April 1, 2011

पानीदारी, जमींदारी, रंगदारी- सब जारी है


       निराला    
      एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है. कथा यह कि एक प्रणयरत् क्रौंच पक्षी की जोड़ी को एक निषाद ने मार गिराया. महर्षि बाल्मिकी की नजर खून से लथपथ उस घायल क्रौंच की जोड़ी पर पड़ी. पक्षियों को छटपटाते देख महर्षि बाल्मिकी काफी उद्विग्न हो गये. अपने को रोक न सके और अनायास उन्होंने निषाद को श्राप दे दिया कि जब तक पृथ्वी रहेगी, तब तक तुम्हारा मन भी इसी तरह अशांत रहेगा, जिस तरह अभी इन क्रौंच पक्षियों का है. महर्षि बाल्मिीकी ने वह श्राप एक श्लोक के माध्यम से दिया था, जिसे दुनिया का पहला श्लोक भी माना जाता है.
     पता नहीं इस पौराणिक कथा में सच्चाई है या नहीं, लेकिन जिस श्रापयुक्त श्लोक को दुनिया का पहला श्लोक माना गया, उसका असर आज हजारों वर्ष बाद भी निषादों की जिंदगी में देखने को मिलता है. कम से कम धरनीपट्टी पूर्वी गांव में तो ऐसा ही दिख रहा था. धरनीपट्टीपूर्वी बिहार के समस्तीपुर जिले में गंगा किनारे दियारा इलाके में मछुआरों की एक बस्ती है. 250 घरों से अधिक की बस्ती में एकाध घरों को छोड़ दे ंतो मछुआरों का ही वास है यहां. अमूमन शांत रहनेवाले और तमाम विडंबनाओं को अपनी नियति मान जिंदगी गुजार लेनेवाले लोग अंदर से कितने अशांत है, यह धरनीपट्टी पहुंचने पर पता चलता है.
      वहां हम पहुंचे तो थे पानीदारी खत्म होने के बाद और बदलते बिहार में मछुआरों की जिंदगी में आयी तब्दीली को करीब से देखने-समझने लेकिन पत्थरघाट मोड़ से गांव तक हमारे पथप्रदर्शक बन गाड़ी में सवार हुए फूच्चीलाल सहनी और शिवनाथ सहनी रास्ते में ही बताते हैं, आप उस इलाके में चल रहे हैं, जहां के लोग हमेशा पीटे जाते हैं और मार भी दिये जाते हैं. फूच्चीलाल कहते हैं- अतीत की बातें गांव में चलकर समझियेगा, अभी हम सिर्फ यह बता सकते हैं कि पिछले आठ माह में हमारे गांव के दो लोगों को मछली की वजह से मार दिया गया. दो बच्चे गायब हो गये हैं, जिनका कोई पता नहीं. पत्थरघाट से सीधे गये होते तो मोहनपुर बस्ती भी मिलता, जहां कुछ साल पहले 13 मछुआरों को मार दिया गया था. हम मछुआरे हर जगह मारे जाते हैं. फूच्चीलाल बात को जारी रखते हैं- अभी 15 दिन पहले हमारे गांव से नौजवानों का एक समूह गया है बाहर चाकरी की तलाश में, और भी जाने की तैयारी में हैं. अब कोई मछली मारकर अपनी जान गंवाना नहीं चाहता. फूच्चीलाल पूरी कहानी को गाड़ी में ही बता देना चाहते थे लेकिन तब तक हम धरनीपट्टी के उस चैपाल में पहुंच चुके थे, जहां सामने एक प्राथमिक विद्यालय, टूटा-फूटा मिट्टी का दालान और विशाल पेंड़ के नीचे गंगा माई, ज्ञानू माई और बाबा अमर सिंह की प्रतिमा वाली खुली मंदिर के सामने छोटे से मैदान में जाल को ठीक करते मछुआरे दिखते हैं.
