April 8, 2011

तमाशा तो मैंने भी खूब किया यार !


    निराला          
      कुछ माह पहले की बात है. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की. बिहार चुनावी सरगर्मी से तप रहा था. मुजफ्फरपुर जाना हुआ था. उम्र के 90वें साल में प्रवेश कर चुके शास्त्रीजी की हालत कई माह से कुछ ज्यादा ही नाजुक थी, लेकिन बीमारियों को पछाड़ देने के बाद कुछ दिनों के लिए हालत सुधर भी गयी थी. हिंदी साहित्य की दुनिया में अपना तमाम जीवन खपा चुके शास्त्रीजी की तबियत से हिंदी साहित्य जगत बेखबर था. उस महान कवि को अकेला छोड़ दिया था हिंदी साहित्य जगत ने, जिनके कृतित्व से प्रभावित होकर कभी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी जैसे दिग्गज खुद उनसे मिलने मुजफ्फरपुर पहुंचे थे. एक भाषण से पृथ्वीराज कपूर जैसे फिल्मकार पर ऐसा प्रभाव डाला कि कपूर को जब भी समय मिलता, देश-दुनिया को छोड़ मुजफ्फरपुर में शास़्त्रीजी के घर ही आकर रहा करते थे. छोटे-बड़़े रचनाकारों का मजमा लगा करता था, लेकिन चलाचली की बेला में जब वे अकेले बिस्तर पकड़ लिये तो उन्हें देखने-सुनने या उनकी सुध लेने कोई नहीं आ रहा था. न साहित्यिक मठ-सठ के ठेकेदार, न शास्त्रीजी के मार्गदर्शन में डाॅक्टरेट की उपाधि ले अच्छी जगह नौकरी बजा रहे उनके दर्जनों चेले. उम्र के हिसाब से शरीर की अस्वस्थता तो काफी पहले से ही थी लेकिन उस हाल मंे भी जब कभी वे रंग में आते तो बातें भी खूब करते. जब कोई बात करनेवाला नहीं आता तो घर में ही अपनी पत्नी से बच्चों की तरह जिद मचाये रहते कि मेरी मां मर गयी, मैं रहकर क्या करूं. जबकि सच यह था कि उनकी मां तभी दुनिया छोड़ गयी थीं, जब शास़्त्रीजी चार साल के थे. लेकिन मन में मां ही मां छायी हुई रहती हैं. अक्तूबर 2010 के आखिरी सप्ताह की बात है. तब शास्त्रीजी कुछ स्वस्थ हुए थे. एक रोज उनके घर अनायास पहुंचना हुआ. उस रोज वे अपने पूरे रौ में थे. रंग में थे. पहुंचते ही पहले नाश्ते-पानी के लिए पूछा और मना करने पर तुरंत कहा- इसका मतलब यह कि मैं भी जब तुम्हारे घर आउंगा तो कुछ नहीं खिलाओगे. शास्त्रीजी से मिलने हम मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान अवस्थित ‘निराला निकेतन’ आवास में पहुंचे थे. उसी चतुर्भुज स्थान वाले इलाके में, जिसे सबसे बड़ी बदनाम बस्ती की बसाहट माना जाता है. वे जिस बरामदे में आराम कर रहे थे ं, वहां सामने ग्रिल में बिस्किट के पैकेट के दर्जनों कवर सजे थे. चारों ओर कई-कई रूपों में उनकी खुद की तसवीरें. और तरह-तरह के कई आईने भी. जिस वक्त हम पहुंचे थे, उसके ठीक पहले उनके सोये रहने के क्रम में ही उनके बाल को डाई कर दिया गया था. हमारे वहां पहुंचने पर उन्होंने सामने लगे कई आईने मंे से एक को उठाकर खुद को निहारते हुए उन्होंने कहा- दो घंटे पहले आते तो वृद्ध शास्त्री मिलता, अब बाल रंग दिया तो जवान शास़्त्री सामने है. हर बात पर क्या तमाशा है या तमाशा मैंने भी खूब किया, तकियाकलाम की तरह दुहरातें. उस रोज शास्त्रीजी हम पर कई बार गुस्साये, जाने को भी कहें लेकिन फिर रूकवाकर अपनी बात भी कहते रहे. थोड़े मजाक के मूड में थे तो बातचीत के बीच में ही अपनी पत्नी को भी बड़े भाई, कहां हैं, जरा आइये के संबोधन से बुलायें और परिचय यह कहकर करवायें कि ये मेरी गुरु हैं, अब आगे कुछ इनसे भी पूछ लीजिए... शास़्त्रीजी से बातों-बातों में ही हुई बातचीत के कुछ अंश यहां उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि के तौर पर प्रस्तुत है
   
