November 21, 2007

ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी

अविनाश
रांची में वो कौन सा साल था, मुझे याद नहीं- लेकिन कवि सम्‍मेलन की खबर अख़बार से पाकर हम दौड़ कर गये थे सुनने। हरमू कालोनी में टेंट और कुर्सियों और रूह-अफ्ज़ा की खुशबू के बीच कविता की उस पहली मजलिस में गाये-पढ़े गये कई बोल मुझे आज तक याद हैं। क्षेमचंद्र सुमन ने सुनाया था... सोयी आग दहक जाएगी, मन की नींद बहक जाएगी, तुम कस्‍तूरी केस न खोलो, सारी रात महक जाएगी। बुद्धिनाथ मिश्र ने सुनाया था... एक बार और जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। और भी कई थे, जिन्‍हें आज भी मैं भरपूर सुनना चाहता हूं। लेकिन एक कवि जो मेरे किशोर मन को भेद गये थे, वे थे कैलाश गौतम। उन्‍होंने गंगा पर क्‍या गीत सुनाया था! एक गीत था उनका कचहरी... भले डांट घर में तू बीवी की खाना, भले ऐसे तैसे गृहस्‍थी चलाना, भले जा के जंगल में धूनी रमाना, मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना। आगे और भी मार्मिक पंक्तियां हैं, जो मुझे याद नहीं- लेकिन एक पंक्ति जो टूटे-फूटे तरीके से मेरे ज़ेहन में है, वो ये कि कचहरी तो बेवा का तन बेचती है! अगर ये गीत मुझे पूरा मिला, तो ज़रूर इसे हम मोहल्‍ले में बांचेंगे। और खास बात ये कि जिस पहले और एकमात्र कवि का मैंने ऑटोग्राफ लिया है, वे कैलाश गौतम ही हैं। उसी कवि सम्‍मेलन में मैंने आयोजकों से गुज़ारिश करके मंच पर जाकर कैलाश गौतम से ऑटोग्राफ लेने की इजाज़त ली थी। अभी कैलाश गौतम का एक और गीत मेरे हाथ लगा है- गान्‍ही जी। लय, राजनीति, दुख और अकेलेपन और देशज कहन का एक मार्मिक काव्‍य-वृत्तांत। आइए पढ़ें...
सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी
बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै

का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ

कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाव बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी

जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी
साभारः मोहल्ला

केकरा से करीं अरजिया हो, सगरे बटमार

बिहार में जनता की लडा़इयों की एक लंबी परंपरा रही है और इस परंपरा में जनता के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़नेवाले लेखकों, कवियों की भी. बिजेंद्र अनिल उन्हीं में से एक थे. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके गीत हमारे साथ हैं और जो जनता लड़ रही है-उसके साथ हैं. पेश है एक श्रद्धांजलि और उनके कुछ गीत.


सुधीर सुमन
कथाकार-गीतकार बिजेंद्र अनिल तीन नवंबर को नहीं रहे. यह सही है कि पिछले एक दशक में उन्होंने बहुत कम लिखा पर गरीब मजदूरों और मेहनकश किसानों से उनका संवेदनात्मक रिश्ता नहीं टूटा था. तीन चार वर्ष पहले उन्होंने खेत मजदूरों के राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए पांच गीत लिखे और शिक्षक की नौकरी से रिटारमेंट के बाद इधर नये सिरे से पूरी तैयारी के साथ लिखने की योजना बना रहे थे. सामाजिक-राजनीतिक बदलाव चाहनेवालों और क्रांति के आकांक्षी तमाम लोगों के लिए उनका अचानक चले जाना बहुत बड़ा आघात है.


अब सांस्कृतिक समारोहों और विचार गोष्ठियों में जनसंघर्षों की आंच से तपा और जमीनी अनुभवों से मिली वैचारिक दृढ़तावाला वह सांवला चेहरा नजर नहीं आयेगा. पर जनता की ताकत की ऊष्मा और संवेदनशीलता से भरी उनकी मुस्कुराहट कभी भुलायी नहीं जा सकती. और न ही उनके गीत भुलाये जायेंगे. सामाजिक-राजनैतिक सरोकारवाले रचनाकारों के लिए उनका होना एक ताकत की तरह था. अब जब वे नहीं हैं, तो उनका जीवन और उनकी रचनाएं हमारे लिए प्रेरणा का काम करेंगी, उनकी कहानियां लेखकों-कलाकारों को उनका सामाजिक -राजनीतिक फर्ज समझायेंगी.

