दो ही नेता नजर आये. पहले राजेंद्र बाबू और दूसरे कर्पूरी ठाकुर. कर्पूरी बाबू हमेशा आते थे यहां इन दोनों नेताओं की तरह यहां कोई दूसरा नेता नहीं हुआ, जिसमें सज्जनता दिखती हो. एक संस्कार हो. चरित्र हो. अब तो सब एक-दूसरे को गरियाने में लगे हुए हैं. जाति को गरिया कर लोगों को मुर्ख बनाने में निपुण हो गये हैं. सब के सब ढोंगी है.




 विदाई की बेला में शास्त्रीजी की कुछ चुनिंदा पंक्तियां


दूर देश है जाना

 दूर देश है जाना
जहां न कोई भी मेरा
अपना जाना-पहचाना
तपना तनिक धूप में
क्षण भर छांह देख सो जाना
फिर आने की कौन बताये
दूर देश है जाना...

- अपनी साहित्य यात्रा पर

 अब आखिरी विदा लेता हूं...

कहां मिले स्वर्गीय सुमन?, मेरी दुनिया मिट्टी की
विहंस बहन क्यों तुझे सताउं, कसक बताकर जी की!
अब आखिरी विदा लेता हूं आह, यही इतना कह
मुझ सा भाई हो न किसी का, तुझ-सी बहन सभी की

- अपनी बहन सुमित्रा की स्मृति में

वह सुख न कभी मिले मुझे, जिससे दुख ही होता दूना...

वह सुख न कभी भी मिले मुझे
जिससे होता दुख ही दूना
जिससे की भींगती आंखें ही
रहता अंतर भूना-भूना
जो अमृत नहीं वह बह जाये
मेरा घट रहे, रहे सूना
हर स्वर-लय तेरा ध्यान
विश्व मुझको अभिमानी कहे, कहे
मैं गाउं तेरा मंत्र समझ
जग मेरी वाणी कहे, कहे...








April 4, 2011

हे राम, आप स्वीकार करें नये भक्तों का भाव


निराला
कुछ वर्ष पूर्व जब भारतीय राजनीति में किन्नरों की सक्रियता बढ़ी, निकाय वगैरह के चुनावों में उनकी जीत हुई तो एक किस्सा पढ़ने को मिला था. भगवान राम जब लंका से अयोध्या लौट रहे थे तो सरयू किनारे उन्होंने एक नयी बस्ती बसी हुई देखी. उन्होंने पुष्पक विमान को वहां उतरवा दिया. वहां उतरने के बाद वे बस्ती में गये और पूछा कि 14 साल पहले जब मैं अयोध्या से जा रहा था तो यहां कोई बस्ती नहीं थी, क्या यह उसके बाद की नयी बसाहट है. बस्तीवालों ने बताया कि आप जब विदा हो रहे थे तो आपने यह कहा था कि हे अयोध्या के नर-नारी, आपलोग अब लौट जायें और मुझे वनवास के लिए जाने दें. आपके कहने के बाद अयोध्या के सारे नर-नारी तो वापस चले गये थे लेकिन हमलोगों से आपने कुछ कहा ही नहीं. हम तो न नर थे, न नारी. सो हम यहीं बस गये कि आपके आगमन के इंतजार में. कथा-कहानी के अनुसार भगवान राम ने उन किन्नरों को अपना सबसे बड़ा भक्त बताते हुए वर दिया कि जिस धैर्य से इतने वर्षों तक आपलोगों ने इंतजार किया, उसका फल कलियुग में मिलेगा. आप भी राजा बनोगे. कलियुग में किन्नरों की जीत का उस वरदान से वास्ता हो न हो लेकिन भगवान राम ने उन्हें अपना सबसे बड़ा और सच्चा भक्त कहा था.
 दो अप्रैल की रात जब अचानक रामभक्तों का सैलाब सड़कों पर निकला तो वह रामायण का वह किस्सा याद आने लगा. रावण को तरह-तरह की गालियां देते हुए, बाइक-कार को 80-100 की रफ्तार में चला रहे कलियुग के ये नये रामभक्त थे. सड़क पर दारू की बोतल फोड़ते हुए ‘जयश्रीराम’ का नारा लगानेवालेे, सबको रौंदकर आगे निकल जाने को बेताब नये रामभक्त. वैसे रामभक्त जो पल भर में उत्सव को चुटकी बजाते हुए उन्माद में बदलते हैं.
 पाकिस्तान से जीत हुई तो तमाशा वैसा ही हुआ था. पाकिस्तान के खिलाफ रगों में  इष्र्याभाव है तो हुड़दंग का मचना तय था. श्रीलंका से जीतने पर भी उत्सव की बजाय उन्माद ही दिखेगा, इसकी उम्मीद तो नहीं थी. लग रहा था कि यह सिर्फ क्रिकेट या एक खेल तक सीमित रहेगा. खेल में जीत होगी तो उत्सव मनेगा, खुशियां मनेंगी. इस अपेक्षा के वाजिब कारण भी थे. चारों ओर से अशांत वातावरण में घिरे भारत का रिश्ता जो भी थोड़ा बहुत ठीक है, वह श्रीलंका से ही है वरना सबसे पास रहते हुए भी नेपाल से फासले किस कदर बढ़ते जा रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है. बांग्लादेश और पाकिस्तान खुद अशांत है और भारत में उसे बिल्कुल दूसरे रूप में पेश किया जाता है. म्यांमार, तिब्बत वगैरह चीन की चिरौरी करते है. फिलहाल, श्रीलंका ही थोड़ा-थोड़ा अपना जैसा लगता है. लेकिन बहुत हद तक मीडिया के सौजन्य से श्रीलंका को रावण से कनेक्ट कर दुश्मनी के तत्व को तलाश लिया गया. उत्सव के लिए नहीं, उन्माद के लिए. नतीजा यह कि ंजीत की रात और उसके अगले दिन तीन अप्रैल की शाम तक उन्माद छाया रहा. किन्नरों की धैर्यक्षमता से प्रभावित होकर उन्हें सबसे अहम भक्त बतानेवाले भगवान राम क्या सोच रहे होंगे अपने इन नये असंख्य भक्तों के बारे, यह सिर्फ कल्पना करने की बात है. फिलहाल तो जश्न का माहौल है. क्रिकेट धर्म है, उसके खिलाड़ी भगवान. फिलहाल हम विश्वविजेता के यूटोपिया में जी रहे हैं, कल इस खेल में हार जायेंगे तो हम दुनिया के सामने सबसे लाचार- बीमार देश होंगे, अभी के अनुसार परारित मुल्क के नागरिक हो जायेंगे. राम जो सोच रहे होंगे, वह सोचते रहें फिलहाल जश्न के इस माहौल विश्वकप मंदिर बननेवाला है, उसका इंतजार कीजिए, माॅडल पूनम अपने पिता के सहयोग से खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए न्यूड होने को बेकरार हैं, उसका साथ दीजिए. यह समय की मांग है. आगे आइपीएल है.

