March 5, 2011

लोकरस के धार की असल सूत्रधार थीं वह


                                पांच मार्च को पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी की जयंती पर विशेष
निराला
आज के कुछेक, विशेषकर भोजपुरी लोकगीत गायक-गायिकाओं से समय-समय पर बात-मुलाकात होती है. अधिकतर जो इस क्षेत्र में नये-नवेले आये हैं, वे बेतरतीब आग्रहों के साथ बताते हैं कि बस! फलां अलबम आ जाये तो छा जायेंगे. जो इस क्षेत्र में खुर्राट हो चुके हैं उनका भी अमूमन जवाब होता है- फलां अलबम आ रहा है न...! गाना गा भर लेना, अलबमों की संख्या अधिक से अधिक बढ़ा लेना, अधिक से अधिक कार्यक्रमों को अपने पाले में कर लेना, यही पड़ाव और प्रस्थान बिंदु की तरह हो गया है. ऐसे में विंध्यवासिनी से हुई इकलौती मुलाकात बार-बार याद आती है. अब के समय में उनके व्यक्तित्व, कृतित्व को याद करना कल्पनालोक में विचरने-सा लगता है.
18 फरवरी 2006 का वह दिन याद आता है. उस रोज दुपहरिया का समय था. पटना के कंकड़बाग मोहल्ले के वकील साहब की हवेली में उनसे मिलने पहुंचा था. नहीं मालूम था कि यह मुलाकात इकलौती और आखिरी मुलाकात साबित होगी. तब उम्र के 86वें साल में बिहार की स्वर कोकिला विंध्यवासिनी कई बीमारियों की जकड़न में थी. न ठीक से बैठने की स्थिति थी, न बोलने-बतियाने की ताकत. लेकिन बच्चों जैसी उमंग, उत्साह लिये सामने आयीं. गरजे-बरसे रे बदरवा, हरि मधुबनवा छाया रे..., हमसे राजा बिदेसी जन बोल..., हम साड़ी ना पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा द... जैसे कई गीतों को सुनानेे लगीं. तन एकदम साथ नहीं दे रहा था, गले को बार-बार पानी से तर करतीं लेकिन मन और मिजाज ऐसा कि मना करने पर भी रूक नहीं रही थीं. एक के बाद एक गीत सुनाते गयीं. दरअसल, लोक संगीत की लोक देवी विंध्यवासिनी ऐसी ही थीं. अपने रोम-रोम में लोकसंगीत को जिंदगी की आखिरी बेला तक रचाये-बसाये रहीं. जिन दिनों कैसेट, सीडी, रिकार्ड का चलन नहीं था, उस दौर में रेडियो के सहारे विंध्यवासिनी बिहार के लोकजुबान और दिलों पर राज करती थीं. वह सिर्फ गा भर नहीं रही थी, उसी दौरान लोक रामायण की रचना भी कर रही थीं, ऋतुरंग जैसे गीतिका काव्य भी रच रही थी. पटना में विंध्य कला केंद्र के माध्यम से कई-कई विंध्यवासिनी को तैयार कर रही थीं.
पांच मार्च 1920 को मुजफ्फरपुर में जन्मीं थीं विंध्यवासिनी. आजादी से पहले का समय था. तब की परिस्थितियों के अनुसार इतना आसान नहीं था कि वह गीत-गवनई की दुनिया में आयें. सामाजिक और पारिवारिक बंदिशें उन्हें इस बात का इजाजत नहीं देती थीं लेकिन संयोग देखिए कि बचपने से ही संगीत के सपनों के साथ जीनेवाली विंध्यवासिनी को शादी के बाद उनके पति सहदेवेश्वर चंद्र वर्मा ने ही प्रथम गुरू, मेंटर और मार्गदर्शक की भूमिका निभाकर बिहार में लोकक्रांति के लिए संभावनाओं के द्वार खोलें. स्व. वर्मा खुद पारसी थियेटरों के जाने-माने निर्देशक हुआ करते थे. विंध्यवासिनी को संगीत नाटक अकादमी सम्मान, पद्मश्री सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, देवी अहिल्या बाई सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान आदि मिलें. विंध्यवासिनी कहती थीं कि इन सबसे कभी किसी कलाकार का आकलन नहीं होगा. न ही सीडी-रिकार्ड आदि से, जिसकी उम्र बहुत कम होती है. जो पारंपरिकता को बचाये-बनाये रखने और बढ़ाने के लिए काम करेगा, दुनिया उसे ही याद करेगी. विंध्यवासिनी उसी के लिए आखिरी समय तक काम करते रहीं. वह भी एक किसी एक भाषा, बोली को पकड़कर नहीं बल्कि जितने अधिकार से वे मैथिली गीतों को गाती-रचती थीं, वही अधिकार उन्हें भोजपुरी में भी प्राप्त था. डिजिटल डोक्यूमेंटेशन के पाॅपूलर फाॅर्मेट में जाये ंतो विंध्यवासिनी ने दो मैथिली फिल्मों- भैया और कन्यादान में गीत गाये, छठी मईया की महिमा हिंदी अलबम तैयार किये तथा डाक्टर बाबू में पाश्र्व गायन-लेखन किये लेकिन इस कोकिला की कूक अब भी बिहार के लोकमानस में गहराई से रची-बसी है. आजादी के पहले से लेकर उसके बाद के कालखंड में विंध्यवासिनी ने ही पहली बार महिला कलाकारों के लिए एक लीक तैयार की थी , जिस पर चलकर आज महिला लोकसंगीत कलाकारों की बड़ी फौज सामने दिखती है, भले ही भटकाव ज्यादा है, मौलिकता नगण्य...