 सवाल- जीवन की ढलान की बेला में पढ़ने-लिखने से कितना वास्ता रख पाते हैं अब! 
     जवाबः- यार, या तो आप गलत आदमी हो या फिर गलती से गलत आदमी के पास आ गये हो. क्या फालतू बात कर रहे हो यार! आखिरी सांस तक शास्त्री का लिखने-पढ़ने से वास्ता टूट सकता है, यह बात आयी कैसे तुम्हारे दिमाग में. 90 की उम्र का हूं. अभी इस उम्र में किताब लिखा हूं, हजार रुपये में बिक रही है. राधा महाकाव्य की रचना की है मैंने. कोई लेखक रचे हिंदी में साहित्य और बिकवा ले हजार रुपये में अपनी किताब तो... भाई, मैं और कोई दुनियावी काम नहीं कर सकता, लिखना-पढ़ना ही मेरा कर्म है, समझे...
सवाल- नयी पीढ़ी के हिंदी लेखकों को लेकर क्या नजरिया है आपका? कितनी उम्मीदें रखते हैं आपं?
जवाबः- पैसा कमाने के लिए चार किताबों को मिलाकर एक किताब लिखते हैं और कहलाते हैं क्या, तो लेखक. आउटस्टैंडिंग कोई दिखता ही नहीं. कालजयी रचना करने की क्षमता नहीं दिखती किसी में. एक किताब लिख देंगे, परीक्षा में वह किताब चले, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु है हिंदी साहित्य लेखन का. दरअसल यह समय का भी दोष है. अब के समय में साहित्यिक मठाधीश कर क्या रहे हैं, यह भी देखना होगा. अपने बारे में कभी नहीं सोचते लेकिन दूसरे की आलोचना करना हो तो बित्ता भर का जिभ निकाल देंगे. आज के कथित बड़े लेखकों को देखिए, एक-दूसरे को गिराने-पटकने में ही ज्यादा समय लगाते हैं और बाकि बचे समय में मुर्खों को कवि-लेखक और विद्वान का सर्टिफिकेट देने में लगे हुए हैं. तो समझ सकते हैं कि नयी पीढ़ी क ेलेखकों में किस तरह की प्रतिभा विकसित होगी. कोई पंत, दीनकर, बेनीपुरी की तरह कवि-लेखक कहां हाल के वर्षों में हुआ!
सवाल- आप सुमित्रानंदन पंत की बात कर रहे हैं, उनके ज्यादातर रचनाओं को तो विगत वर्ष कूड़ा-कचरा कह गये थे एक बड़े साहित्यकार-आलोचक.
जवाब- मुर्खाधीराज हैं वे जो उलूल-जुलूल बकते रहते हैं. वे क्या कहते हैं, खुद ही पता नहीं होता. मैंने कहा न कि हिंदी पट्टी की यह विडंबना है कि खुद के बारे में कोई नहीं देखता कि तुमने क्या किया,  दूसरे के अवगुणों की चर्चा में बड़ा आनंद आता है.
सवाल- आपने अपने घर के अहाते में अपने बाबूजी का मंदिर बनवा रखा है, रोज बाबूजी की ही पूजा करते हैं और फिर शेष स्थान में गायों की समाधि स्थल है, कुछ इसके बारे में बतायें.
जवाबः- मेरे जिंदगी में तमाशा खूब हुआ. गया के पास शेरघाटी के एक गांव का रहनेवाला हूं. चार साल का था तो मां गुजर गयीं. उस उम्र से ही मेरे बाबूजी ने मां और बाप दोनों का प्यार दिया तो स्वाभाविक है कि मेरे लिए वही भगवान बन गये. उनकी देख-रेख में ही मैं 16 साल की उम्र में शास्त्री बन गया और 18 साल की उम्र में प्राध्यापक. अब बताओ तो यह तमाशा कि मैं पहली बार गंगा पार कर यहां मुजफ्फरपुर पहंुचा था घूमने के