ब्रेन हेमरेज का जो खतरनाक और अकस्मात हमला था, उसे वे बेशक नहीं झेल पाये और इस देश में आम लोगों के स्वास्थ्य के ठेकेदारों ने जरूर बिना कोशिश किये हाथ खड़े कर दिये कि इतना क्षतिग्रस्त दिमाग तो अमेरिका में भी कम बचाया जा सकता है. पर बिजेंद्र अनिल तो अपने उस दिमाग का प्रतिरूप पहले ही अपने शब्दों में उतार कर चले गये हैं. वह दिमाग, जो गांव के सामंत से लेकर साम्राज्यवाद तक का निर्भीकता के साथ प्रतिरोध करता है और प्रतिरोध के लिए व्यापक जनता को संगठित करने की तैयारी करता है, उसे वे अपनों के बीच छोड़ गये हैं>.
दर्जनों कहानी संग्रह और उपन्यास बिजेंद्र अनिल ने नहीं लिखे. 18 वर्ष की उम्र में आग और तूफान कविता संग्रह के प्रकाशन से उनके रचनात्मक सफर की शुरुआत हुई और विस्फोट और नयी अदालत नामक दो कहानी संग्रह ही प्रकाशित हुए. आरंभ एक भोजपुरी और दूसरा हिंदी में उपन्यास भी लिखा. उनकी इच्छा थी कि फर्ज कहानी को उपन्यास का रूप देते, पर इसका वक्त ही नहीं मिला. पिछले एक दशक से उनका तीसरा कहानी संग्रह इलाहाबाद के एक प्रकाशक ने लटकाये रखा. गजलों के प्रकाशन की योजना भी पूरी नहीं हुई. इसके बावजूद उन्हें पाठकों और लेखकों ने एक बहुत बड़े रचनाकार का दर्जा दिया और उनको आदर्शों का सम्मान किया.

बिजेंद्र अनिल वैकल्पिक जनसंस्कृति का निर्माण करनेवाले ऐसे महान रचनाकार हैं, जिन्होंने लिखने और जीने के प्रश्न को एक साथ लिया. व्यावसायिक लाभ के लिए गैरजनवादी प्रवृत्ति को प्रश्रय देनेवाली पत्रिकाओं में कुछ नहीं लिखा. लघु पत्रिका आंदोलन के जरिये वैकल्पिक मीडिया के निर्माण की कोशिशों को उनकी सृजनात्मक ऊर्जा का जबर्दस्त सहारा मिला. विजेंद्र अनिल ने सत्ता के केंद्रों की ओर नहीं देखा, चाहे वह दिल्ली में हो या पटना में. लेखन के शुरुआती दशक में ही उन्होंने अपने गांव से प्रगति पत्रिका निकाल कर अपने मंसूबे का संकेत दे दिया था.
बिजेंद्र अनिल उन लेखकों में नहीं थे, जो सिर्फ दूर की क्रांतियों और जनसंघर्षों का गान करते हैं और अपने आसपास चल रहे आंदोलनों पर सायास चुप्पी साधे रहते हैं. उन्होंने लेखक के लिए फर्ज की कसौटी गढ़ दी कि वह न केवल न्याय, समानता, आजादी और लोकतंत्र के पक्ष में संघर्षरत ताकतों की आवाज को अनियंत्रित करे बल्कि उनकी लड़ाइयों में शामिल भी हो. बिजेंद्र अनिल ने विचार और कर्म के स्तर पर इसे खुद भी साबित किया. गांव में जो उन्होंने लेखक कलाकार मंच नामक संगठन बनाया था, उसका मकसद किसान मजदूरों और अनपढ़ गरीब लोगों की चेतना को उन्नत करना था. इसके कारण उन्हें इलाके के कुख्यात सामंत से टकराना पड़ा. उन्हें प्रलोभन दिये गये कि पैसे ले लो पर ऐसे गीत न लिखो, ऐसी संस्था न चलाओ. बाद में धमकियां भी मिलने लगीं और इनका हाथ तोड़ दिया गया. मगर इन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. 1980 में उन्होंने गांव में ही प्रेमचंद पर एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमे कफन, पूस की रात और सवा सेर गेहूं का उनके द्वारा किया गया भोजपुरी नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया गया. बिहार नव जनवादी मोरचा और जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में से एक हैं बिजेंद्र अनिल.