February 17, 2011

25 साल पहले का बिहार, 25 साल पहले की एक फिल्म


 निराला
कोई फिल्मी लटका-झटका, न ही खुशी-गम, प्रेम-प्यार-इश्क-मोहब्बत का रोनी धुन. गीत-संगीत का जलवा भी नहीं कि जुबान पर चढ़ जाये और लोगों को सिनेमा हाॅल तक पहुंचा दे. 25 साल पहले बिहार की धरती पर, बिहार की समस्या को लेकर, बिहारी गंवई मुहावरे से लवरेज एक ऐसी ही फिल्म बनी थी.फिल्म का नाम था-दामुल. उस जमाने में दो बिहारियों की परिकल्पना मायावी परदे पर उतरी थी लेकिन मायाजाल कहीं नहीं था. एक थे शैवाल जो अपनी लेखनी से एक साधारण-सी कहानी का फलक विस्तारित करते हुए एक गांव के प्लाॅट में देश-दुनिया के सिस्टम को स्थापित करने में लगे हुए थे तो दूसरे थे प्रकाश झा, जो बाॅलीवुड के बने-बनाये तमाम फाॅर्मूले को एक झटके में ध्वस्त कर रहे थे. बाजार को झुठलाकर एक नया फाॅर्मूला गढ़ रहे थे. प्रकाश झा बिहारशरीफ दंगे पर एक डोक्यूमेंट्री फिल्म तथा हिप-हिप-हुर्रें जैसी फिल्म बना लेने के बाद भी बिहार में मजबूत कथानक की तलाश कर रहे थे. शैवाल और प्रकाश झा जैसे दो ठेठ समझ वाले बिहारी मिले, तो ‘दामुल’ नाम से फिल्म बनी. तकनीकी रूप से साल 1984 के आखिरी दिन यह फिल्म रीलिज हुई लेकिन व्यावहारिक तौर पर 1985 की फिल्म थी. बिहार के एक गांव की समस्या पर बनी फिल्म में पूरी हिंदी पट्टी ने अपने गांव की समस्या को तलाशना शुरू किया, देश भर के सिनेप्रेमी, समीक्षक और सिनेमा के पंडित हैरत में पड़ गये कि भला ऐसी फिल्म भी बन सकती है और तब बड़े-बडे समीक्षकों ने सार्वजनिक तौर पर लिखंत में यह घोषणा की कि हिंदी पट्टी की समस्या पर, हिंदी भाषा में, हिंदी वालों के द्वारा बनी यह भारत की पहली फिल्म है. फिल्म के कहानीकार शैवाल बताते हैं कि तब नेशनल फिल्म अवार्ड की बारी आयी तो अरविंदम की मलयालम फिल्म ‘मुखा मुखम’, सत्यजीत रे की ‘घरे बाहिरे’ और गौतम घोष की ‘पार’ जैसी फिल्मों को रेस में पछाड़कर ‘ दामुल’ ने अपना स्थान बनाया. लेकिन कहते हैं न कि वक्त के बदलाव के साथ सबकुछ बदल जाता है. रीतियां, नीतियां, पद्धतियां, प्रणालियां, महत्व, मान्यतायें... सब. 25 साल में बिहार ने वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. प्रकाश झा ने भी वैसे ही बदलाव के दौर को पार किया. बकौल मुंबई के फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्ामत्मज, प्रकाश झा की फिल्मों में अब वैसी राजनीतिक आवाज नहीं सुनायी पड़ती, जैसी कि दामुल में थी या उसके बाद मृत्युदंड में. जो दामुल को देखेगा, वह यह कहेगा कि प्रकाश झा की पकड़ बिहार के विषयों पर कमजोर हुई या फिर साहस में कमी आयी है. मशहूर व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम कहते हैं कि ‘ दामुल’ निश्चित तौर पर अपने समय की बेहतरीन फिल्म थी और एक लिहाज से हिंदी पट्टी की समस्या पर उस तरह कीदूसरी फिल्म उस माहौल को दिखाते हुए नहीं बनी लेकिन अब इतने साल बाद उसके सिक्वल की गुंजाइश है और उसके रिमेकिंग की भी. दामुल एक इतिहास बन गया. अब नयी पीढ़ी के बीच प्रकाश झा की पहचान ‘ अपहरण’,‘ राजनीति’ जैसी फिल्मों के माध्यम से है. बिहार को अब देखने-समझने वाले नौजवान दामुल देखें तो रोम-रोम में सिहरन पैदा हो जाएगी कि क्या ऐसा भी होता था. लेकिन बिहार ने पिछले तीन दशक में कैसे करवट लिया है इसे समझने के लिए लोक के बीच सबसे पाॅपूलर विधा सिनेमा के जरिये यदि महसूसना हो तो ‘ दामुल’ को देखा जा सकता है. कहा जाता है कि बिहार की सामाजिक और राजनतिक धारा जाति के खोल में बंधी रहती है. बिहार नक्सलियों के आंदोलन के कारण भी काफी चरचे में रहा. जातीय नरसंहार के लिए भी यहां की धरती काफी उर्वरा रही. अब यह भी सुनने को मिलता है कि सब बिते दिनों की बात हुई. बिहार में विकास की राजनीति को अब मुख्यधारा की राजनीति माना जा रहा है. सच शायद इतना भर नहीं है. बिहार में कई ऐसे कोने हैं, जो आज भी सिसक रहे हैं. उस स्थिति की कल्पना से रोम-रोम में सिहरन पैदा हो सकती है. और यदि 25 साल पहले के बिहार के एक हिस्से को महसूसना हो तो इसे मंुहामुंही सुनने की बजाय जीवंत चित्रण के साथ एक फिल्म को देखकर समझा जा सकता है.


दामुल: साधारण कहानी, असाधारण संवाद


 गांव के ठेठ मुहावरों के साथ देसी छौंके का प्रयोग है फिल्म की जान
यह थी कहानीः
गांव का एक मुखिया है माधो पांड़े. ब्राह्मण जाति का. उसका छोटा भाई है राधो. मुखिया के राजनीतिक दुश्मन हैं राजपूत जाति के बच्चा बाबू. माधो पांडे़ का जीतना बच्चा बाबू को गंवारा नहीं. चुनाव का समय आने पर बच्चा बाबू खुद न खड़ा होकर हरिजन जाति के गोकुल को माधो के मुकाबले का उम्मीदवार बनाते हैं. यह खबर लगते ही माधो पांड़े के सिपहसलार  दलित जाति को कब्जे में रखने के लिए दलित जाति के ही बंधुआ मजदूर पुनाई चमार को हथियार-असलहा लाने के लिए भेजते हैं. लेकिन इस बात की भनक मुखिया माधो के भाई राधो को लग जाती है कि हथियार लेकर आने के बाद पुनाई हरिजन टोला में जा सकता है, लठैत पुनाई को मार देते हैं चुनाव में हरिजन टोला के लोग बंधक बना दिये जाते हैं. माधो फिर चुनाव जीतता है. पुनाई को मारने के बाद माधो मुखिया के लठैत उसके खेतों से फसल काटने लगते हैं. संजीवना को बताया जाता है कि उसके बाप पुनाई ने जो करजा लिया था, उसके एवज में फसल काट रहे हैं. मुखिया संजीवना से सादे कागज पर अंगूठा लगवा लेते हैं. संजीवना कर्ज वापसी के वादे के साथ घर चला जाता है. उसी रात गांव में संेधमारी कर एक घर में चोरी होती है. आरोप संजीवना पर लगाया जाता है जबकि चोरी वाले रात संजीवना बुखार के मारे घर में तड़पता होता है..मुखिया पुलिस से बचाने के एवज में संजीवना से इलाके में जाकर पशुओं की चेारी करने के लिए विवश कर देता है. माधो मुखिया की नजर गांव के ही एक बाल विधवा महत्माईन के देह और खेत दोनों पर रहती है. दूसरी ओर गरीबी से तंग गांव के दलित पंजाब जाने की तैयारी करते हैं. हरिजन मजदूरों के जाने से राधो का काम गड़बड़ा जाता क्योंकि वह इन्हीं मजदूरों का शोषण कर ठेकेदारी में कमाता था. रास्ते में पलायन करनेवाले मजदूरों को मारा जाता है. उनकी बस्ती जला दी जाती है. मामला यह बनाया गया कि दूसरे गांव के डकैतों से भिंड़ने में मारे गये. संजीवना और महत्माईन राधो के इस कारनामे के खिलाफ मंुह खोलते हैं. मुखिया महत्माईन को मरवा डालता है और उस हत्या में संजीवना को फंसा देता है.यह सब खेल करने के पहले माधो मुखिया और बच्चा बाबू एक हो जाते हैं. बच्चा बाबू को हरिजनों को भ्रम का पाठ पढ़ाने के बदले में महत्माईन की जमीन देने का वादा माधो मुखिया करते हैं. संजीवना को फांसी की सजा होती है. माधो मुखिया सब करने के बाद एक शाम चैपाल में अलाव ताप रहे होते है तभी संजीवना की पत्नी रजूली गंड़ासे से मुखिया पर प्रहार करती है. माधो का सिर धड़ से अलग हो जाता है.
संवादों की बानगी
-तड़प रहा है रजपूतवा. अरे एक अंडा भी आ जाये बस्ती से भोट देने त पेसाब कर दीजिएगा हमरे मोछ पर मालिक.
- अगर माधो पांड़े का सतरंगा खेल जानोगे तो तरवा से पसेना निकलेगा, पसेना...
- चमार को भोट देने के लिए कहियेगा बच्चा बाबू तो ई तो सुअर के गुलाबजल से नहवावे वाला बात हुआ न! एक बेर किलियर बेरेन से सोच लीजिए बच्चा बाबू.
- बेरेन तो आपलोगों का मारा गया है. अरे गोकुलवा को खड़ा कउन किया है? हम. जितायेगा कउन? हम. तो राज का करेगा चमार. आपलोग समझिये नहीं रहे हैं. बाभन के राज को खत्म करने के लिए ईहे आखिरी पोलटिस बच गया है.
- अब जरा परची बना द हो दामु बाबू, कउवा बोले से पहिले लउटना है.
- चेहरा एकदम पीयर- कल्हार हुआ है. का बात है, बीमार-उमार थी का?
- जनावर के ब्यौपार में कउनो झंझट नहीं है.
- बड़ी तफलीक में है हमरा साला.
- बस कर रे रंडी,छू लिया तो हमरा स्नान करना पड़ेगा. अरे चलो भागो इहां से, का हो रहा है इहां, रंडी के नाच!
- मुंहझउंसा, अभी त लउटा है.
- काम तो उहां बदनफाड़ है मालिक लेकिन पइसा भी खूबे मिलता है पंजाब में. दिन भर में एक टैम भोजन अउर दस गो रुपइया.
- ए माधो पांड़े, छोड़ो लल्लो-चप्पो का बात. जबान का चाकू ना चलाओ. डायरेक्ट प्वाइंट पर आओ.
- महत्माईन बड़ा उड़ रही है रून्नू बाबू.
- संजीवना रे संजीवना, तू मुखियवा को काट के दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे संजीवना...