April 1, 2011

पानीदारी, जमींदारी, रंगदारी- सब जारी है


       निराला    
      एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है. कथा यह कि एक प्रणयरत् क्रौंच पक्षी की जोड़ी को एक निषाद ने मार गिराया. महर्षि बाल्मिकी की नजर खून से लथपथ उस घायल क्रौंच की जोड़ी पर पड़ी. पक्षियों को छटपटाते देख महर्षि बाल्मिकी काफी उद्विग्न हो गये. अपने को रोक न सके और अनायास उन्होंने निषाद को श्राप दे दिया कि जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक तुम्हारा मन भी इसी तरह अशांत रहेगा, जिस तरह अभी इन क्रौंच पक्षियों का है. महर्षि बाल्मिीकी ने वह श्राप एक श्लोक के माध्यम से दिया था, जिसे दुनिया का पहला श्लोक भी माना जाता है.
     पता नहीं इस पौराणिक कथा में सच्चाई है या नहीं, लेकिन जिस श्रापयुक्त श्लोक को दुनिया का पहला श्लोक माना गया, उसका असर आज हजारों वर्ष बाद भी निषादों की जिंदगी में देखने को मिलता है. कम से कम धरनीपट्टी पूर्वी गांव में तो ऐसा ही दिख रहा था. धरनीपट्टीपूर्वी बिहार के समस्तीपुर जिले में गंगा किनारे दियारा इलाके में मछुआरों की एक बस्ती है. 250 घरों से अधिक की बस्ती में एकाध घरों को छोड़ दे ंतो मछुआरों का ही वास है यहां. अमूमन शांत रहनेवाले और तमाम विडंबनाओं को अपनी नियति मान जिंदगी गुजार लेनेवाले लोग अंदर से कितने अशांत है, यह धरनीपट्टी पहुंचने पर पता चलता है.
      वहां हम पहुंचे तो थे पानीदारी खत्म होने के बाद और बदलते बिहार में मछुआरों की जिंदगी में आयी तब्दीली को करीब से देखने-समझने लेकिन पत्थरघाट मोड़ से गांव तक हमारे पथप्रदर्शक बन गाड़ी में सवार हुए फूच्चीलाल सहनी और शिवनाथ सहनी रास्ते में ही बताते हैं, आप उस इलाके में चल रहे हैं, जहां के लोग हमेशा पीटे जाते हैं और मार भी दिये जाते हैं. फूच्चीलाल कहते हैं- अतीत की बातें गांव में चलकर समझियेगा, अभी हम सिर्फ यह बता सकते हैं कि पिछले आठ माह में हमारे गांव के दो लोगों को मछली की वजह से मार दिया गया. दो बच्चे गायब हो गये हैं, जिनका कोई पता नहीं. पत्थरघाट से सीधे गये होते तो मोहनपुर बस्ती भी मिलता, जहां कुछ साल पहले 13 मछुआरों को मार दिया गया था. हम मछुआरे हर जगह मारे जाते हैं. फूच्चीलाल बात को जारी रखते हैं- अभी 15 दिन पहले हमारे गांव से नौजवानों का एक समूह गया है बाहर चाकरी की तलाश में, और भी जाने की तैयारी में हैं. अब कोई मछली मारकर अपनी जान गंवाना नहीं चाहता. फूच्चीलाल पूरी कहानी को गाड़ी में ही बता देना चाहते थे लेकिन तब तक हम धरनीपट्टी के उस चैपाल में पहुंच चुके थे, जहां सामने एक प्राथमिक विद्यालय, टूटा-फूटा मिट्टी का दालान और विशाल पेंड़ के नीचे गंगा माई, ज्ञानू माई और बाबा अमर सिंह की प्रतिमा वाली खुली मंदिर के सामने छोटे से मैदान में जाल को ठीक करते मछुआरे दिखते हैं.
      उस चैपाल में दशरथ सहनी, जयपाल सहनी, लाला सहनी, दिलीप सहनी आदि जमा होते हैं और एक-एक कर बातों को बताना शुरू करते हैं. दशरथ कहते हैं- हमारी स्थिति न घर के, न घाट के वाली हो गयी है. नदी में मछली मारते हैं तो दबंग आकर कहते हैं कि नदी जहां से बह रही है, वह जमीन कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे हिस्से में थी इसलिए जो मछली मारे हो, उसमें से हिस्सा दो. वहां से बच गये तो गंगा से निकलते ही दबंग यह कहते हुए मछली लेते हैं कि नदी से निकलकर जिस जमीन से गुजर रहे हो, वह हमारी है, इसलिए हिस्सेदारी चाहिए नहीं तो जाल ले लेंगे और इतने के बाद भी निकल गये तो मछली बेचने निकलने पर मछलियां छीन ली जाती हैं. अगर हम यह सब नहीं कर सकते तो रात में जब मछली मारने के लिए नाव पर निकलते हैं तो नदी में घेरकर हमारी पिटाई की जाती है, घाट से नाव को खोलकर बहा दिया जाता है या नाव में छेद कर बीच गंगा में छोड़ दिया जाता है. गंगा में जहर डाल दिया जाता है, जिससे मछलियां मर जाती हैं. दशरथ यह सब बताते-बताते भर्राये हुए गले से कहते हैं- आप भी तो जानते होंगे कि मल्लाहों की पूरी संपत्ति ही जाल और नाव होती है. हमने या हमारे पुरखों ने सदा से ही जिंदगी पानी में गुजारी इसलिए कभी जमीन लेने की सोचे ही नहीं. अब तो घाट से यात्रियों को लाने-ले जाने के लिए भी हम मल्लाहों का नाव नहीं लगने दिया जाता, उस पर भी दूसरी जातियों का कब्जा हो गया. ऐसी स्थितियों में मछली मरवाने के लिए हमारा अपहरण कर भी कुछ दिनों के लिए रखा जाता है. बताइये कैसे जिंदा रहेंगे हमलोग...!

