July 4, 2011

मोक्ष मांगती मोक्ष की नगरी


निराला

धूल भरी, पुरानी और कटी-फटी एक तस्वीर मंगवाकर चेहरे पर गर्वमिश्रित हंसी का भाव लाते हुए कुर्सी पर बैठे-बैठे ही किशनलाल इशारे से बताते हैं. कहते हैं- देख लीजिए, यही थी ढेलाबाई. मेरे पूर्वज की रखैलन. इस एक वाक्य को बोल लेने के बाद एकाध वाक्य और भी कुछ बुदबुदाते हैं किशनलाल.
किशनलाल का पूरा नाम किशनलाल बारिक है. वे हिंदुस्तान के मशहूर हारमोनियम वादक पन्नालाल बारिक उर्फ दादूजी के पुत्र हैं. गया के पंडा समाज के वरिष्ठ व अभिभावकतुल्य सदस्य. उम्र के करीब आठवें दशक में चल रहे किशनलाल अपने इस एक वाक्य से गया के उस ढेलाबाई से हमारा परिचय कराते हैं, जो 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ठुमरी-दादरा की मशहूर गायिकाओं में शुमार थीं. जब गया भारतीय संगीत का अहम केंद्र हुआ करता था, उस जमाने में अपनी खास अदा और आवाज से ढेलाबाई ने गया में रहते हुए अपने कद्रदानों की परिधि का विस्तार पूरे हिदुस्तान में किया था. लेकिन अब पन्नालाल जैसे संगीतकार के पुत्र किशनलाल सरीखे लोग अजनबी के सामने ढेलाबाई को मात्र ‘रखैलन’ की परिधि में बांधकर रखने की कोशिश करते हैं. जाहिर सी बात है, किशनलाल का वह एक वाक्य दुखद आश्चर्य की तरह कानों में टकराता है लेकिन उनकी हवेली से बाहर निकलकर अंदर गया की गलियों में घूमते हुए जब कुछ और लोगों से बात-मुलाकात होती है तो बात समझ में आ जाती है कि किशनलाल कोई अकेले नहीं हैं जो समृद्ध परंपरा को महत्वहीन नजरिये से देखने लगे हैं. फल्गू की रेत और गया की गलियों में लगभग आठ घंटे पैदल खाक छानने के क्रम में कुछ-कुछ यह अहसास भी होता है कि अपनी क्षमता के दम पर खुद-ब-खुद ‘गया’ से ‘गयाजी’ के तौर पर लोकमानस में स्थापित हो जानेवाला यह प्राचीनतम नगर ‘उफ्फ यह गया’ के तौर पर तेजी से क्यों स्थापित हो रहा है.
किशनलाल की हवेली से निकलने के बाद हमारी मुलाकात फल्गु किनारे शंकर राम से होती है. शंकर कैमरा वगैरह देख हमें किसी सरकारी महकमे का मुलाजिम अथवा सर्वेयर समझते हैं. वे झट अपने समूह के साथ आकर कहते हैं.
‘‘ फल्गु के बचावेला हमनी सब के घरवा उजाड़े पर काहे पड़े हैं आपलोग. सरकारो तो मानती है कि ई फल्गु एतना बड़ा रहके का करेगा, कउनो पानी थोड़े देता है ई. तब्बे तो सरकार भी ई नदी में शहर के सब कूड़ा-कचरा भरेवाला काम करवा रही है और ओही कचरवा पर कुछो-कुछो बनवाते भी जा रही है. त सरकार करे तो सब ठीक आउर हमलोग फलगु में खाली रहेला घर बना लिये तो जुलूम हो गया...’’
अनपढ़ शंकर का फल्गु के प्रति यह पाॅप्यूलर नजरिया भी कुछ वैसा ही है, जैसा कि किशनलाल जैसे समझदार लोगों का ढेलाबाई के प्रति. द्वंद्व के ऐसे ही मुहाने से टकराते हुए दुनिया का प्राचीनतम शहर और भारतीय पुराणों के अनुसार तीर्थों के महाप्राण के रूप में स्थापित यह धार्मिक नगर वर्षों जड़ता के दौर से गुजरने के बाद अब धीरे-धीरे अवसान की ओर है!