काश! ‘दामुल के रास्ते चलता बाॅलीवुड लेकिन वह तो सपना दिखानेवाला संसार रचने में ही लगा रहा


दामुल फिल्म के २५ साल पुरे होने पर लेखक शैवाल से निराला की बातचीत 

- 25 साल पहले लौटकर जब आप अपनी ही फिल्म ‘दामुल’ को देखते हैं तो अब कैसा लगता है.
- खुशी होती है, गम भी होता है. खुशी इस बात की कि समस्या को केंद्र में रखकर बिल्कुल आम आदमी की जबान में हिंदी में पहली बार ऐसी फिल्म बन गयी. अफसोस इस बात का होता है कि उसके बाद बाॅलीवुड दामुल के रास्ते चलने का साहस  नहीं जुटा सका. मैं मानता हूं कि यदि बाॅलीवुड ‘दामुल’ के रास्ते चलता तो आज फिल्मों का परिदृश्य कुछ और होता.
- क्यों नहीं चल सका बाॅलीवुड उस रास्ते पर, कोई वजह तो होगी? हिंदी में वैसी फिल्मों का दर्शक वर्ग भी है क्या?
- बाॅलीवुड के लिए यही तो सबसे बड़ी विडंबना है कि हिंदी के प्रतिबद्ध दर्शकों का समूह अब तक तैयार नहीं हो सका है. हिंदी सिनेमा ने सपने दिखलानेवाला संसार रचने का काम ही प्रमुखता से किया. दर्शक वर्ग है क्यों नहीं? आखिर रोटी या दो आंखें-बारह हाथ जैसी फिल्में हिंदी में ही बनती थी, खूब चलती थी तो दर्शक वर्ग तो था ही न! लेकिन अब समय के साथ जो बदलाव हुए हैं, उसमें बड़ा फर्क यह आया है कि जिसके पास पैसा है, उन्हें गांव और गांव की समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं.
- ‘दामुल’ जमींदारी, सामंती व्यवस्था से त्रस्त समाज की कहानी है. अब वैसी व्यवस्था बिते दिन की बात हुई तो उसकी प्रासंगिकता कितनी है?
- बिल्कुल प्रासंगिकता है. मैं तो यह कहता हूं कि प्रासंगिकता और बढ़ गयी है. क्या बदल गया है, मानसिकता में बदलाव हुआ क्या. पहले जमींदार थे, सामंत थे वे दूसरे आवरण के साथ ठेकेदार-नेता और कारपोरेट्स बन गये हैं. अब जो मुखिया चुने जा रहे हैं, क्या उनका अपना आतंक नहीं है. देखिए तो उनकी जीवन शैली को बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर चलते हैं, कहां से आ रहा है पैसा? दामुल में हमने पनहा व्यवस्था को उठाया है यानि जानवरों को चुराकर उसके एवज में पैसे की मांग करना. अब आदमी का अपहरण हो रहा है और पनहा की जगह फिरौती मांगी जाती है. पूरे हिंदुस्तान में मानसिकता में बहुत बदलाव नहीं हुआ है. दामुल के वक्त भी पुलिस और कानून व्यवस्था भ्रष्ट थी, पहुंच वाले लोगों का साथ देती थी. व्यवस्था अब भ्रष्टतम रूप में है और रसूख वालों का अब भी कुछ नहीं बिगड़ता.
- ‘दामुल’ फिल्म की कहानी लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
- दरअसल मेरे साहित्यिक जीवन में मेरा कोई गुरु नहीं बल्कि जहानाबाद जिला और वहां के अति पिछड़ा घोसी ब्लाॅक के लोगों को, परिवेश को ही मैं अपना गुरू मानता हूं. मैं सरकारी नौकरी में सबसे ज्यादा दिन 1972-80 तक उसी इलाके में रहा. उन दिनों ‘रविवार’ पत्रिका में गांव काॅलम लिखा करता था. मैंने इस इलाके से एक रिपोर्ट लिखी-जमींदारों द्वारा जानवरों की चोरी करवाने की व्यवस्था यानि पनहा सिस्टम पर. देश भर से प्रतिक्रिया मिली. बाद में मैंने उसी रिपोर्ट को एक्सटेंड कर ‘ कालसूत्र’ नाम से कहानी लिखी तो हिंदी जगत में उसे नोटिस लिया गया. प्रकाश झा उन दिनों संघर्ष कर रहे थे. बिहारशरीफ में दंगा छिड़ा तो उस पर डोक्यूमेंट्री बनाने के लिए प्रकाश झा यहां आये. उन्होंने ‘फेसेज आफ्टर द स्टाॅर्म’ नाम से डोक्यूमेंट्री बनाने के क्रम में मुझसे संपर्क किया. तब मैंने बिहारशरीफ दंगे पर कुछ कविताएं लिखी थीं. प्रकाश झा ने अपने डोक्यूमेंट्री में उन कविताओं के इस्तेमाल की इजाजत मांगी. हमारे संबंध बने.उसके बाद प्रकाश झा ने ‘कालसूत्र’ पर फिल्म बनाने की बात मुझसे कही और यह भी कहा  िकइस पूरी कहानी को मैं आपके नजरिये से देखना चाहता हूं. मैंने स्क्रिप्ट पर काम शुरू किया. फिर जो फिल्म बन ीवह तो सबके सामने आयी ही.
- क्या फिर दामुल जैसी कहानी लिखने को किसी ने कहा आपसे...?
- किसी ने नहीं कहा.
- प्रकाश झा ने तो ‘दामुल’ के बाद ‘मृत्युदंड’ जैसी फिल्म बनायी तो फिर कहानी आपकी ही रही. फिर यह चर्चित जोड़ी रीपीट नहीं हो सकी...?
 मृत्युदंड के समय ही कुछ तकनीकी बातों पर हमारे रास्ते अलग हो गये. और फिर मैंने कभी कोशिश भी तो नहीं की उनसे जुड़ने की. दरअसल, हम दोनों में एक बड़ा फर्क है- प्रकाश झा कहते हैं मार्केट ओरिएंटेड होना होगा और मैं वह कभी हो नहीं सकता. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमारे व्यक्तिगत संबंधों पर इसका असर पड़ा है. हम सामाजिक सरोकार के फ्रंट पर अलग हैं, व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है.
- ‘ दामुल’ ने समग्रता में अपनी पहचान छोड़ी थी. कहानी, प्रस्तुति, संवाद, लोकेशंस एंड काॅस्ट्यूम... आपको सबसे ज्यादा क्या पसंद आयी थी.
- फिल्म का प्रयोगशील निर्देशन और रघुनाथ सेठ का बैकग्राउंड म्यूजिक. वह पूरे फिल्म को बांधकर रखता है. बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को किस तरह एक नया आयाम दे सकता है, उसे दामुल में देख सकते हैं.
- आपके अनुसार ‘दामुल’ में सबसे अहम दृश्य...
- जब नायक संजीवना की पत्नी रजुली मुखिया को मारने गंड़ासा लेकर पहुंचती है, मारते हुए चिल्लाती है, वह दृश्य. दलित मानवता की न्याय यात्रा है उस दृश्य में. और फिर यह संदेश भी कि स़्त्री कोमल स्वभाव की होती है लेकिन समाज के केंद्र में वही होती है, प्रतिशोध वही कर सकती है.
- उस फिल्म से जुड़ी हुई कुछ यादें, जो अब भी जेहन में जीवंतता के साथ मौजूद हो.
 कई यादें हैं. उस फिल्म में लौंडा नाच करते हुए जिन दो नचनियों को दिखाया गया है, वे बेतिया-मोतिहारी के रहनेवाले थे. उनकी फोटोग्राफी होनी थी. कई बार मैं समझाता रहा कि मिनट भर के लिए स्थिर खड़े रहो लेकिन दोनों नहीं रह सके, कमर हिला ही देते थे. और फिर फिल्म में ताड़ीखाने का दृश्य, जिसे समझाने के लिए प्रकाश झा ने कहा कि आप खुद समझाइये कि ताड़ीखाना का माहौल कैसा रहता है, क्योंकि आपका अनुभव है.
- तो क्या दूसरे ‘ दामुल’ की उम्मीद शैवाल से अब भी की जा सकती है?
 दूसरे ‘दामुल’ की बात तो नहीं करूंगा लेकिन एक दशक को यदि एक कालखंड माने तो बिहार में दामुल के बाद तीन कालखंड गुजर गये और उन तीनों कालखंड पर फिल्म बननी चाहिए. उसके लिए कहानी लिख चुका हूं. उम्मीद कीजिए कि निकट भविष्य में उसे परदे पर भी देखेंगे. पहला ‘दास कैपिटल’ है, जो निम्न मध्यवर्ग की त्रासदी को बयां करेगी और ब्यूरोक्रैसी पर व्यंग्य भी करेगी.