      दशरथ की बातों में एक जोड़ जोड़ते हुए जयलाल सहनी कहते हैं कि सरकार ने फ्री-फिशिंग कर और पानीदारी को कागज पर तो खत्म कर दिया है लेकिन सच यही है कि हम अभी भी पानीदारी, जमींदारी और रंगदारी तीनों का सामना रोज ही कर रहे हैं. दिन-ब-दिन भयावह रूप में. जयलाल कहते हैं- यहां से लेकर कहलगांव तक चले जायें, दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के ऐसी ही समस्याएं मिलेंगी, उनके जीवन का स्तर ऐसा ही मिलेगा. कहलगांव आदि के इलाके में तो और ज्यादा.
      सच भी ऐसा है. पूरे बिहार में पारंपरिक मछुआरों के सामने स्थिति विकट है. धरनीपट्टीवालों को या उन जैसे बिहार के लाखों मछुआरों को भी अभी ठीक से इसका अहसास नहीं कि निकट भविष्य में उन जैसे पारंपरिक मछुआरों के सामने और भी ज्यादा बड़ी चुनौती खड़ी होनेवाली है. जैसा कि जल श्रमिक संघ के राज्य समन्वयक योगेंद्र सहनी कहते हैं- एक तो कई वजहों से नदियों में यूं ह ी मछलियों की संख्या घट रही है, उपर से सरकार द्वारा सुलतानगंज से कहलगांव तक डाॅल्फिन रिजर्व क्षेत्र घोषित किये जाने पर मछुआरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आया. अब सरकार इस डाॅल्फिन रिजर्व एरिया की सीमा मनिहारी से बक्सर तक बढ़ाने की तैयारी में है. यदि सच में ऐसा हुआ तो सोचिए कि एकबारगी से लाखों परिवारों के सामने अस्तित्व का संकट होगा. योगेंद्र कहते हैं- दूसरा सबसे बड़ा संकट मछुआरों के उपर दबंगों का आतंक है. मछुआरों को मार दिये जाने का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा. दो दशक पहले बटेश्वर स्थान में 13 मछुआरों की हत्या हुई थी तो राज्य में चरचा हुआ. उसके बाद फिर मोहनपुर बस्ती में 13 मछुआरों को दबंगों ने मारा. इस दौरान एक्यारी में दो मछुआरे मारे गये. छिटपुट तौर पर दियारा इलाके में मछुआरों की हत्या होती रही. मछुआरों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं. और इतने के बाद बिहार में जब दो साल पहले कोसी प्रलय आया तो लोगों की जिंदगी बचाने और मौत से खेलने के लिए मछुआरों को नाव समेत वहां बुलाया गया. मछुआरे गये भी लेकिन बकौल सहनी, न तो मछुआरों को उचित मजदूरी मिली और न ही कई मछुआरों के नाव अब तक वापस किये गये.
      बिहार में मछुआरों की कितनी आबादी है, इसे सही-सही बताने की स्थिति नहीं, क्योंकि मछुआरों की जाति समूह में मल्लाह के अलावा केवट, गंगोता प्रमुख हैं तो सुरहिया, चाईं, मुरियारी, तीयर, बनपट, बिंद, खुनौट, कोल, भील समेत 22 उपजातियांे को भी मछुआरों के समूह में ही माना जाता है. जैसा कि मछुआरों पर गहन अध्ययन करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से अधिकवक्ता प्रभाकर कुमार कहते हैं- सामूहिक रूप से यह जाति बिहार में यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी जाति है, आबादी करीब एक करोड़ के है. यह बात अलग है कि राजनीतिक रूप से मुखर नहीं होने की वजह से आज इसकी मजबूत पहचान नहीं है. दूसरी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पारंपरिक रूप से नदी पर ही आश्रित रहनेवाली इस जाति ने जमीन के बारे में नहीं सोचा तो आज स्थिति यह भी है कि 90 प्रतिशत से अधिक मछुआरे भूमिहीन हैं. यह स्थिति तो धरनीपट्टी में भी देखने को मिली, जहां 250 घरों के मछुआरों की पूरी जमीन मिलाने के बाद भी कुल 20 एकड़ से अधिक जमीन उनके हिस्से में नहीं. अधिकतर ने किसी तरह अपने घर बनाने भर जमीन का इंतजाम कर लिया है. प्रभाकर कहते हैं- दलितों-आदिवासियों की तरह इस जाति को कभी सरकारों ने आगे बढ़ाने का काम नहीं किया, जिस कारण स्थिति आज इतनी विकट है. राजनीतिक रूप से देखें तो जल श्रमिक संगठन के योगेंद्र सहनी के अनुसार बिहार में 25 विधानसभा सीटों के गणित को मछुआरा समुदाय के लोग ही तय करते हैं लेकिन सब इनके वोटों का इस्तेमाल भर ही करते हैं. यहां तक कि स्वजातीय नेता भी. फिलहाल बिहार से एक लोकसभा सदस्य, दो राज्य सभा सदस्य और विधानसभा में चार प्रतिनिधि इस जाति-समुदाय से आते हैं.
