December 10, 2009

एन इनकाउंटर विद ए रिक्‍शावाला

यूं ही अचानक मन में हुआ कि इस बार सुबह-सुबह जब रांची में उतरूंगा तो रिक्‍शे से ही अपने किराये के कमरे तक जाऊंगा। घर से रात को बस में बैठा तो अपने एक अजीज मित्र को इत्तला कर दिया कि सुबह-सुबह ज़रा जल्दी जग जाना। मैं साढ़े पांच बजे तक बस स्टैंड पर उतर जाऊंगा। उसके बाद रिक्‍शे से बस स्टैंड से घर तक पहुंचने में 45 मिनट का समय लगेगा, तुम इतनी देर मेरे साथ ही बने रहना। मोबाइल पर। बातें करते हुए हवाखोरी करूंगा। एक लंबे अरसे के बाद। रांची की सुबह बहुत दिनों से देखी भी नहीं थी। उस मित्र से मैंने एक और आग्रह किया, सुबह-सुबह देश-दुनिया और राज्य के विषय पर गंभीर और भारी-भरकम बातें नहीं करनी। पत्रकारिता वगैरह पर बहस नहीं करनी और न ही बातचीत को विचारों की पगडंडियों पर ले जाने की कोशिश करनी। मेरे उस मित्र ने वादा किया – कोई बहसबाज़ी नहीं होगी, निश्चिंत रहो – कोई गंभीर बातें भी नहीं।
सुबह-सुबह सरकारी बस स्टैंड पर उतरा। वहां एक रिक्‍शेवाले से बातचीत की। कोकर तक का किराया 30 रुपये मांगा। रिक्‍शेवाले, ठेलेवाले, फेरीवाले, फुटपाथी दुकानदारों से मोल-भाव न कर लूं तो लगता है, जैसे बचपन की कोई चीज़ मिस कर रहा हूं। मैंने 20 बोला, बात 25 पर तय हुई। सरकारी बस स्टैंड से चला, पीपी कंपाउंड मोड़ पर पहुंचा। वहीं हमने चाय पी। हमने यानी मैंने और मधेश्वर भाई ने। रिक्‍शेवाले ने अपना नाम मधेश्वर प्रसाद ही बताया। वहां से चाय पीकर हम मेन रोड होते हुए कोकर के लिए चले। मैंने मधेश्वर से यह आग्रह भी किया था कि 25 की जगह 30 ही दे देंगे लेकिन ज़रा मेन रोड घुमाते हुए ले चलिएगा। आराम से। हड़बड़ाकर नहीं। रिक्‍शा पीपी कंपाउंड मोड़ से चला और मैंने अपने मित्र को फोन लगा दिया। बातचीत शुरू। गुड मॉर्निंग से बात की शुरुआत हुई और तुंरत प्रेम पर व्याख्यान शुरू हुआ मेरा। मैं लगा बताने कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर इसलिए शायद इतना महान काम कर गये, क्‍योंकि उनके जीवन में बराबर प्रेम बना रहा। भाभी कादंबरी का, फिर विक्‍टोरिया ओकेंपो का। मैंने बात आगे बढ़ायी – नेहरू शायद इसलिए उस थकान की उम्र में भी ऊर्जा से लबरेज दिखते थे – क्‍योंकि उनके जीवन में एडविना का प्रेम था। यूं ही प्रेम पर बात होती रही और मैंने आरा के मड़ई दुबे से लेकर महाराजा रंजीत सिंह-मोरां के प्रेम की बातें शुरू कर दी। घुमा फिराकर मैं यही समझाने की कोशिश करता रहा अपने मित्र को कि जिसके जीवन से प्रेम निकल गया, उसके जीवन में कोई रोमांच नहीं होता। फोन पर प्रेमाख्यान के बाद मेरा फोन पर सपनों को लेकर व्याख्यान शुरू हुआ। मैंने कहा, और सुनो एक बात, ज़‍िंदगी में हमेशा बड़े सपने देखा करो, ताकि टूटे-बिखरे भी तो उसका बड़ा हिस्सा बचे। छोटे सपने तो एक बार की टूटन में ही यूं बिखर जाएंगे कि कहीं उसकी पहचान तक नहीं बचेगी। यह सब बातें मैं किये जा रहा था। अपनी मस्ती में। बिना इस बात की परवाह किये कि मधेश्वर भी मेरी बातों को सुन रहा है। इसी बीच अचानक ही रिक्‍शा रुक गया। मैंने ध्यान नहीं दिया रिक्‍शे के रुकने पर। सोचा कि चेन-वेन उतरा होगा।
मैं अपनी बात में मगन रहा। कुछ देर हुआ तो देखा मधेश्वर खड़ा है चुपचाप। एकटक मेरी ओर देखे जा रहा है। मैंने फोन पर मित्र को होल्ड करने को कहा और मधेश्वर भाई से पूछा, “क्‍या बात मधेश्वर भाई?”