                                                                      यह बातचीत तहलका हिंदी के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है.

‘‘ बुद्धिजीवियों और शुद्धतावादियों को सक्सेस चीजें बर्दाश्त नहीं होती’’ं



‘ दामुल’ फिल्म के 25 साल पूरे होने पर निर्देशक प्रकाश झा से निराला की बातचीत

 आपकी पहली चर्चित, सफल व यादगार फिल्म ‘दामुल’ के 25 साल पूरे हो गये. अब के परिवेश में ‘दामुल’ की प्रासंगिकता को कैसे आंकते हैं आप?
प्रकाश झा- इतने वर्षों में सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित हो चुकी है. अब जमींदार और मजदूरों के बीच रिश्ते वैसे नहीं रहे, जो दामुल के दौर में थे. बिहार संकीर्ण पगडंडियों से निकलकर अब विकास के रास्ते पर है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के नेतृत्व में बहुत कुछ बदल चुका है, बदल रहा है. लोकतांत्रिक बदलाव भी हुए हैं. पिछड़ी जातियों का सशक्तिकरण हुआ है, हो रहा है. तो अब ऐसे समय मंे ‘ दामुल’ जैसी फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती.
- लेकिन उसके ‘सिक्वल’ या ‘रिमेक’ की गुंजाइश तो बचती-बनती है....!
प्रकाश झाः- मैं कर क्या रहा हूं? दामुल के बाद उसकी सिक्वल ही तो बनाता रहा. जमींदार की जगह ठेकेदार आये, ठेकेदार की जगह नेता आये, सबको तो समेटते रहा अपनी फिल्मों में. आप देखिए दामुल के बाद आयी फिल्म मृत्युदंड को या उसके बाद गंगाजल, अपहरण या हालिया फिल्म राजनीति को, सभी एक-दूसरे के सिक्वल में ही तो है. स्थितियों, चरित्रों, मूल्यों में जैसे-जैसे बदलाव हुए, उसी रूप में फिल्मों के विषय, पात्र बदलते गये और अपने फिल्मों को बदलाव के साथ कदमताल करवाने की कोशिश मैंने हरसंभव की.
आप पोलिटिकल फिल्मों को बनाने के लिए जाने जाते हैं. कुछ समीक्षक और विशेषज्ञ कहते हैं कि ‘ दामुल’ की तरह पोलिटिकल फिल्म फिर आप नहीं बना सके....?
प्रकाश झाः- आप बुद्धिजीवियों की बात नहीं कीजिए. आमलोगों और सामान्य तौर पर सजग दर्शकों से बात कीजिए, उनसे पूछिए कि उन्हें गंगाजल, अपहरण, मृत्युदंड या राजनीति पावरफुल पोलिटिकल फिल्म लगती है या नहीं. दरअसल बुद्धिजीवियों और शुद्धतावादियों को काॅमर्शियली सफल चीजें बर्दाश्त नहीं होतीं. ऐसा होने पर वे सब सत्यानाश करने पर पड़ जाते हैं. ‘ दामुल’ अपनी जगह पर, समय-देस-काल-परिस्थिति के अनुसार बेहतर फिल्म है, इससे कहां इंकार है.
... तो एक समय में बाजार के ग्रामर को झुठलाने और बदल देने वाले प्रकाश झा भी अब मानते हैं कि मार्केट फैक्टर एक अनिवार्य और सबसे महत्वपूर्ण शर्त है?
प्रकाश झाः- बिल्कुल. आप मार्केट फैैक्टर को नहीं समझेंगे, उसके साथ नहीं चल सकेंगे तो आपकी क्रीयेटिविटी बचने-बनने या बढ़ने की बात क्या, जिंदा भी नहीं बच सकती. क्रीयेटिविटी को जिंदा रखने के लिए उसके साथ कदमताल करना होगा. और फिर सिर्फ फिल्मों को ही क्यों देख रहे हैं? क्या आज के समय में आप बाजार को समझे बगैर राजनीति कर सकते हैं? आज देखिए कि हमारे देश की संसद में यह बार-बार सफाई देनी पड़ रही है कि देश के प्रधानमंत्री ईमानदार छवि के हैं, उन्हें संदेह के नजरिये से न देखें. क्यों? ताकि देश की जनता यह न समझ बैठे कि पीएम भी ईमानदार नहीं है. ऐसा समय है अभी. उस दौर में हैं हम सब. मार्केट का इनफ्लुएंस इस तरह का है. कुछ समय के लिए छोड़ दीजिए इन बड़ी-बड़ी बातों को. आज के समय में शिक्षा का महत्व सबके बीच बढ़ा है, हर वर्ग के लिए वह जरूरी और महत्वपूर्ण होता जा रहा है लेकिन उस सेक्टर में क्या हालत है? दो दशक पहले की शैक्षणिक व्यवस्था की अभी कल्पना तक नहीं कर सकते. अब उसका भी प्राइमरी लेवल से ही मार्केट पैकेज तैयार हो रहा है. तब ऐसे में इंटरटेनमेंट के मार्केट फैक्टर और मार्केट पैकेज पर क्या बात करना, क्यों ऐतराज जताना!
25 साल पहले जब ‘दामुल’ फिल्म आयी तो उसे हिंदी में, हिंदीवालों के द्वारा, हिंदी पट्टी की समस्याओं को केंद्र में रखकर मौलिकता और गहराई से रेखांकित करनेवाला पहली फिल्म माना गया. इस लिहाज से या फिल्म को मिले सम्मान, फिल्म के प्रभाव, समग्रता में फिल्म निर्माण के तमाम पक्ष अथवा प्रयोगधर्मिता के आधार पर भी उसे ‘ दो बीघा जमीन’, ‘ पाथेर पंचाली’ या ‘ मदर इंडिया’ जैसी माइलस्टोन फिल्मों की श्रेणी में जगह क्यों नहीं मिल सकी?
प्रकाश झाः- आप जिसे हिंदी पट्टी कह रहे हैं या जो हिंदी इलाके वाले लोग हैं, उन्हें कई-कई बातों से बड़ी तकलीफ होती है. खैर... छोड़िये उन बातों को, बांग्ला, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम आदि भाषा-भाषियों का समाज सीमित होता है. हिंदी में यह मुश्किल है और इसका दायरा भी बहुत बड़ा और विविधता भरा है. हिंदीभाषी होते हुए भी आपस में ही क्षेत्रवाद के शिकार हैं. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद मैं यही कहना चाहूंगा कि ‘दामुल’ को जो भी मान-सम्मान मिला, जितना भी रिस्पांस मिला, वह अच्छा रहा. और फिर यह क्या कम है कि 25 सालों बाद आज आप उस फिल्म पर बात कर रहे हैं, उसे याद करने को सोच रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता तलाश रहे हैं.
                                                                       