      अब एक और विडंबना पर गौर कीजिए, जिससे मछुआरों की स्थिति खस्ताहाल हुई. दो दशक पहले तक बिहार देश का नमूना राज्य था. यहां गंगा में 80 किलोमीटर तक यानि सुलतानगंज से पिरपैंती तक महाशय घोष और मुशर्रफ हुसैन की पानीदारी यानि पानी पर जमींदारी चलती थी. यह सब सिर्फ इस नाम पर होता रहा कि जमींदारी उन्मूलन कानून में पानी की चरचा नहीं थी. इन दोनों परिवारों के लठैत मछुआरों से रंगदारी समेत अन्य किस्म के टैक्स लेते थे. पानी में पनपे अपराध ने 1987 में बटेश्वर स्थान में हुए 13 मछुआरों की हत्या समेत कई बार उनके खून से दियारा इलाके को लाल किया. 1982 में आंदोलनकारियों ने गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की तो 1991 में राज्य सरकार ने संशोधन कर पानीदारी को तो खत्म किया, मछुआरों के लिए निःशुल्क शिकारमाही की घोषणा हुई, पहचान पत्र देने की बात हुई  लेकिन मुफ्त शिकारमाही भी सपना ही बना रहा और पहचान पत्र का आज तक पता नहीं. दूसरी ओर पानीदारी खत्म करने के बाद तत्कालीन सरकार ने डाॅल्फिन के लिए सेंक्चुरी क्षेत्र घोषित कर दिया जिससे मछुआरों के सामने मछली मारने का संकट पैदा हो गया. समस्या यह हुई कि यदि डाॅल्फिन प्रदूषण या अन्य कारणों से भी मरे तो दोष मछुआरों के उपर मढ़ा जाता है. बाद में नीतीश सरकार के पहले चरण में मछलीपालन को बढ़ाने के उद्देश्य से निली क्रांति की शुरुआत हुई लेकिन वह भी कुल मिलाकर परंपरागत मछुआरों को एक मजदूर बनाने वाला ही साबित हो रहा है. हालांकि अब नीतीश सरकार ने अपनी दूसरी पारी में मछुआरों को आतंक से मुक्त करवाने के लिए पांच नदी थाना बनाने का फैसला भी चार दिनों पहले लिया है.
      गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख कर्ताधर्ता रहे अनिल प्रकाश कहते हैं कि यह बड़ा हास्यास्पद है कि एक ओर राज्य सरकार निली क्रांति का सपना दिखा रही है, दूसरी ओर नदियों के पानी को औद्योगिक कचरे से लाल और काला किया जा रहा है. पहले सरकार प्रदूषण रोकने के कारगर उपाय करे, नदियों को बचाये तभी मछलियां बचेंगी. बकौल अनिल प्रकाश, हम सिर्फ मछुआरों या मल्लाह की बात कर रहे हैं लेकिन यह संकट सिर्फ उनका नहीं है, सबके जीवन का सवाल है. यह अलग बात है कि आज प्रदूषण के कारण और गलत सरकारी नीतियों के कारण मछुआरों को मछलियां नहीं मिल रहीं या नहीं मार पा रहे तो वे बेमौत मरने को विवश हुए हैं या फिर रिक्शा चलाकर, मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे हैं लेकिन कल को वे डकैत, माओवादी भी बनेंगे.
     अनिल प्रकाश मूल सवालों को उठा रहे हैं, उसके इर्द-गिर्द भी सवाल कम नहीं हैं. 1975 में जब फरक्का बैराज बना तो भी उसकी मार मछुआरों को झेलनी पड़ी. फरक्का बैराज बन जाने से हिलसा, झिंगा जैसी मछलियों का समुद्र से इधर आना बंद हो गया जबकि एक समय वह भी था जब बिहार से हिलसा और झिंगा जैसी मछलियों का निर्यात अन्य राज्यों को होता था. अब तो बाजार में आंध्रा वाली मछली का ही बोलबाला पटना या बड़े शहर ही नहीं, छोटे-छोटे शहरों में भी देखा जाता है. संकट सिर्फ नदी किनारे या दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के साथ नहीं बल्कि सासाराम जैसे नदीविहीन इलाके में, जहां पारंपरिक मछुआरों