      उस चैपाल में दशरथ सहनी, जयपाल सहनी, लाला सहनी, दिलीप सहनी आदि जमा होते हैं और एक-एक कर बातों को बताना शुरू करते हैं. दशरथ कहते हैं- हमारी स्थिति न घर के, न घाट के वाली हो गयी है. नदी में मछली मारते हैं तो दबंग आकर कहते हैं कि नदी जहां से बह रही है, वह जमीन कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे हिस्से में थी इसलिए जो मछली मारे हो, उसमें से हिस्सा दो. वहां से बच गये तो गंगा से निकलते ही दबंग यह कहते हुए मछली लेते हैं कि नदी से निकलकर जिस जमीन से गुजर रहे हो, वह हमारी है, इसलिए हिस्सेदारी चाहिए नहीं तो जाल ले लेंगे और इतने के बाद भी निकल गये तो मछली बेचने निकलने पर मछलियां छीन ली जाती हैं. अगर हम यह सब नहीं कर सकते तो रात में जब मछली मारने के लिए नाव पर निकलते हैं तो नदी में घेरकर हमारी पिटाई की जाती है, घाट से नाव को खोलकर बहा दिया जाता है या नाव में छेद कर बीच गंगा में छोड़ दिया जाता है. गंगा में जहर डाल दिया जाता है, जिससे मछलियां मर जाती हैं. दशरथ यह सब बताते-बताते भर्राये हुए गले से कहते हैं- आप भी तो जानते होंगे कि मल्लाहों की पूरी संपत्ति ही जाल और नाव होती है. हमने या हमारे पुरखों ने सदा से ही जिंदगी पानी में गुजारी इसलिए कभी जमीन लेने की सोचे ही नहीं. अब तो घाट से यात्रियों को लाने-ले जाने के लिए भी हम मल्लाहों का नाव नहीं लगने दिया जाता, उस पर भी दूसरी जातियों का कब्जा हो गया. ऐसी स्थितियों में मछली मरवाने के लिए हमारा अपहरण कर भी कुछ दिनों के लिए रखा जाता है. बताइये कैसे जिंदा रहेंगे हमलोग...!

      दशरथ की बातों में एक जोड़ जोड़ते हुए जयलाल सहनी कहते हैं कि सरकार ने फ्री-फिशिंग कर और पानीदारी को कागज पर तो खत्म कर दिया है लेकिन सच यही है कि हम अभी भी पानीदारी, जमींदारी और रंगदारी तीनों का सामना रोज ही कर रहे हैं. दिन-ब-दिन भयावह रूप में. जयलाल कहते हैं- यहां से लेकर कहलगांव तक चले जायें, दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के ऐसी ही समस्याएं मिलेंगी, उनके जीवन का स्तर ऐसा ही मिलेगा. कहलगांव आदि के इलाके में तो और ज्यादा.
      सच भी ऐसा है. पूरे बिहार में पारंपरिक मछुआरों के सामने स्थिति विकट है. धरनीपट्टीवालों को या उन जैसे बिहार के लाखों मछुआरों को भी अभी ठीक से इसका अहसास नहीं कि निकट भविष्य में उन जैसे पारंपरिक मछुआरों के सामने और भी ज्यादा बड़ी चुनौती खड़ी होनेवाली है. जैसा कि जल श्रमिक संघ के राज्य समन्वयक योगेंद्र सहनी कहते हैं- एक तो कई वजहों से नदियों में यूं ह ी मछलियों की संख्या घट रही है, उपर से सरकार द्वारा सुलतानगंज से कहलगांव तक डाॅल्फिन रिजर्व क्षेत्र घोषित किये जाने पर मछुआरों के सामने रोजी-रोटी का संकट आया. अब सरकार इस डाॅल्फिन रिजर्व एरिया की सीमा मनिहारी से बक्सर तक बढ़ाने की तैयारी में है. यदि सच में ऐसा हुआ तो सोचिए कि एकबारगी से लाखों परिवारों के सामने अस्तित्व का संकट होगा. योगेंद्र कहते हैं- दूसरा सबसे बड़ा संकट मछुआरों के उपर दबंगों का आतंक है. मछुआरों को मार दिये जाने का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा. दो दशक पहले बटेश्वर स्थान में 13 मछुआरों की हत्या हुई थी तो राज्य में चरचा हुआ. उसके बाद फिर मोहनपुर बस्ती में 13 मछुआरों को दबंगों ने मारा. इस दौरान एक्यारी में दो मछुआरे मारे गये. छिटपुट तौर पर दियारा इलाके में मछुआरों की हत्या होती रही. मछुआरों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं. और इतने के बाद बिहार में जब दो साल पहले कोसी प्रलय आया तो लोगों की जिंदगी बचाने और मौत से खेलने के लिए मछुआरों को नाव समेत वहां बुलाया गया. मछुआरे गये भी लेकिन बकौल सहनी, न तो मछुआरों को उचित मजदूरी मिली और न ही कई मछुआरों के नाव अब तक वापस किये गये.