विगत वर्ष बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान समारोह में साहित्य में किसान विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि आजकल लेखक उसी को याद कर रहा है, जिससे उसकी रोजी-रोटी चलती है, जबकि उसे मेहनतकश वर्ग और उसकी समस्याओं को ठीक से जानना-समझना चाहिए, क्योंकि उसी के बल पर दुनिया को बदला जा सकता है. हल, बैल, माल-मवेशी, विस्फोट, आग, अमन चैन, फर्ज, नयी अदालत, अपनों के बीच जैसी कहानियां लिखनेवाले बिजेंद्र अनिल के उपरोक्त विचारों पर ध्यान देना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. अब ना सहिब हम गुलमिया तोहार चाहे भेजउ जेलिया हो, रउवा शासन के बडुए ना जवाब भाई जी, बदली जा देसवा के खाका, बलमु लेके ललका पताका हो जैसे जनगीतों के रचनाकार बिजेंद्र अनिल हमेशा जनता के संघर्षों के साथ रहेंगे. आइल बा वोट के जबाना हो, पिया मुखिया बन जा आज भी कितना प्रासंगिक लगता है. अस्पताल में मरीजों के प्रति संवेदनहीनता और लूट को महसूस कर उनका गीत लगातार जेहन में गूंजता रहा, केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार. बटमारों और लुटेरों की संस्कृति के खिलाफ ही उन्होंने अपनी रचनाएं लिखीं. शहीदों और आंदोलनकारियों की तरफ से लिखनेवालों को क्रांतिकारी सलाम भेजा.
आज उनकी स्मृति जोरदार तरीके से हमसे कह रही है कि मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना.

बिजेंद्र अनिल के गीत

सगरे बटमार
केकरा से करीं अरजिया हो, सगरे बटमार
राजा के देखनीं, सिपहिया के देखनीं
नेता के देखनीं, उपहिया के देखनीं
पइसा प सभकर मरजिया हो, सगरे बटमार
देखनी कलट्टर के, जजो के देखनीं
राजो के देखनीं आ लाजो के देखनीं
कमवा बा सभकर फरजिया हो, सगरे बटमार
देस भइल बोफोर्स के तोप नियन सउदा
लोकतंत्र नाद भइल, संविधान हउदा
कइसे भरायी करजिया हो, सगरे बटमार
छप्पन गो छूरी से गरदन रेताइल
सांपन के दूध आउर लावा दिआइल
गाईं जा नयका तरजिया हो, सगरे बटमार
केकरा से करीं अरजिया हो, सगरे बटमार

बदलीं जा देसवा के खाका
बदलीं जा देसवा के खाका, बलमु लेई ललका पताका हो
खुरपी आ हंसुआ से कइनी इयारी
जिनमी भ सुनली मलिकवा के गारी
कबले बने के मुंहताका, बलमु लेई ललका पताका हो
ना चाहीं हमरा के कोठा-अटारी
ना चाहीं मलमल आ सिलिक के साड़ी
बन करअ दिल्ली के नाका, बलमु लेई ललका पताका हो
राजा आ रानी के उड़े जहजिया
हमनी के के हू न सुने अरजिया
जाम करअ शासन के चाका, बलमु लेई ललका पताका हो
तू बनिजा सूरज, हम बनि जाइब लाली
तू बनि जा झरना, हम बनबि हरियाली
पंजा पअ फेंकीं जा छाका, बलमु लेइ ललका पताका हो
बदली जा देसवा के खाका, बलमु लेई ललका पताका हो