की संख्या काफी है, संकट दूसरे रूपों में सामने आ रहा है. उन इलाकों में, जहां सदाबहार नदियां नहीं हैं, वहां कोल-ढाब-तालाबों में मछलीपालन का काम होता है. वैसे इलाकों में दूसरे किस्म के मछली माफिया सक्रिय हैं, जो मल्लाहों के नाम पर कोआॅपरेटिव सोसाइटियों पर कब्जा जमाकर मल्लाहों को सिर्फ मजदूर बनाकर रखते हैं. और उस पर भी मछली माफियाओं की लड़ाई ऐसी चलती है कि एक-दूसरे के अधिकार वाले तालाब में जहर डालकर मछलियों को मार दिये जाने का खेल भी खूब होता है. सासाराम के रहनेवाले और बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के निदेशक कोमल पासवान बताते हैं- सासाराम, तिलौथू, नौहट्टा, नोखा, चेनारी, शिवसागर आदि क्षेत्रों में लगातार ऐसे केस सामने आ रहे हैं, जिसमें तालाब में जहर डालकर मछली खत्म करने का खेल चल रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि बिहार सुखाड़ की चपेट में आता है तो तालाबों और ताल-तलैया का पानी लोग खेत में उतारते हैं. जब पानी नहीं बचता तो मछलियां भी खत्म हो जाती हैं जिससे मछुआरों का रोजगार छिन जाता है.
संकट-दर-संकट में घिरते पारंपरिक मछुआरों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है  िक उनके पास जमीन नहीं होने की वजह से उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता. बिहार लोक अधिकार मंच के प्रवीर कहते हैं, केंद्र की योजना है कि हर जिले में 100 मछुआरों को इंदिरा आवास बनाया जायेगा लेकिन इंदिरा आवास के लिए मछुआरे जमीन कहां से लायें, इस पर भी सरकार को गौर करना चाहिए. उसी तरह सरकार ने जमीन रहने पर मत्स्यपालन के लिए ़ऋण या मुआवजे की योजना बनायी है लेकिन यहां भी जमीन नहीं होने के कारण पारंपरिक मछुआरों को वंचित होना पड़ता है.
ऐसी कई चुनौतियों से घिरा बिहार का विशाल मछुआरा समुदाय आज एक नायक की तलाश में है. मुजफ्फरपुर में अंगरेजों से लोहा लेेनेवाले शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर जब सार्वजनिक पार्क बना तो इस समुदाय को गौरव बोध हुआ. कैप्टन जयनारायण निषाद जब मुजफ्फरपुर से ही विजयी होकर संसद भवन पहुंचे तो राजनीतिक बल भी मिला. लेकिन पानी में, पानी के सहारे जिंदगी गुजारनेवाला यह समुदाय जिस तरह भूमि से हीन होने की वजह से कई सरकारी सुविधाओं से वंचित है, उसी तरह इस समुदाय का शिक्षा से वंचित रहना भी इसे मेनस्ट्रीम से दूर रखे हुए है. हालांकि अब स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं. जब हम समस्तीपुर जिले के धरनीपट्टी गांव के चैपाल में थे तो वहां प्राथमिक विद्यालय को दिखाते हुए लाला सहनी कहते हैं- हम खुद तो नहीं पढ़ सकें लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने की बारी आयी तो हमलोगों ने गांव में चंदा इकट्ठा कर 40 हजार रुपये में जमीन खरीदे ताकि यहां सरकारी स्कूल बन सके.
लेकिन इस मुफलिसी और तमाम विपरित हालत में भी मस्ती से जिंदगी गुजारने वाले मछुआरे अपनी परंपराओ को, जीवन की मस्ती को बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. यह तब साफ अहसास हो रहा था, जब हम धरनीपट्टी गांव से विदा हो रहे थे. विदा होते वक्त गांव की चार महिलाएं आयीं और यह आग्रह कीं कि यदि गांव में आये हैं तो गंगा मईया का गीत सुनते जाइये. कुशिया देवी, शांति, फुलझरिया, बुधनी चैपाल में गंगा मईया के सामने बैठकर सामूहिक रूप से कई गीत सुनाती हैं. उसमें पहला गीत निषाद राज और रामचंद्र भगवान के बीच के संवाद का होता है तो आखिरी गीत वर्तमान में निषादों के हालात पर, जिसके बोल होते हैं- गंगा मईया में मिलई ना मछरिया, कईसे के दिनवा जईतई हो...