      बिहार में मछुआरों की कितनी आबादी है, इसे सही-सही बताने की स्थिति नहीं, क्योंकि मछुआरों की जाति समूह में मल्लाह के अलावा केवट, गंगोता प्रमुख हैं तो सुरहिया, चाईं, मुरियारी, तीयर, बनपट, बिंद, खुनौट, कोल, भील समेत 22 उपजातियांे को भी मछुआरों के समूह में ही माना जाता है. जैसा कि मछुआरों पर गहन अध्ययन करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से अधिकवक्ता प्रभाकर कुमार कहते हैं- सामूहिक रूप से यह जाति बिहार में यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी जाति है, आबादी करीब एक करोड़ के है. यह बात अलग है कि राजनीतिक रूप से मुखर नहीं होने की वजह से आज इसकी मजबूत पहचान नहीं है. दूसरी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पारंपरिक रूप से नदी पर ही आश्रित रहनेवाली इस जाति ने जमीन के बारे में नहीं सोचा तो आज स्थिति यह भी है कि 90 प्रतिशत से अधिक मछुआरे भूमिहीन हैं. यह स्थिति तो धरनीपट्टी में भी देखने को मिली, जहां 250 घरों के मछुआरों की पूरी जमीन मिलाने के बाद भी कुल 20 एकड़ से अधिक जमीन उनके हिस्से में नहीं. अधिकतर ने किसी तरह अपने घर बनाने भर जमीन का इंतजाम कर लिया है. प्रभाकर कहते हैं- दलितों-आदिवासियों की तरह इस जाति को कभी सरकारों ने आगे बढ़ाने का काम नहीं किया, जिस कारण स्थिति आज इतनी विकट है. राजनीतिक रूप से देखें तो जल श्रमिक संगठन के योगेंद्र सहनी के अनुसार बिहार में 25 विधानसभा सीटों के गणित को मछुआरा समुदाय के लोग ही तय करते हैं लेकिन सब इनके वोटों का इस्तेमाल भर ही करते हैं. यहां तक कि स्वजातीय नेता भी. फिलहाल बिहार से एक लोकसभा सदस्य, दो राज्य सभा सदस्य और विधानसभा में चार प्रतिनिधि इस जाति-समुदाय से आते हैं.