                                                                       यह बातचीत तहलका हिंदी के हालिया अंक में प्रकाशित हुई  है. 



January 11, 2011

गावेला बलेस्सर अजमगढ़ के, जे बाटे मुंहफूंकना रे सजनी....

निराला
मुन्नी के बदनाम होने और झंडू बाम होने पर ठुमके लगते तो कई दिनों से शादी-ब्याह में या राह चलते देख-सुन ही रहा था, दो-ढाई माह पहले रांची से पटना की बस यात्रा में मुन्नी को बदनामी और झंडू बामी स्टाईल में देखने का भी मौका मिला. रांची से पटना की यात्रा डुप्लीकेट वोल्वो बस से कर रहा था. कई वजहों से उसे डूप्लीकेट वोल्वो कहा जाता है. एक प्रमुख वजह यह कि उसमें एसी के नाम पर सामान्य बसों से ज्यादा किराया लिया जाता है लेकिन बस चलने के बाद पूरी यात्रा एसी बंद कर तेल बचाने का गुणा-गणित लगाते हुए ड्राइवर इस कदर ठंडई मार स्टाइल में एसी चलता है कि पैसेंजरों को थोड़े ही देर में काठ मारने लगता है. फिर क्या, परेशान होकर पैसेंजर ‘बंद करो एसी-एसिया बंद करो रे... मुआएगा...’ की चिल्लाहट लिये ड्राइवर के पास पहुंचने लगते हैं. और फिर खलासी एक साथ सबको संदेशा सुना देता है कि ‘‘ आपलोग भी न, समझिये में नहीं आता है. अब इ नहीं कहियेगा कि एसी का भाड़ा लेके एसी नहीं चलायें, ओइसे खिड़की भी इसका खुलता है, वोल्वो जइसा नहीं है कि पैक है तो पैके रहेगा, चाहें तो खोल सकते हैं. खैर! बस यात्रा का बखान फिर कभी. पहले बदनाम मुन्नी को देखने और एक गीत का मुखड़ा सुना देने भर का दंश साझा करते हैं. मलाइका अरोड़ा खान मुन्नी बदनाम हुई पर जब ठुमका लगा रही थी तो गजब की मस्ती और आनंद में डूबे हुए थे लोग. कुछेक परिवार के साथ थे. अपने यहां परिवार की नयी परिभाषा चलन में है कि आप सपत्निक हों. और बाल बच्चे हों तो संपूर्ण परिवार. सपिरवार, सानंद मुन्नी छाप गीत सुनने के बाद ही संयोग से डीवीडी फंस गया. दबंग का शो बीच में ही बंद हुआ. मेरे साथ यात्रा कर रहे एक मित्र ने सोचा कि जरा आनंद को और बढ़ा दिया जाये, जब इतने आनंद से लोग सुन ही रहे हैं तो क्यों न कुछ और हो जाये. उसने अपने मोबाइल में फूल वोल्यूम कर ‘ निक लागे टिकुलिया गोरखपुर के...’ का सुर सधवा दिया. सपरिवार बैठे हुए एक सज्जन उठे. सीट तक आये और जोर से बोले, जरा भी तमीज नहीं है? शर्म नहीं आ रही, यहां परिवार के साथ लोग चल रहे हैं और तुमलोग बलेस्सरा को बजा रहे हो...! सच में, एक जरा भी गुस्सा नहीं आया उन पर, न तुम-ताम करने से, न नैतिकता का पाठ पढ़ाने से. मेरे साथी ने धीरे से टुनकी मारी- अरे मुन्निया बदनाम हो रही थी तो परिवार को आपत्ति नहीं थी, परिवार का खयाल नहीं था... इस टुनकी के बाद एक और सलाह सार्वजनिक तौर पर देते हुए वे अपने सीट तक गये कि पता नहीं अब आलतू-फालतू, चिरकुट लोग भी इ सब बस पर भी चलने लगा है. कउनो जगहे सेफ नहीं है. इस बार पिछले सीट से जवाब आया- अरे भाई, डुप्लीेकेट वोल्वो है तो कईसन आदमी खोज रहे हैं. ननडिस्टर्बिंग एलीमेंट 500 रुपइया ओला असली वोल्वो में जाते हैं. फिर पीछे सीट वाले उस यात्री ने कहा कि बजाइये जरा एक बार फिर बलेस्सर को...
दो-ढाई माह पहले का यह वाकया कल सुबह से बार-बार याद आ रहा है. परसो रात नौ बजे के बाद से ही बीएसएनएल मोबाइल फोन का नेटवर्क डिस्टर्ब चल रहा था. फोन का आना-जाना ठप था. सुबह जगते ही मोबाइल के मैसेज बाॅक्स में एक मैसेज पड़ा मिला- बालेश्वर तो नहीं रहे गुरू. बनारस से आये इस मैसेज को देखते ही मुझे बस यात्रा में सपरिवार चल रहे उन सज्जन का बलेस्सर की आवाज से भड़कना, दो साल पहले लखनउ में बलेस्सर से हुई मुलाकात और भोजपुरी समाज के सभ्य लोकरसियों का छद्म आवरण, एनडीटीवी इमेजिन तथा महुआ के एक कार्यक्रम की भी यादें ताजा हो गयी.
होश संभालने के बाद से ही जिस एक गायक को घरवालों से बच-बचाकर सुनने की मजबूरी रही थी, वह गायक बलेस्सर ही थे. बलेस्सर हमारे सभ्य भोजपुरी समाज के प्रतिबंधित गायक थे, जिन्हें सुनकर बच्चों के बिगड़ जाने की गुंजाइश रहती थी, परिवार और समाज का वातावरण बिगड़ जाने का भ्रम भी रहता था इसलिए उन्हें सुनने नहीं दिया जाता था. मोटका मुंगड़वा का होई..., तीन बजे आके जगइहे पतरकी सुतल रहब खरिहानी में... जैसे गीतों को गाने के बाद अश्लीलता के पर्याय माने जाने लगे थे बलेस्सर. बलेस्स्र सम-सामयिक चुनौतियों पर, मसलों पर गीत गाते रहे लेकिन कुंठित सेक्स को बढ़ावा देनेवाले गायक के रूप में स्थापित कर दिये गयेे. लेकिन अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की.