              हादसे दर हादसे के दौर में चूप रहने की मजबूरी

1. धरनीपट्टी गांव के रंजीत सहनी की मौत करीब चार साल पहले राजस्थान के बिकानेर में बोरा ढोते समय हो गयी. मछली में अवसर कम होने पर वह वहां मजदूरी कर परिवार चलाने के इंतजाम में गये थे. एक लड़की, तीन लड़के के पिता रंजीत की मौत के बाद उनकी पत्नी रीता देवी अपने पति का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के लिए साल भर भटकती रहीं, दर-दर की ठोकरें खाती रहीं लेकिन सरकारी विभाग से कागजी प्रमाण नहीं दिया जा सका मौत का. लाचारी में मछली बेचकर गुजारा करने लगीं. अब इसी साल के आरंभ में रीता का बेटा बभीक्षन शाम को गांव में खेलते-खेलते ही गायब हो गया. अब तक दस वर्षीय बभीक्षन का पता नहीं चल सका. बभीक्षन कहां गायब हुआ किसी को पता नहीं. कुछेक कहते हैं किडनी वाला रैकेट ले गया, अधिकतर कहते हैं, दबंगों ने उठा लिया उसे.
2. बभीक्षन के गायब होने के करीबन एक माह बाद दिनेश सहनी का बेटा बब्बी भी गांव से गायब पाया गया. बब्बी की मां राजपत देवी कहती हैं, खेलते-खेलते ही बच्चे को कोई उठा ले गया. अब कैसे कहूं कि वे लोग कौन थे और हमसे क्या दुश्मनी है. मेरे बेटा का कोई क्यों अपहरण करेगा. हमारे पास तो खाने के लिए अनाज ही मुहाल रहता है तो हम फिरौती क्या दे सकती हूं. मेरे बेटे का अपहरण नहीं हुआ है बल्कि... राजपत कहती हैं- मैं जानती हूं कि अब मेरा बेटा वापस नहीं आयेगा लेकिन उम्मीदें भी नहीं टूट रहीं.
3. करीब आठ माह पहले धरनीपट्टी के शंकर सहनी मछली मारने गांव से 15 किलोमीटर दूर पंडारक गये लेकिन फिर शंकर वहां से कभी वापस नहीं आ सके. शंकर मछली मारने गये थे तो उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी लाश को हाॅस्पिटल से लाया गया. शंकर के पिता दीपा सहनी कहते हैं- मेरे बेटे को दबंगों ने मारा है. शंकर की पत्नी अब मजदूरी करने बाल-बच्चों के साथ दिल्ली चली गयी हैं. घर में ताला लटक गया है. शंकर का तो लाश भी गांववालों को मिल गया लेकिन सत्तू सहनी का तो लाश भी नहीं पाया जा सका. करीब 8-9 माह पहले सत्तू घर से निकले तो थे मछली मारने लेकिन उसके बाद वे कभी अपने घर वापस नहीं लौट सके.सत्तू के भतीजा राजू कहते हैं, मछली मारने गये तो वापस नहीं लौटे इसका साफ मतलब है कि दबंगों की चपेट में आ गये. वैसे सत्तू की पत्नी ने नाउम्मीदी में आकर सिंदूर लगाना भी अब छोड़ दिया है लेकिन विडंबना तो देखिए कि आर्थिक मुफलिसी से गुजर रहा यह परिवार सत्तू को मार दिये जाने की बात को सच मानते हुए भी उनका अंतिम क्रिया-क्र्म नहीं कर सका.