लिए और यहीं प्राध्यापकी की नौकरी मिली गयी. ऐसा होता है भला कहीं. मैं तो रोने लगा था तब कि कहां फंस गया भाई. और क्या तो यहां के बच्चा बाबू ने मुझे चतुर्भुज स्थान में एक एकड़ जमीन भी दे दिया कि घर बनवा लीजिए. मैंने एक एकड़ में घर बनवा लिया. बाद में यहां बाबूजी भी आये. एक रात खाने में वे दूध मांगे. बाहर से दूध आया तो उन्होंने कहा कि मैं बाहर का दूध नहीं लूंगा. तुरंत रात में ही गाय खरीद कर लाया. बाबूजी ने कहा कि न दूध कभी बेचना न गायों को कभी किसी को देना. तब से यही कर रहा हूं. पहली गाय का नाम कृष्णा रखा और फिर उसके बच्चे होते गये, गायों का परिवार बढ़ता गया. जिनकी मृत्यु हुई, यहीं उनका अंतिम संस्कार करता गया. इसलिए गोशाला का नाम भी कृष्णायतन रखा. तब से यहां रहकर यही कर रहा हूं.
सवाल- आपने कुत्ते भी बहुत रखे हैं. आपके साथ रहते हैं. आपके बिस्तर पर भी घर के परिवार की तरह रहते हैं. कुत्तों से इतना प्यार...
जवाबः- हंसते हुए- भाई मैं सोचता हूं कि अगर अब के समय में बढ़ियां से बढ़ियां लोग, नामचीन लोग कुत्ते की तरह दूम हिलानेवाले हो गये हंै तो उनसे क्यों दोस्ती रखी जाए. कुत्ते ही चाहिए तो ओरिजिनल वाला क्यों न हो, जो वफादार होता है और जिसे प्यार, अपनापन की जरूरत भी है.
सवालः- पहले आपके यहां साहित्यकारों, नेताओं का आना-जाना हमेशा हुआ करता था. अब भी कोई आता है. कभी मलाल होता है कि अब कोई नहीं आता...!
जवाबः-कैसी बात करते हो. यहां कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे थोड़े ही आ सकता है. यहां पृथ्वीराज कपूर महीने भर रहते थे. दिनकर, बेनीपुरी, पंत जैसे साहित्यकार-लेखक आकर रूकते थे. नेताओं में राजेंद्र बाबू, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर, भैरो सिंह शेखावत आते थे. तो अब बताओ के आज के नेताओं-साहित्यकारों के नहीं आने का मलाल भला शास्त्री को क्यों रहेगा. मेरे यहां मांस-मदिरा का इंतजाम तो रहता नहीं, तो फिर यहां कौन समय जाया करेगा. लेकिन एक तरह से देखो तो यह भी बढ़ियां ही है कि फालतू लोग यहां फालतू का समय बर्बाद करवाने नहीं आते.
सवालः आपने कुछ नेताओं के भी नाम लिये. अभी तो बिहार में चुनाव चल रहा है. नेतागिरी उफान पर है. अपने पसंदीदा नेताओं के बारे में बतायें.
जवाबः- मैं महामना मदनमोहन मालवीय जी के साथ रहा हूं. मैंने बताया न कि यहां कौन-कौन और कैसे-कैसे नेता आते थे. लेकिन सच कहूं तो बिहार में अब तक मुझे दो ही नेता नजर आये. पहले राजेंद्र बाबू और दूसरे कर्पूरी ठाकुर. कर्पूरी बाबू हमेशा आते थे यहां इन दोनों नेताओं की तरह यहां कोई दूसरा नेता नहीं हुआ, जिसमें सज्जनता दिखती हो. एक संस्कार हो. चरित्र हो. अब तो सब एक-दूसरे को गरियाने में लगे हुए हैं. जाति को गरिया कर लोगों को मुर्ख बनाने में निपुण हो गये हैं. सब के सब ढोंगी है.