वह अपने एक गीत का मुखड़ा हमेशा सुनाया करते थे- बलेस्सर मुंहफूंकना रे सजनी... बताया जाता है कि बलेस्सर को कई बार सार्वजनिक मंचों पर दुत्कारा गया लेकिन बलेस्सर ने कभी उसकी परवाह नहीं की. एक दफा की बात है कि जब रांची के मेकाॅन हाॅल में वे 70 या 80 के दशक में एक कार्यक्रम देने पहुंचे थे तो उन्हें गालियां दे-देकर मंच से उतार दिया गया था. इसी तरह एक दफा दिल्ली में कोई भोजपुरी सम्मेलन हुआ और रात में बलेस्सर मंच पर गाने आये तो उन्हें काफी गालियां दी गयीं कि यह बरबाद कर रहा है, इसे अब कभी मंच नहीं देना है. लेकिन जैसे-जैसे सभ्य भोजपुरी समाज उन पर बंदिशें लगाता गया बलेस्सर उसी तेजी से उनके बीच पाॅप्लूयर भी होते गये. बलेस्सर को लोग मंच से बेदखल कर भोजपुरी में अश्लीलता को हटाना चाहते थे. बलेस्सर ने खुद ही इन मंचों से अपने को किनारा कर लिया था. एक समय में मंचों पर छाये रहने वाले बलेस्सर नेपथ्य में चले गये लेकिन रई-रई मार स्टाइल और ओ हो हो हो, आई हो दादा का छौंका मार गीतों को सुनने वालों की तादाद बढ़ती गयी. बलेस्सर संभवतः पहले पाॅप्यूलर भोजपुरी लोक गायक हुए, जिन्हें भोजपुरी भाषी देशों में चाव से सुनने के लिए बार-बार बुलाया जाने लगा था. बलेस्सर पहले गायक हुए, जिन्होंने भोजपुरी भाषी लाखों मजदूरों की सेक्सुअल कंुठा को अपने गीतों के माध्यम से शांत किया. ये वैसे मजदूर थे, जो रोजी-रोटी के चक्कर में दिल्ली, लुधियाना, बंबई आदि स्थानों पर जाते थे और दिन भर की थकान के बाद शाम को जब अपने आवास पर लौटते तो सारी थकान मिटाने, कुंठा को खत्म करने का काम बलेस्सर के गीतों के माध्यम से करते थे. दो साल पहले लखनउ में बलेस्सर से हुई पहली और आखिरी मुलाकात में उन्होंने बड़े प्यार से कुछ बातें समझायी थी. बलेस्सर ने कहा था- मैं आजमगढ़ का रहनेवाला सामान्य सा एक बिरहा गायक हूं. अपनी गायकी को लेकर कभी द्वंद्व में नहीं रहता, ना रहना चाहता हूं कि नवरात्रा आये तो जरा माई का भजन गाकर भी खुद को लोकप्रिय कर लूं, सावन का महीना आये तो जरा बम भोले के गीतों पर भी सुर लगा लूं और जब होली आये तो साया-चोली का बाजूबंद खोलने में लग जाउं. मैं वही गाता हूं, जो सच है. सच यही है कि लोक का मिजाज यथार्थ में जीता है, वह अपने जीवन की सच्चाई को, जीवन की मस्ती को, जीवन की आकांक्षा को लोकगीतों में तलाशता है. हमारे भोजपुरी समाज में एक बड़ा वर्ग कुंठित सेक्स की आकांक्षा के साथ अपने घर-परिवार से अलग रहता है. अगर वैसे लोगों की कुंठा को मेरे गीतों से शांति मिलती है तो समझिये कि मैं वही कर रहा हूं. बलेस्सर ने यह भी कहा था कि मुझे समझ में नहीं आता कि सभ्य समाज मुझे सुधारने में क्यों लगा रहता है. मैं ऐसा ही गायक हूं, यह क्यों नहीं स्वीकार लेते सब. लोगों को परेशानी है तो मेरे गीत ना सुनें और यदि सुधारना है तो उनको भी मारने-पिटने का साहस जुटायें, मंच से बेदखल करने का साहस जुटाये या उन बाल कलाकारों को ही सुधारने की कोशिश करें ंजो अपने गीतों के माध्यम से वे सारे कुकर्म करवाते हैं, जिस पर अश्लील आदमी भी बात करने से बचता है. बलेस्सर का इशारा वैसे गीतों की ओर था, जिसके माध्यम से चोली का हूक लगाने, जिंस को ढिला करने और तमाम तरह का प्रपंच करने में है. बहुत अनुरोध करने के बाद बलेस्सर ने एक गीत का मुखड़ा रई-रई मार स्टाईल के साथ सुनाया था- बुढ़ापे का सहारा लाठी डंडा चाहिए, जवानी में लवंडी को लवंडा चाहिए...
आज फिर बलेस्सर की मृत्यु के बाद सुबह से कई भोजपुरी गायकों, गायिकाओं और लोकसंगीत के कई रसिकों से फोन पर बात की.मैं बलेस्सर के बारे में अधिक से अधिक जानने के खयाल से फोन कर रहा था, जवाब अमूमन सबसे एक-सा ही मिला कि अरे उ कुछ नहीं, मोटका मुंगड़वा जैसा गीत गाकर लोकप्रिय हुए थे, फिर कहां फेंका गये, कोई नहीं जाना. आज फिर बलेस्सर के नाम पर वैसे ही लोग नाक-मुंह सिकोड़ते हुए दिखे, जिन्हें 14-15 सालों के बाल कलाकारों के मंुह से मुरगा-मुरगी का सेक्सुअल गीत सुनना अश्लील नहीं लगता, जिन्हें तनी सा जिंस ढिला कर गीत अश्लील नहीं लगता और न ही जिन्हें यह मिस काॅल मार ताड़ू किस देबू का हो को लेकर कोई आपत्ति है. बलेस्सर के मर जाने के बाद भी बलेस्सर के बारे में दो शब्द अच्छे से बोलने का साहस कथित सभ्य समाज नहीं जुटा पा रहा जबकि एक-डेढ़ साल पहले जब एनडीटीवी इमेजिन पर कल्पना और मालिनी अवस्थी के बीच संगीत का मुकाबला हो रहा था तो कल्पना ने बलेस्सर के गीत-- निक लागे टिकुलिया गोरखपुर के...  को गाकर ही दलेर मेंहदी समेत तमाम निर्णायकों को झुमाया था, उस कार्यक्रम को देखनेवाले लोगों को भी अच्छा लगा था बलेस्सर का वह गीत कल्पना की आवाज में. इन सारे लोगों से अच्छा तो वह छोटा सा बच्चा था जो महुआ के सुर संग्राम के रिप्ले कार्यक्रम में आज से कोई दस दिन पहले चैनल पर दिखा था. बलेस्सर स्टाइल में धोती-कुरता पहने. बिरहा गाया- नईहरे में एतना सिंगार तो ससुरा में... मनोज तिवारी ने कुटिल मुस्कान के साथ पूछा उस बच्चे से कि बलेस्सर जी के चेला हउव का हो. उस लड़के ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया कि एहू में कोई संदेह हौ का...मनोज तिवारी लगभग निरूत्तर हो गये थे.