श्रीमान प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र


दरणीय प्रधानमंत्रीजी
सादर प्रणाम
इधर के दिनों में झंझावतों में लगातार घिरे रहने के बाद कल मोहाली स्टेडियम में आपको देखा। खुशमिजाजी के साथ घंटों बैठे हुए। पाकिस्तान से जीत हासिल होने के पहले तालियां बजाते हुए। सोनियाजी को भी देखा। बच्चों की तरह खुशी से चहकते-दमकते हुए। राहुलजी को देखा, जीत के जोश से उभरे जज्बे का भाव। कई-कई मंत्रियों को देखा, विपक्षी खेमे के नेताओं को भी। आमिर खान, प्रीटी जिंटा, सुनील शेट्टी जैसे बॉलीवुड कलाकारों को भी। अच्छा लग रहा था। सच कह रहा हूं। पूरा देश एक छत के नीचे। स्टेडियम में 25 हजार की भीड़ के साथ इतनी देर तक देश के आलाअलम लोग शायद ही कभी इतिहास में बैठे हों। कहीं नहीं पढ़ा-सुना। किसे धन्यवाद दूं, समझ में नहीं आ रहा। क्रिकेट खेल के अविष्कारकों को, जिनकी वजह से यह दिन आया? भारतीय टीम के खिलाड़ियों को, जिन्होंने आप सबको वहां तक बुला लिया? या नये बाजार को, जिसने क्रिकेट को बुलंदियों तक पहुंचाकर देश में राष्ट्रीयता की भावना की व्याख्या नये सिरे से करना शुरू किया है?
मेरी उतनी समझ नहीं इसलिए राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता या क्रिकेट से कूटनीति वगैरह की बातें ज्यादा पल्ले नहीं पड़ती, लेकिन पता नहीं क्यों, टीवी पर आप सबों को देखते हुए बार-बार कुछ चीजें मन को कुरेदती रहीं। इससे आप राष्ट्र के प्रति मेरी निष्ठा या राष्ट्रीयता के प्रति मेरे सम्मान में कोई कमी नहीं समझिएगा। युद्ध की स्थिति और क्रिकेट के खेल, इन दोनों समय में ही राष्ट्र का एकीकरण होता है, राष्ट्रीयता की भावना जगती है, इसे मैं भी जानने-समझने-मानने लगा हूं। वरना, इस देश में कितने देश बन रहे हैं, हर कोई उपराष्ट्रीयता के छलावे के साथ अपनी ब्रांडिंग में लगा हुआ है, इससे मेरे जैसे लोग अवगत हैं। मेरी समझदारी पर तरस जरूर खाइएगा लेकिन राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के संदर्भ में मेरी निष्ठा पर संदेह न कीजिएगा, प्लीज!
इसे सनकमिजाजी या पागलपंथी ही कहिए सर कि टीवी पर क्रिकेट का रोमांच परवान चढ़ रहा था और मेरे आंखों के सामने उस वक्त दो-ढाई साल पहले बिहार का एक दृश्य उभर रहा था। वही 2008 के कोसी के कोप का दृश्य, जब 25 लाख से अधिक की आबादी हाहाकार मचा रही थी। कोसी के तांडव से लोग मर रहे थे, तब केंद्र से आप लोगों को पहुंचने में चार-पांच दिनों का समय लग गया था। यह तय करने में कि यह राष्ट्रीय मामला है या नहीं, 100 घंटे से अधिक का समय लग गया था। याद है न सर! कोसी के इलाके अभी-अभी चार-पांच रातें गुजारकर लौटा हूं, जहां विकास के नाम पर महासेतु बनाकर फिर विनाश की बुनियाद तैयार कर रहे हैं आप दिल्लीवाले। तो शायद कोसी यात्रा का असर है कि क्रिकेट के समय में भी उसी की खुमारी छायी हुई थी। तभी तो आप और सोनियाजी वगैरह-वगैरह जब-जब दिख रहे थे, तब-तब कोसी के कोप वाले ढाई साल पहले के दृश्य सामने आ-जा रहे थे और फिर आपलोग भी याद आ रह थे।