      अब एक और विडंबना पर गौर कीजिए, जिससे मछुआरों की स्थिति खस्ताहाल हुई. दो दशक पहले तक बिहार देश का नमूना राज्य था. यहां गंगा में 80 किलोमीटर तक यानि सुलतानगंज से पिरपैंती तक महाशय घोष और मुशर्रफ हुसैन की पानीदारी यानि पानी पर जमींदारी चलती थी. यह सब सिर्फ इस नाम पर होता रहा कि जमींदारी उन्मूलन कानून में पानी की चरचा नहीं थी. इन दोनों परिवारों के लठैत मछुआरों से रंगदारी समेत अन्य किस्म के टैक्स लेते थे. पानी में पनपे अपराध ने 1987 में बटेश्वर स्थान में हुए 13 मछुआरों की हत्या समेत कई बार उनके खून से दियारा इलाके को लाल किया. 1982 में आंदोलनकारियों ने गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की तो 1991 में राज्य सरकार ने संशोधन कर पानीदारी को तो खत्म किया, मछुआरों के लिए निःशुल्क शिकारमाही की घोषणा हुई, पहचान पत्र देने की बात हुई  लेकिन मुफ्त शिकारमाही भी सपना ही बना रहा और पहचान पत्र का आज तक पता नहीं. दूसरी ओर पानीदारी खत्म करने के बाद तत्कालीन सरकार ने डाॅल्फिन के लिए सेंक्चुरी क्षेत्र घोषित कर दिया जिससे मछुआरों के सामने मछली मारने का संकट पैदा हो गया. समस्या यह हुई कि यदि डाॅल्फिन प्रदूषण या अन्य कारणों से भी मरे तो दोष मछुआरों के उपर मढ़ा जाता है. बाद में नीतीश सरकार के पहले चरण में मछलीपालन को बढ़ाने के उद्देश्य से निली क्रांति की शुरुआत हुई लेकिन वह भी कुल मिलाकर परंपरागत मछुआरों को एक मजदूर बनाने वाला ही साबित हो रहा है. हालांकि अब नीतीश सरकार ने अपनी दूसरी पारी में मछुआरों को आतंक से मुक्त करवाने के लिए पांच नदी थाना बनाने का फैसला भी चार दिनों पहले लिया है.
      गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख कर्ताधर्ता रहे अनिल प्रकाश कहते हैं कि यह बड़ा हास्यास्पद है कि एक ओर राज्य सरकार निली क्रांति का सपना दिखा रही है, दूसरी ओर नदियों के पानी को औद्योगिक कचरे से लाल और काला किया जा रहा है. पहले सरकार प्रदूषण रोकने के कारगर उपाय करे, नदियों को बचाये तभी मछलियां बचेंगी. बकौल अनिल प्रकाश, हम सिर्फ मछुआरों या मल्लाह की बात कर रहे हैं लेकिन यह संकट सिर्फ उनका नहीं है, सबके जीवन का सवाल है. यह अलग बात है कि आज प्रदूषण के कारण और गलत सरकारी नीतियों के कारण मछुआरों को मछलियां नहीं मिल रहीं या नहीं मार पा रहे तो वे बेमौत मरने को विवश हुए हैं या फिर रिक्शा चलाकर, मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे हैं लेकिन कल को वे डकैत, माओवादी भी बनेंगे.