December 10, 2009

एन इनकाउंटर विद ए रिक्‍शावाला

यूं ही अचानक मन में हुआ कि इस बार सुबह-सुबह जब रांची में उतरूंगा तो रिक्‍शे से ही अपने किराये के कमरे तक जाऊंगा। घर से रात को बस में बैठा तो अपने एक अजीज मित्र को इत्तला कर दिया कि सुबह-सुबह ज़रा जल्दी जग जाना। मैं साढ़े पांच बजे तक बस स्टैंड पर उतर जाऊंगा। उसके बाद रिक्‍शे से बस स्टैंड से घर तक पहुंचने में 45 मिनट का समय लगेगा, तुम इतनी देर मेरे साथ ही बने रहना। मोबाइल पर। बातें करते हुए हवाखोरी करूंगा। एक लंबे अरसे के बाद। रांची की सुबह बहुत दिनों से देखी भी नहीं थी। उस मित्र से मैंने एक और आग्रह किया, सुबह-सुबह देश-दुनिया और राज्य के विषय पर गंभीर और भारी-भरकम बातें नहीं करनी। पत्रकारिता वगैरह पर बहस नहीं करनी और न ही बातचीत को विचारों की पगडंडियों पर ले जाने की कोशिश करनी। मेरे उस मित्र ने वादा किया – कोई बहसबाज़ी नहीं होगी, निश्चिंत रहो – कोई गंभीर बातें भी नहीं।
सुबह-सुबह सरकारी बस स्टैंड पर उतरा। वहां एक रिक्‍शेवाले से बातचीत की। कोकर तक का किराया 30 रुपये मांगा। रिक्‍शेवाले, ठेलेवाले, फेरीवाले, फुटपाथी दुकानदारों से मोल-भाव न कर लूं तो लगता है, जैसे बचपन की कोई चीज़ मिस कर रहा हूं। मैंने 20 बोला, बात 25 पर तय हुई। सरकारी बस स्टैंड से चला, पीपी कंपाउंड मोड़ पर पहुंचा। वहीं हमने चाय पी। हमने यानी मैंने और मधेश्वर भाई ने। रिक्‍शेवाले ने अपना नाम मधेश्वर प्रसाद ही बताया। वहां से चाय पीकर हम मेन रोड होते हुए कोकर के लिए चले। मैंने मधेश्वर से यह आग्रह भी किया था कि 25 की जगह 30 ही दे देंगे लेकिन ज़रा मेन रोड घुमाते हुए ले चलिएगा। आराम से। हड़बड़ाकर नहीं। रिक्‍शा पीपी कंपाउंड मोड़ से चला और मैंने अपने मित्र को फोन लगा दिया। बातचीत शुरू। गुड मॉर्निंग से बात की शुरुआत हुई और तुंरत प्रेम पर व्याख्यान शुरू हुआ मेरा। मैं लगा बताने कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर इसलिए शायद इतना महान काम कर गये, क्‍योंकि उनके जीवन में बराबर प्रेम बना रहा। भाभी कादंबरी का, फिर विक्‍टोरिया ओकेंपो का। मैंने बात आगे बढ़ायी – नेहरू शायद इसलिए उस थकान की उम्र में भी ऊर्जा से लबरेज दिखते थे – क्‍योंकि उनके जीवन में एडविना का प्रेम था। यूं ही प्रेम पर बात होती रही और मैंने आरा के मड़ई दुबे से लेकर महाराजा रंजीत सिंह-मोरां के प्रेम की बातें शुरू कर दी। घुमा फिराकर मैं यही समझाने की कोशिश करता रहा अपने मित्र को कि जिसके जीवन से प्रेम निकल गया, उसके जीवन में कोई रोमांच नहीं होता। फोन पर प्रेमाख्यान के बाद मेरा फोन पर सपनों को लेकर व्याख्यान शुरू हुआ। मैंने कहा, और सुनो एक बात, ज़‍िंदगी में हमेशा बड़े सपने देखा करो, ताकि टूटे-बिखरे भी तो उसका बड़ा हिस्सा बचे। छोटे सपने तो एक बार की टूटन में ही यूं बिखर जाएंगे कि कहीं उसकी पहचान तक नहीं बचेगी। यह सब बातें मैं किये जा रहा था। अपनी मस्ती में। बिना इस बात की परवाह किये कि मधेश्वर भी मेरी बातों को सुन रहा है। इसी बीच अचानक ही रिक्‍शा रुक गया। मैंने ध्यान नहीं दिया रिक्‍शे के रुकने पर। सोचा कि चेन-वेन उतरा होगा।
मैं अपनी बात में मगन रहा। कुछ देर हुआ तो देखा मधेश्वर खड़ा है चुपचाप। एकटक मेरी ओर देखे जा रहा है। मैंने फोन पर मित्र को होल्ड करने को कहा और मधेश्वर भाई से पूछा, “क्‍या बात मधेश्वर भाई?”
मधेश्वर ने कुछ नहीं कहा। उसी तरह एकटक देखता रहा। मैंने फिर कहा, “बताइए मधेश्वर भाई, कुछ हुआ क्‍या?”
मधेश्वर ने कहा, “आप उतर जाइए मेरे रिक्‍शे से।”
“आधा से ज़्यादा दूर ला दिये हैं। मन हो तो किराया दीजिए, नहीं तो उसकी भी कोई ज़रूरत नहीं।”
“आप कहेंगे तो उतर ही जाऊंगा रिक्शे से लेकिन मुझसे गलती क्या हुई, यह तो बताइए?” मैंने ज़ोर देकर पूछा।
मेरे इस सवाल के साथ मधेश्वर बिफर पड़ा, “आप पूछते हैं कि क्‍या हुआ? कितने देर से हम आपके साथ हैं। आपने एक बार भी, एक शब्द भी मुझसे बात नहीं की। तब से फोन पर लंबा-लंबा दिये जा रहे हैं। मैंने तो सोचा था कि आप फोन पर 5-10 मिनट में निबट जाएंगे, तो फिर मैं ही आपसे पूछूंगा कि रांची में कहां रहते हैं, कब से रहते हैं, क्‍या करते हैं, कहां के रहने वाले हैं, अपना घर है कि किराये का…”
या फिर आप मुझसे पूछेंगे कि तुम कहां के रहनेवाले हो, कहां रहते हो, रिक्‍शा अपना है कि जमा का, घर में और कौन-कौन हैं, रिक्‍शे से कमाई कितनी होती है, परिवार कैसे चलता है…?”
मधेश्वर ने बिना फुलस्‍टॉप के अपनी बातों को जारी रखा, “लेकिन आप तो तब से फोन पर लगे हुए हैं। जो साथ में है, उसके लिए एक सेकेंड का भी समय नहीं, जो अभी आपके पास नहीं है, उसके लिए सारा समय।”
मधेश्वर ने अपनी बातें जारी रखीं। बिना इसकी परवाह किये कि मैं उसकी बातें सुन भी रहा हूं या नहीं। मेरा मोबाइल ऑन था, दूसरी ओर लाइन पर मित्र को सारी बातें सुनाई पड़ रही थीं।