यह बेवकूफी है सर, मुझे पता है लेकिन क्या करूं? राहुलजी को किसी बच्चे की तरह चहकते हुए देखकर अच्छा लगा। उन्हें कितना मिस कर रहा था क्रिकेट के समय, कह नहीं सकता। वे ही तो इकलौते दिल्लीवाले हैं, जो आदिवासियों को सखा-भाई-बंधु वगैरह-वगैरह बताते हैं। गांव में जाकर रात गुजारते हैं। झारखंड में पिछले दिनों हुए राष्ट्रीय खेल का आयोजन भी कल टीवी पर क्रिकेट देखते हुए बार-बार याद आने लगा। लगभग सात हजार खिलाड़ी देश के कोने-कोने से झारखंड में पहुंचे थे। वैसे-वैसे खेलों के खिलाड़ी, जो खेल सरकार के ही रहमोकरम पर जिंदा हैं। क्रिकेट के खिलाड़ियों से कोई कम जोश, जज्बा या उत्साह उनमें नहीं था सर, सच कह रहा हूं, हर दिन खेल में मौजूद था मैं। राष्ट्रीय खेल था सर, 34वां राष्ट्रीय खेल लेकिन आपलोगों में से कोई भी नहीं आया उसमें। न उदघाटन करने, न समापन करने। आप प्रधानमंत्री हैं, आपकी व्यस्तता का अंदाजा सबको है। राष्ट्रपति के आने के पेंच का भी अंदाजा हम जैसे लोगों को है। उपराष्ट्रपति भी नहीं आ सके यहां। और तो और, क्या कहूं सर, आपके खेल मंत्री भी नहीं आये थे यहां। आपके खेल मंत्री वही माकन साहब हैं न सर, जो कल तक इसी झारखंड में कांग्रेस के प्रभारी हुआ करते थे और गाहे-बगाहे यहां पहुंचकर मीडिया वालों के सामने झारखंड-झारखंड की रट किसी बच्चे की तरह लगाते थे। वे क्यों नहीं आये झारखंड के राष्ट्रीय खेल में सर, उनको आपलोगों ने क्यों नहीं भेज दिया जबरिया, इसका जवाब अब तक नहीं मिल पा रहा। आप सब व्यस्त रहे होंगे, खेल मंत्री के लिए तो वह एक बड़ा आयोजन था, वह तो आते, उन्हें तो भेजते आपलोग।
बहुत सवाल पूछते हैं अपने झारखंडी भाई लोग। कहते हैं कि कल संपदा का दोहन करना होगा तो झारखंड राष्ट्र का अभिन्न अंग हो जाएगा, कल माओवादियों का हमला होगा तो राज्य के वर्तमान और भविष्य का दिल्ली से ही खाका तैयार होगा और राज्य बनने के बाद पहली बार एक राष्ट्रीय आयोजन हो रहा था, तो यह राष्ट्र का अभिन्न अंग नहीं था। किसी को समय नहीं मिला। मालूम है सर, यहां के लोग पिछड़े हैं। मीन माइंडेड हैं, इसलिए ऐसी छोटी-छोटी बातों को बतंगड़ बना देते हैं। सच कह रहा हूं सर, मैं आपलोगों के क्रिकेटिया प्रेम का जरा भी विरोधी नहीं वरना यह सवाल ही सबसे पहले पूछता कि क्या किसी देश का पूरा सिस्टम एक खेल के लिए ठप किया जा सकता है! घोषित तौर पर। तब यह भी पूछता कि आखिर अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश क्या अब तक इस खेल से इसी डर से तौबा करते आये हैं कि यह राष्ट्रविध्वंसक खेल है, जो एक बार में पूरे राष्ट्र की गति को आठ-आठ घंटे तक रोक कर रख देता है। अमेरिका, चीनवाले खेल में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं, यह तो आप जानते ही हैं न सर। ओलिंपिक में देखे हैं कि नहीं। मैं यह सब पचड़ा भरा सवाल नहीं कर रहा। एक मामूली नागरिक हूं। सवाल नहीं पूछ सकता। बस जी में आया तो आपसे साझा कर रहा हूं कि क्या वाकई हमारा देश राष्ट्रीयता के संकट के दौर से गुजर रहा है! बस यूं ही पूछ रहा हूं, अन्यथा न लीजिएगा।
आपका ही
निराला