     अनिल प्रकाश मूल सवालों को उठा रहे हैं, उसके इर्द-गिर्द भी सवाल कम नहीं हैं. 1975 में जब फरक्का बैराज बना तो भी उसकी मार मछुआरों को झेलनी पड़ी. फरक्का बैराज बन जाने से हिलसा, झिंगा जैसी मछलियों का समुद्र से इधर आना बंद हो गया जबकि एक समय वह भी था जब बिहार से हिलसा और झिंगा जैसी मछलियों का निर्यात अन्य राज्यों को होता था. अब तो बाजार में आंध्रा वाली मछली का ही बोलबाला पटना या बड़े शहर ही नहीं, छोटे-छोटे शहरों में भी देखा जाता है. संकट सिर्फ नदी किनारे या दियारा इलाके में रहनेवाले मछुआरों के साथ नहीं बल्कि सासाराम जैसे नदीविहीन इलाके में, जहां पारंपरिक मछुआरों की संख्या काफी है, संकट दूसरे रूपों में सामने आ रहा है. उन इलाकों में, जहां सदाबहार नदियां नहीं हैं, वहां कोल-ढाब-तालाबों में मछलीपालन का काम होता है. वैसे इलाकों में दूसरे किस्म के मछली माफिया सक्रिय हैं, जो मल्लाहों के नाम पर कोआॅपरेटिव सोसाइटियों पर कब्जा जमाकर मल्लाहों को सिर्फ मजदूर बनाकर रखते हैं. और उस पर भी मछली माफियाओं की लड़ाई ऐसी चलती है कि एक-दूसरे के अधिकार वाले तालाब में जहर डालकर मछलियों को मार दिये जाने का खेल भी खूब होता है. सासाराम के रहनेवाले और बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के निदेशक कोमल पासवान बताते हैं- सासाराम, तिलौथू, नौहट्टा, नोखा, चेनारी, शिवसागर आदि क्षेत्रों में लगातार ऐसे केस सामने आ रहे हैं, जिसमें तालाब में जहर डालकर मछली खत्म करने का खेल चल रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि बिहार सुखाड़ की चपेट में आता है तो तालाबों और ताल-तलैया का पानी लोग खेत में उतारते हैं. जब पानी नहीं बचता तो मछलियां भी खत्म हो जाती हैं जिससे मछुआरों का रोजगार छिन जाता है.
संकट-दर-संकट में घिरते पारंपरिक मछुआरों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है  िक उनके पास जमीन नहीं होने की वजह से उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता. बिहार लोक अधिकार मंच के प्रवीर कहते हैं, केंद्र की योजना है कि हर जिले में 100 मछुआरों को इंदिरा आवास बनाया जायेगा लेकिन इंदिरा आवास के लिए मछुआरे जमीन कहां से लायें, इस पर भी सरकार को गौर करना चाहिए. उसी तरह सरकार ने जमीन रहने पर मत्स्यपालन के लिए ़ऋण या मुआवजे की योजना बनायी है लेकिन यहां भी जमीन नहीं होने के कारण पारंपरिक मछुआरों को वंचित होना पड़ता है.
ऐसी कई चुनौतियों से घिरा बिहार का विशाल मछुआरा समुदाय आज एक नायक की तलाश में है. मुजफ्फरपुर में अंगरेजों से लोहा लेेनेवाले शहीद जुब्बा सहनी के नाम पर जब सार्वजनिक पार्क बना तो इस समुदाय को गौरव बोध हुआ. कैप्टन जयनारायण निषाद जब मुजफ्फरपुर से ही विजयी होकर संसद भवन पहुंचे तो राजनीतिक बल भी मिला. लेकिन पानी में, पानी के सहारे जिंदगी गुजारनेवाला यह समुदाय जिस तरह भूमि से हीन होने की वजह से कई सरकारी सुविधाओं से वंचित है, उसी तरह इस समुदाय का शिक्षा से वंचित रहना भी इसे मेनस्ट्रीम से दूर रखे हुए है. हालांकि अब स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं. जब हम समस्तीपुर जिले के धरनीपट्टी गांव के चैपाल में थे तो वहां प्राथमिक विद्यालय को दिखाते हुए लाला सहनी कहते हैं- हम खुद तो नहीं पढ़ सकें लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाने की बारी आयी तो हमलोगों ने गांव में चंदा इकट्ठा कर 40 हजार रुपये में जमीन खरीदे ताकि यहां सरकारी स्कूल बन सके.
लेकिन इस मुफलिसी और तमाम विपरित हालत में भी मस्ती से जिंदगी गुजारने वाले मछुआरे अपनी परंपराओ को, जीवन की मस्ती को बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. यह तब साफ अहसास हो रहा था, जब हम धरनीपट्टी गांव से विदा हो रहे थे. विदा होते वक्त गांव की चार महिलाएं आयीं और यह आग्रह कीं कि यदि गांव में आये हैं तो गंगा मईया का गीत सुनते जाइये. कुशिया देवी, शांति, फुलझरिया, बुधनी चैपाल में गंगा मईया के सामने बैठकर सामूहिक रूप से कई गीत सुनाती हैं. उसमें पहला गीत निषाद राज और रामचंद्र भगवान के बीच के संवाद का होता है तो आखिरी गीत वर्तमान में निषादों के हालात पर, जिसके बोल होते हैं- गंगा मईया में मिलई ना मछरिया, कईसे के दिनवा जईतई हो...