बेमौत मर रही गया की गंगा

गया में विष्णुपद मंदिर के करीब फल्गु नदी के तट पर वरिष्ठ समाजसेवी सुरेश नारायण रहते हैं. सुरेश नारायण वर्षों से हर पितृपक्ष में अज्ञात, अनाथ अथवा हादसे में मारे गये लोगों के नाम का तर्पण कर उनकी मुक्ति की कामना के साथ गया श्राद्ध करते हैं. हम उनसे पूछते हैं कि यदि गया से फल्गु नदी को हटा दे ंतो इस शहर की कल्पना किस रूप में करते हैं? उनका जवाब होता है- तो गया की पूरी कथा-कहानी भी खत्म समझिए. सुरेश नारायण ही नहीं, इसका अहसास अमूमन हर गयावालों को है कि गया और बिहार की गंगा कही जानेवाली फल्गु यहां है, तभी गया का अस्तित्व है. फल्गु के कारण ही गया को गयाजी का दर्जा प्राप्त है. आठ लाख की आबादी वाले इस शहर में 20 प्रतिशत तो ऐसे लोग हैं, जिनके घर-परिवार को चलाने का जिम्मा सीधे-सीधे फल्गु पर ही है. फल्गु ही है जिस कारण तमाम मुश्किलों को झेलते हुए देश-दुनिया के लोग यहां पीढ़ियों से पहुंचते रहे हैं. गया पंडा समाज के सिजुआर घराने के प्रमुख राजन सिजुआर के मुताबिक अब भी पितृपक्ष के पखवाड़े में करीबन पांच लाख और उसके बाद शेष दिनों में लगभग दस लाख यानि कुल मिलाकर लगभग हर साल 15 लाख लोग देश के अलग-अलग हिस्से से अपने पित्तरों को मोक्ष दिलाने गयाजी पहुंचते हैं. और यहां पहुंचकर मोक्षदायिनी फल्गु को खुद मरणसेज पर पड़े मोक्ष की कामना करते पाते हैं.
ब्रिटिश सर्वेयर फ्रांसिस बुकावन ने 1811-12 में इस नदी की चैड़ाई गया के इलाके में 800 गज तक दर्ज किया था. 1956 में तैयार गया डिस्ट्रिक्ट गजेटियर बताता है कि नदी 900 गज तक चैड़ी है. अब नदी की चैड़ाई कितनी रह गयी है, यह सही-सही बतानेवाला कोई नहीं. हां नदी में शहर के 53 वार्डों की लगभग 250 मिट्रिक टन गंदगी का अंबार हर रोज लगते देख अनुमान लगा सकते हैं कि कचरों के टिलों ने नदी को कितना घेर लिया है. विष्णुपद मंदिर से नीचे देवघाट उतर कर बरसात के अलावा कभी भी नदी में कचरे के इन टिलों को दूर-दूर तक देखा जा सकता है. हद यह कि इन कचरों के टिलों पर ही सरकार के सौजन्य से नये श्मशान के निर्माण को देख सकते हैं, जिसका उद्घाटन अभी बाकी है. फल्गु किनारे घूमते-फिरते यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि इकबाल नगर, लखीबाग, पंचायती अखाड़ा, किरानी घाट, बालू पर, भूसंडा मेला के क्षेत्र में कुकुरमुत्ते की तरह बेतरतीब तरीके से जो सैकड़ों मकान उग आये हैं,े वे फल्गु का हक मारकर ही खड़े किये गये हैं. शहर के गंदे नाले-नालियों के मुंह भी नगर प्रशासन की मेहरबानी से फल्गु में ही खुलते हैं. और इन सबका असर कई रूपों में गयावालो और प्रशासन को भी दिखता ही होगा.