मधेश्वर ने फिर कहा, “आप बुरा नहीं मानिएगा लेकिन इस मोबाइल जात से ही मुझे बहुत नफ़रत है। इसलिए नहीं कि यह मेरे पास नहीं है, बल्कि इसलिए क्‍योंकि यह मोबाइल जवानी को जंग लगा रहा है, देश को बरबाद कर रहा है… भीड़ में भी आदमी को अकेला कर देता है यह मोबाइल, कभी समूह में रहने ही नहीं देता किसी को, काट कर रख देता है सबसे… इतना ही नहीं भाई जी, यह मोबाइल दिन भर में लोगों से झूठ बोलने की इतनी बार प्रैक्टिस करवाता है कि कुछ दिनों बाद लोग शायद सच बोलना ही भूल जायें।”
हवाखोरी का मेरा शौक गायब हो चुका था। मैं रिक्‍शे पर ही था और मधेश्वर नीचे खड़ा होकर सारी बातें कहे जा रहा था। मधेश्वर ने इशारा करते हुए दिखाया सड़क पर जा रहे लड़के-लड़कियों को और बोला, “देख रहे हैं न इन सबको। देखते रहिए, अधिकतर का हाथ काने पर सटा हुआ है। ये सब अभी-अभी घर से या अपने हॉस्टल से निकले होंगे, पढ़ने जा रहे हैं लेकिन घर से निकलते ही इनका हाथ कान के पास आ जाता है। सड़क पर ये बात करते हुए ही जाते हैं। पता नहीं क्‍या बात रहता है, केतना बात रहता है जो कभी ओराता ही नहीं।”
मधेश्वर ने आगे जोड़ा, “आप बुरा नहीं मानिए, खाली आपको नहीं कह रहे हैं – इन लड़के-लड़कियों को देखिए और सोचिए। इनकी जवानी को जंग लगा रहा है यह मोबाइल। एक सेकेंड सोचने का मौका नहीं देता। उलझाये रखता है आपस में। आसपास, समाज तक के बारे में सोचने तक का वक्‍त नहीं देता, जवानी की सारी ऊर्जा को सोख लेता है। इसलिए मैं कहता हूं कि यह मोबाइल जवानी को जंग लगा रहा है। नपुंसक बनाता है, सो अलग। वह तो आप भी कई बार पढ़े होंगे अखबार में।”
मैं हतप्रभ था। मेरा मोबाइल अब भी ऑन था। मधेश्वर की बातों को ध्यान से सुने जा रहा था। मधेश्वर ने गहरी सांस ली और इस बार मुस्कुराते हुए कहा, “भाई जी आप बुरा नहीं मानिएगा, आप जो अभी फोन पर प्रेम पर लंबा-लंबा भाषण किसी को सुना रहे थे तो मुझे और तेज गुस्सा आ रहा था। भला बताइए – मोबाइल के युग में प्रेम कहीं होता है भला। कितने प्रेम कहानी बने हैं इधर? सब ओही युग में बना है भाई जी, जब मोबाइल नहीं था। अनपढ़ी के युग में चाहे अधिक से अधिक चिट्ठी-पत्री वाले युग में। सब अमर प्रेम ओही युग में हुआ। चिट्ठी की बातें अलग होती हैं। अब मोबाइल के युग में कैसा प्रेम होता है, आप भी जानते होंगे। हाले दिन में हरियाणा वाला एगो मंत्री चांद बनके फिजां के साथे प्यार का प्रदर्शन कर रहा था। उ नौटंकी न हुआ कि उसको भी प्यार कहिएगा! आप पढ़ते होंगे अखबार में। एही मोबाइल युग में तो करीना वाला प्रेम भी काफी चर्चित रहा। कभी पढ़ते थे कि करीना शाहीद पर अइसन फिदा हो गयी है कि ऐको सेकेंड अलग रहने की स्थिति नहीं है। लेकिन अब पता चला कि उ पहिले से शादी-शुदा सैफवा के साथ चली गयी। छोड़िए न करीनवा के बात – ऐश्वर्या राय को देखिए। कभी सलमान पगलाया रहा तो कभी विवेक ओबराय। दुनों में तो लड़ाई भी हो गया ऐश्वर्या के ले के लेकिन उ गयी कहां – अभिषेक के खाता में… अइसने प्रेम होता है अब भाई जी। आप गुस्साइएगा मत, आपको कुछ नहीं कह रहे हैं…”
मैं मधेश्वर की बातों को ध्यान से सुनता जा रहा था। मधेश्वर ने फिर कहा, “चलिए आप बैठ जाइए, आपको पहुंचा देते हैं घर तक। लेकिन आग्रह करें भाई जी! आप पढ़े-लिखे लग रहे हैं – आपलोग ऐसा नहीं कीजिए। भीड़ में भी अकेले बनने की आदत नहीं डालिए। इससे बड़ा नुकसान हो रहा है हम सबका।”
मधेश्वर ने इतनी बातों के बाद रिक्‍शा को फिर आगे बढ़ा दिया। मेरी स्थिति उस लजाये हुए इंसान की तरह थी, जिसे काटो तो खून नहीं। मधेश्वर घर तक लेकर आया। 30 रुपये देते हुए मैंने उससे पहली बार एक सवाल किया, ”मधेश्वर भाई जितनी बातें कह गये आप, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो?”
मधेश्वर ने हंसते हुए फिर कहा, “पढ़ने-लिखने से क्‍या होता है भाई जी। वह ज्ञान की गारंटी देता है क्‍या अब भी? कम से कम व्यावहारिक ज्ञान तो पढ़ने-लिखने से नहीं ही आता। हां, नौकरी-चाकरी में जरूर पढ़ना-लिखना काम आ जाता है। लेकिन मुझे तो वह भी नहीं मिला, जबकि मैं भी बीए आनर्स तक की पढ़ाई कर चुका हूं।”
मधेश्वर का स्वर ज़रा उदास हुआ, “हिंदी साहित्य से बीए तक की पढ़ाई की भाई जी। नौकरी के लिए बहुत हाथ-पांव मारा। कुछ नहीं हो सका। दूर-देश मजदूरी करने जाना नहीं चाहता था तो अपने बाबूजी के रिक्‍शे को लेकर रांची चला आया हूं पांच साल पहले। तब से यहीं, इसी रिक्‍शे के साथ जिंदगी गुजार रहा हूं…”
मधेश्वर ने रिक्‍शा मोड़ लिया। हंसते हुए विदा लिया। जाते-जाते फिर वही दुहरा गया, “आप बुरा तो नहीं न माने भाईजी, नहीं मानिएगा बुरा-हम आपको नहीं कह रहे थे, क्‍या कीजिएगा, बहुत बोल गये होंगे…”
मैं मधेश्वर को जाते हुए देखता रहा। कुछ दिनों पहले उसकी तलाश में फिर मैं सुबह-सुबह सरकारी बस स्टैंड पहुंचा था – रिक्‍शावालों ने बताया कि मधेश्वर नाम से तो किसी को नहीं जानते। एक माधो है, लेकिन वह रोज़ इधर नहीं आता। कभी-कभी आता है… बहुत शांत रहता है। उस चिंतक म