15.10.1984


आइल बा वोट के जबाना
आइल बा वोट के जबाना हो, पिया मुखिया बनि जा
दाल-चाउर खूब मिली, खूब मिली चीनी
फेल होई झरिया-धनबाद के कमीनी
पाकिट में रही खजाना हो, पिया मुखिया बनि जा
जेकरा के मन करी, रासन तू दीहअ
जेकरा से मन करी, घूस लेई लीहअ
हाथ में कचहरी आ थाना हो, पिया मुखिया बनि जा
तोहरा से बेसी के करेला सेवा
जिनिगीन ओढ़त रहल टाट आउर लेवा
कबो ना मिलल नीमन खाना हो, पिया मुखिया बनि जा
अहरा आ पोखरा के लीहअ तू ठीका
कीनि दीहअ हमरा के झुमका आ टीका
गावे के फिलिमी तराना हो, पिया मुखिया बनि जा
आइल बा वोट के जबाना हो, पिया मुखिया बनि जा

02.02.1978


केकर हअ ई देश अउर के काटत बड़ुए चानी

केकर जोतल, केकर बोअल
के काटेला खेत?
केकर माई पुआ पकावे
केकर चीकन पेट?
के मरि-मरि सोना उपजावे, के बनि जाला दानी?
ताजमल के कर सिरजल हअ
केकर हअ ई ताज?
केकर ह ई माल खजाना?
करत आजु के राज?
पांकी-कांदो में के बइठल, के सेवे रजधानी?
केकरा खून-पसेना से
लउकत बड़ुए हरियाली?
के सीमा पर खून बहावे
केकरा मुंह पर लाली?
केकर अमरित के घड़ा बनावे, के पीयेला पानी?
केकर हअ ई देस अउर के काटत बड़ुए चानी?
हाशिया से साभार

November 15, 2007

बटोहिया

सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवालवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहवां कुहुंकी कोइली बोले रे बटोहिया
पवन सुगंध मंद अमर गगनवां से
कामिनी बिरह-राग गावे रे बटोहिया
बिपिन अगम घन सघन बगन बीच
चंपक कुसुम रंग देबे रे बटोहिया
द्रुम बट पीपल कदंब नींब आम वॄ‌छ
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया
तोता तुती बोले रामा बोले भेंगरजवा से
पपिहा के पी-पी जिया साले रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे गंगा धार रे बटोहिया
गंगा रे जमुनवा के झगमग पनिया से
सरजू झमकी लहरावे रे बटोहिया
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि दिन
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया
उपर अनेक नदी उमडी घुमडी नाचे
जुगन के जदुआ जगावे रे बटोहिया
आगरा प्रयाग काशी दिल्ली कलकतवा से
मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखी आउ
जहां ऋषि चारो बेद गावे रे बटोहिया
सीता के बीमल जस राम जस कॄष्ण जस
मोरे बाप-दादा के कहानी रे बटोहिया
ब्यास बालमीक ऋषि गौतम कपीलदेव
सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया
रामानुज-रामानंद न्यारी-प्यारी रूपकला
ब्रह्म सुख बन के भंवर रे बटोहिया
नानक कबीर गौर संकर श्रीरामकॄष्ण
अलख के गतिया बतावे रे बटोहिया
बिद्यापति कालीदास सूर जयदेव कवि
तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया
जाउ-जाउ भैया रे बटोही हिंद देखि आउ
जहां सुख झूले धान खेत रे बटोहिया
बुद्धदेव पॄथु बिक्रमा्रजुन सिवाजी के
फिरि-फिरि हिय सुध आवे रे बटोहिया
अपर प्रदेस देस सुभग सुघर बेस
मोरे हिंद जग के निचोड रे बटोहिया
सुंदर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेही
जन रघुबीर सिर नावे रे बटोहिया

November 13, 2007

उहां मेम लाेग बडी मजेदार सजनी

उहां मेम लाेग बडी मजेदार सजनी
पहिरे कपडा त लउके उघार सजनी
सेठ नाचघर बनवावे रंगदार सजनी
साहब मेम के नचावे पुचकार सजनी
करे नाचे के अजादी के परचार सजनी