मधेश्वर ने कुछ नहीं कहा। उसी तरह एकटक देखता रहा। मैंने फिर कहा, “बताइए मधेश्वर भाई, कुछ हुआ क्‍या?”
मधेश्वर ने कहा, “आप उतर जाइए मेरे रिक्‍शे से।”
“आधा से ज़्यादा दूर ला दिये हैं। मन हो तो किराया दीजिए, नहीं तो उसकी भी कोई ज़रूरत नहीं।”
“आप कहेंगे तो उतर ही जाऊंगा रिक्शे से लेकिन मुझसे गलती क्या हुई, यह तो बताइए?” मैंने ज़ोर देकर पूछा।
मेरे इस सवाल के साथ मधेश्वर बिफर पड़ा, “आप पूछते हैं कि क्‍या हुआ? कितने देर से हम आपके साथ हैं। आपने एक बार भी, एक शब्द भी मुझसे बात नहीं की। तब से फोन पर लंबा-लंबा दिये जा रहे हैं। मैंने तो सोचा था कि आप फोन पर 5-10 मिनट में निबट जाएंगे, तो फिर मैं ही आपसे पूछूंगा कि रांची में कहां रहते हैं, कब से रहते हैं, क्‍या करते हैं, कहां के रहने वाले हैं, अपना घर है कि किराये का…”
या फिर आप मुझसे पूछेंगे कि तुम कहां के रहनेवाले हो, कहां रहते हो, रिक्‍शा अपना है कि जमा का, घर में और कौन-कौन हैं, रिक्‍शे से कमाई कितनी होती है, परिवार कैसे चलता है…?”
मधेश्वर ने बिना फुलस्‍टॉप के अपनी बातों को जारी रखा, “लेकिन आप तो तब से फोन पर लगे हुए हैं। जो साथ में है, उसके लिए एक सेकेंड का भी समय नहीं, जो अभी आपके पास नहीं है, उसके लिए सारा समय।”
मधेश्वर ने अपनी बातें जारी रखीं। बिना इसकी परवाह किये कि मैं उसकी बातें सुन भी रहा हूं या नहीं। मेरा मोबाइल ऑन था, दूसरी ओर लाइन पर मित्र को सारी बातें सुनाई पड़ रही थीं।
मधेश्वर ने फिर कहा, “आप बुरा नहीं मानिएगा लेकिन इस मोबाइल जात से ही मुझे बहुत नफ़रत है। इसलिए नहीं कि यह मेरे पास नहीं है, बल्कि इसलिए क्‍योंकि यह मोबाइल जवानी को जंग लगा रहा है, देश को बरबाद कर रहा है… भीड़ में भी आदमी को अकेला कर देता है यह मोबाइल, कभी समूह में रहने ही नहीं देता किसी को, काट कर रख देता है सबसे… इतना ही नहीं भाई जी, यह मोबाइल दिन भर में लोगों से झूठ बोलने की इतनी बार प्रैक्टिस करवाता है कि कुछ दिनों बाद लोग शायद सच बोलना ही भूल जायें।”
हवाखोरी का मेरा शौक गायब हो चुका था। मैं रिक्‍शे पर ही था और मधेश्वर नीचे खड़ा होकर सारी बातें कहे जा रहा था। मधेश्वर ने इशारा करते हुए दिखाया सड़क पर जा रहे लड़के-लड़कियों को और बोला, “देख रहे हैं न इन सबको। देखते रहिए, अधिकतर का हाथ काने पर सटा हुआ है। ये सब अभी-अभी घर से या अपने हॉस्टल से निकले होंगे, पढ़ने जा रहे हैं लेकिन घर से निकलते ही इनका हाथ कान के पास आ जाता है। सड़क पर ये बात करते हुए ही जाते हैं। पता नहीं क्‍या बात रहता है, केतना बात रहता है जो कभी ओराता ही नहीं।”
मधेश्वर ने आगे जोड़ा, “आप बुरा नहीं मानिए, खाली आपको नहीं कह रहे हैं – इन लड़के-लड़कियों को देखिए और सोचिए। इनकी जवानी को जंग लगा रहा है यह मोबाइल। एक सेकेंड सोचने का मौका नहीं देता। उलझाये रखता है आपस में। आसपास, समाज तक के बारे में सोचने तक का वक्‍त नहीं देता, जवानी की सारी ऊर्जा को सोख लेता है। इसलिए मैं कहता हूं कि यह मोबाइल जवानी को जंग लगा रहा है। नपुंसक बनाता है, सो अलग। वह तो आप भी कई बार पढ़े होंगे अखबार में।”