 विदाई की बेला में शास्त्रीजी की कुछ चुनिंदा पंक्तियां


दूर देश है जाना

 दूर देश है जाना
जहां न कोई भी मेरा
अपना जाना-पहचाना
तपना तनिक धूप में
क्षण भर छांह देख सो जाना
फिर आने की कौन बताये
दूर देश है जाना...

- अपनी साहित्य यात्रा पर

 अब आखिरी विदा लेता हूं...

कहां मिले स्वर्गीय सुमन?, मेरी दुनिया मिट्टी की
विहंस बहन क्यों तुझे सताउं, कसक बताकर जी की!
अब आखिरी विदा लेता हूं आह, यही इतना कह
मुझ सा भाई हो न किसी का, तुझ-सी बहन सभी की

- अपनी बहन सुमित्रा की स्मृति में

वह सुख न कभी मिले मुझे, जिससे दुख ही होता दूना...

वह सुख न कभी भी मिले मुझे
जिससे होता दुख ही दूना
जिससे की भींगती आंखें ही
रहता अंतर भूना-भूना
जो अमृत नहीं वह बह जाये
मेरा घट रहे, रहे सूना
हर स्वर-लय तेरा ध्यान
विश्व मुझको अभिमानी कहे, कहे
मैं गाउं तेरा मंत्र समझ
जग मेरी वाणी कहे, कहे...








2 comments:

नारायण प्रसाद said...

बाबा और बाबूजी भोजपुरिया तो दादी और माई मगही. माई के गाँव में ही जन्मा, पला, बढ़ा. मगह के ठेठ गाँव में बोड़ा छाप इस्कूल में पढ़ते हुए पढ़ाई छोड़, सब करता रहा. नाना- नानी के दुलार-प्यार ने बचपन से ही डहंडल बना कर रखा.

भाई साहब ! यह डहंडल क्या होता है ?

Shyam Bihari Shyamal said...

...आपका संस्मरण और यह साक्षात्कार पढ़कर लगा जैसे जानकीवल्लभ शास्त्री सामने बैठे हुए हों और उनका मुझी से संवाद चल रहा हो! अभिभूत हूं! यह दृश्य सामने से हट ही नहीं रहा। सुबह के हिमालय जैसी उनकी वही चमकती चिरपरिचित मुस्कान-मुद्रा... वही उन्मुक्त स्वागत-स्नेह, उम्र और वरिष्ठता-कनिष्ठता को भूसे की तरह उड़ा देने वाली वही हंसी-ठिठोली, घर में जरा-सी बहक या प्रतिकूलता पर सजग-सलीकेदार बुजुर्ग जैसी वही-वही झिड़की-तुनक, समाज-साहित्य की गति पर बोलते हुए वही युग-चिंता, वही सारे संलाप...! आपने इसे लिखा भी है बहुत जीवंत, बल्कि सीधे-सीधे सवाक् और गतिपूर्ण चित्रांकन जैसा। आप अपनी तस्वीर कहीं दिखायें। इच्छा हो रही है कि उस सौभाग्यशाली व्यक्ति को यथाशीघ्र देखूं, अंतिम दिनों में महाकवि ने जिसे ‘निराला’ नाम जानकर अपना गुरु कहा था और अद्भुत किंतु कभी न भूलने वाली स्नेहसिक्त ठिठोली की थी! किसी समय में, शायद 1982 में मैंने भी मुजफ्फरपुर पहुंचकर उनसे मुलाकात की थी। ‘निराला निकेतन’ में कई दिनों तक रुककर उनका सविस्तार साक्षात्कार लिया था। यह उन्हीें दिनों प्रमुख पत्रिकाओं में विषयवार दर्जनाधिक टुकड़ों में छपता रहा। बाद में भी उनसे मिलने पहुंचता रहा, लेकिन नौकरी में जुतने और धीरे-धीरे इसके गहरे दायित्व-जाल में पूर्णतः उलझ चुकने के बाद वर्षों पहले ही यह सिलसिला लगभग बंद हो गया! वैसे, गर्व है कि मुझे उनका अनंत स्नेह मिला। इतना कि कोई भी व्यक्ति जब भी पलामू से उनके पास पहुंचता तो वह ‘श्यामल का पलामू?’ कहकर सवाल पर सवाल करने लगते! यह कि वह मुझे जानता है या नहीं! ‘हां’ तो क्या! अथवा, यदि ‘नहीं’ तो क्यों! आदि-आदि जैसे प्रश्न और इसके बाद मेरे बारे में कुछ स्नेह-शब्द। ...उनकी अक्षय स्मृति को सजल प्रणाम और अनंत श्रद्धांजलि!