              हादसे दर हादसे के दौर में चूप रहने की मजबूरी

1. धरनीपट्टी गांव के रंजीत सहनी की मौत करीब चार साल पहले राजस्थान के बिकानेर में बोरा ढोते समय हो गयी. मछली में अवसर कम होने पर वह वहां मजदूरी कर परिवार चलाने के इंतजाम में गये थे. एक लड़की, तीन लड़के के पिता रंजीत की मौत के बाद उनकी पत्नी रीता देवी अपने पति का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने के लिए साल भर भटकती रहीं, दर-दर की ठोकरें खाती रहीं लेकिन सरकारी विभाग से कागजी प्रमाण नहीं दिया जा सका मौत का. लाचारी में मछली बेचकर गुजारा करने लगीं. अब इसी साल के आरंभ में रीता का बेटा बभीक्षन शाम को गांव में खेलते-खेलते ही गायब हो गया. अब तक दस वर्षीय बभीक्षन का पता नहीं चल सका. बभीक्षन कहां गायब हुआ किसी को पता नहीं. कुछेक कहते हैं किडनी वाला रैकेट ले गया, अधिकतर कहते हैं, दबंगों ने उठा लिया उसे.
2. बभीक्षन के गायब होने के करीबन एक माह बाद दिनेश सहनी का बेटा बब्बी भी गांव से गायब पाया गया. बब्बी की मां राजपत देवी कहती हैं, खेलते-खेलते ही बच्चे को कोई उठा ले गया. अब कैसे कहूं कि वे लोग कौन थे और हमसे क्या दुश्मनी है. मेरे बेटा का कोई क्यों अपहरण करेगा. हमारे पास तो खाने के लिए अनाज ही मुहाल रहता है तो हम फिरौती क्या दे सकती हूं. मेरे बेटे का अपहरण नहीं हुआ है बल्कि... राजपत कहती हैं- मैं जानती हूं कि अब मेरा बेटा वापस नहीं आयेगा लेकिन उम्मीदें भी नहीं टूट रहीं.
3. करीब आठ माह पहले धरनीपट्टी के शंकर सहनी मछली मारने गांव से 15 किलोमीटर दूर पंडारक गये लेकिन फिर शंकर वहां से कभी वापस नहीं आ सके. शंकर मछली मारने गये थे तो उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी लाश को हाॅस्पिटल से लाया गया. शंकर के पिता दीपा सहनी कहते हैं- मेरे बेटे को दबंगों ने मारा है. शंकर की पत्नी अब मजदूरी करने बाल-बच्चों के साथ दिल्ली चली गयी हैं. घर में ताला लटक गया है. शंकर का तो लाश भी गांववालों को मिल गया लेकिन सत्तू सहनी का तो लाश भी नहीं पाया जा सका. करीब 8-9 माह पहले सत्तू घर से निकले तो थे मछली मारने लेकिन उसके बाद वे कभी अपने घर वापस नहीं लौट सके.सत्तू के भतीजा राजू कहते हैं, मछली मारने गये तो वापस नहीं लौटे इसका साफ मतलब है कि दबंगों की चपेट में आ गये. वैसे सत्तू की पत्नी ने नाउम्मीदी में आकर सिंदूर लगाना भी अब छोड़ दिया है लेकिन विडंबना तो देखिए कि आर्थिक मुफलिसी से गुजर रहा यह परिवार सत्तू को मार दिये जाने की बात को सच मानते हुए भी उनका अंतिम क्रिया-क्र्म नहीं कर सका.



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