मैं हतप्रभ था। मेरा मोबाइल अब भी ऑन था। मधेश्वर की बातों को ध्यान से सुने जा रहा था। मधेश्वर ने गहरी सांस ली और इस बार मुस्कुराते हुए कहा, “भाई जी आप बुरा नहीं मानिएगा, आप जो अभी फोन पर प्रेम पर लंबा-लंबा भाषण किसी को सुना रहे थे तो मुझे और तेज गुस्सा आ रहा था। भला बताइए – मोबाइल के युग में प्रेम कहीं होता है भला। कितने प्रेम कहानी बने हैं इधर? सब ओही युग में बना है भाई जी, जब मोबाइल नहीं था। अनपढ़ी के युग में चाहे अधिक से अधिक चिट्ठी-पत्री वाले युग में। सब अमर प्रेम ओही युग में हुआ। चिट्ठी की बातें अलग होती हैं। अब मोबाइल के युग में कैसा प्रेम होता है, आप भी जानते होंगे। हाले दिन में हरियाणा वाला एगो मंत्री चांद बनके फिजां के साथे प्यार का प्रदर्शन कर रहा था। उ नौटंकी न हुआ कि उसको भी प्यार कहिएगा! आप पढ़ते होंगे अखबार में। एही मोबाइल युग में तो करीना वाला प्रेम भी काफी चर्चित रहा। कभी पढ़ते थे कि करीना शाहीद पर अइसन फिदा हो गयी है कि ऐको सेकेंड अलग रहने की स्थिति नहीं है। लेकिन अब पता चला कि उ पहिले से शादी-शुदा सैफवा के साथ चली गयी। छोड़िए न करीनवा के बात – ऐश्वर्या राय को देखिए। कभी सलमान पगलाया रहा तो कभी विवेक ओबराय। दुनों में तो लड़ाई भी हो गया ऐश्वर्या के ले के लेकिन उ गयी कहां – अभिषेक के खाता में… अइसने प्रेम होता है अब भाई जी। आप गुस्साइएगा मत, आपको कुछ नहीं कह रहे हैं…”
मैं मधेश्वर की बातों को ध्यान से सुनता जा रहा था। मधेश्वर ने फिर कहा, “चलिए आप बैठ जाइए, आपको पहुंचा देते हैं घर तक। लेकिन आग्रह करें भाई जी! आप पढ़े-लिखे लग रहे हैं – आपलोग ऐसा नहीं कीजिए। भीड़ में भी अकेले बनने की आदत नहीं डालिए। इससे बड़ा नुकसान हो रहा है हम सबका।”
मधेश्वर ने इतनी बातों के बाद रिक्‍शा को फिर आगे बढ़ा दिया। मेरी स्थिति उस लजाये हुए इंसान की तरह थी, जिसे काटो तो खून नहीं। मधेश्वर घर तक लेकर आया। 30 रुपये देते हुए मैंने उससे पहली बार एक सवाल किया, ”मधेश्वर भाई जितनी बातें कह गये आप, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो?”
मधेश्वर ने हंसते हुए फिर कहा, “पढ़ने-लिखने से क्‍या होता है भाई जी। वह ज्ञान की गारंटी देता है क्‍या अब भी? कम से कम व्यावहारिक ज्ञान तो पढ़ने-लिखने से नहीं ही आता। हां, नौकरी-चाकरी में जरूर पढ़ना-लिखना काम आ जाता है। लेकिन मुझे तो वह भी नहीं मिला, जबकि मैं भी बीए आनर्स तक की पढ़ाई कर चुका हूं।”
मधेश्वर का स्वर ज़रा उदास हुआ, “हिंदी साहित्य से बीए तक की पढ़ाई की भाई जी। नौकरी के लिए बहुत हाथ-पांव मारा। कुछ नहीं हो सका। दूर-देश मजदूरी करने जाना नहीं चाहता था तो अपने बाबूजी के रिक्‍शे को लेकर रांची चला आया हूं पांच साल पहले। तब से यहीं, इसी रिक्‍शे के साथ जिंदगी गुजार रहा हूं…”
मधेश्वर ने रिक्‍शा मोड़ लिया। हंसते हुए विदा लिया। जाते-जाते फिर वही दुहरा गया, “आप बुरा तो नहीं न माने भाईजी, नहीं मानिएगा बुरा-हम आपको नहीं कह रहे थे, क्‍या कीजिएगा, बहुत बोल गये होंगे…”
मैं मधेश्वर को जाते हुए देखता रहा। कुछ दिनों पहले उसकी तलाश में फिर मैं सुबह-सुबह सरकारी बस स्टैंड पहुंचा था – रिक्‍शावालों ने बताया कि मधेश्वर नाम से तो किसी को नहीं जानते। एक माधो है, लेकिन वह रोज़ इधर नहीं आता। कभी-कभी आता है… बहुत शांत रहता है। उस चिंतक म