इस शहर में 40 प्रतिशत पेयजल की आपूर्ति इसी फल्गु से होती है. नदी में गंदगी जा रही है तो गंदा पानी ही सप्लाई भी होता है. ठेकेदार फल्गु के रेत को धड़ल्ले से 900 रुपये प्रति ट्रैक्टर के हिसाब से उठवा रहे हैं. रेत की उपरी परत हटा दिये जाने से फिल्टरेशन की प्रक्रिया करने में नदी अब सक्षम नहीं रह गयी है. फल्गु अंतःसलीला नदी है यानि उपर से भले ही पानी न दिखे लेकिन एक-दो हाथ रेत हटाने पर यहां शुद्ध जल हमेशा से मिलते रहा है लेकिन अब दस फीट भी जाये ंतो शायद ही पानी मिले. और यदि पानी मिल गया तो वह इतना बदबूदार और गंदा होगा कि उसका इस्तेमाल आप शौच क्रिया करने के बाद भी करने में हिचकेंगे लेकिन दस फीट गड्ढा खोदकर निकलने वाले बदबूदार गंदे पानी ने भी कइयों को नया रोजगार दे रखा है. पींडदानियों को पांच-दस रुपये या कुछ और रेट लेकर प्रति ग्लास के हिसाब से यहां से पानी दिया जाता है ताकि फल्गु जल का तर्पण कर वे अपने पित्तरों के मोक्ष की कामना कर सके. गया में रहनेवाले कथाकार व फिल्म लेखक शैवाल कहते हैं, फल्गु सिर्फ एक नदी भर नहीं है, यह गया की पहचान है. इसके मौत की कल्पना के बाद आप गया की कल्पना भी एक सेकेंड के लिए नहीं कर सकते. यह नदी पीने का पानी देती है, गयावासियों को रोजगार देती है और बारिश के अलावा अन्य मौसम में हजारों राहगिरों, मजदूरों को रात में सोने का आश्रय भी. शैवाल जो कहते हैं, उसका अहसास तो सबको होगा कि फल्गु सिर्फ एक नदी भर नहीं है. पुराण कहते हैं कि गया तीर्थों का महाप्राण है, शैवाल कहते हैं फल्गु गया को प्राणरस देनेवाली नदी है. यहां के रहनिहार बहुत गर्व से बताते हैं कि भगवान राम, सीता, युद्धिष्ठिर, भीष्म पितामह सब अपने पित्तरों को पींड दान देने आ चुके हैं इस फल्गु में. फिर एक प्रचलित कथा जरूर सुनाते हैं कि सीता मईया ने इस फल्गु को श्राप दिया था कि तुम अंतःसलीला बहोगी. यह तो हर किसी ने सुन रखा है कि सीता के श्राप के कारण यह नदी अंतःसलीला बहती है लेकिन गया में यह स्वीकार करनेवाले कम ही मिलेंगे कि श्राप के बाद भी तमाम संभावनाओं से भरी नदी को खत्म करने का काम सब मिलकर सामूहिक रूप से कर रहे हैं. शैवाल फल्गु पर लिखी अपनी हालिया कविता का एक अंश सुनाते हैं-
सभासदों दरबार से बाहर आओ,
यहां आकर देखो,
नदी से एकात्म होकर,
तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो जाएगा.
नदी तुम्हे अपनी गोद में लेकर गाये,
क्या यह अविस्मरणीय नहीं होगा!
शैवाल को भी पता है कि सभासदों को ऐसी बातें सुनने की फुर्सत नहीं. वे फल्गु को गंगा से जोड़कर इसे सदानीरा बनाने का स्वप्न दिखाते रहते हैं. सभासदी की राजनीति का मसला नहीं बन सकी है फल्गु. परलोक से कनेक्शन करानेवाली फल्गु को अपने मोक्ष के लिए सिर्फ लोक पर ही भरोसा है.

मुश्किलों और चुनौतियों का शहर

‘ मोक्षधारा’ में गया के बारे में सुधीर रंजन एक जगह लिखते हैं.

मेरा पुराना परिचय है इस नगर से
   यहां बिजली हाथी पर चढ़कर आती है
और घोड़े की गति से भाग जाती है
सुधीर रंजन पुराने परिचय की दुहाई देते हुए गया के बारे में यह लिखते हैं. जिनका गया से नये जमाने में वास्ता पड़ा है, उनका अनुभव भी शायद ऐसा ही है. बिजली यहां फुद्दी चिरैयां की तरह कब आती है और कब फुर्र से उड़कर अलोप हो जाती है, पता ही नहीं चलता. और बिजली के बाद यदि पानी की बात करें तो इस वजह से शहर के वाशिंदे अमूमन हर साल गर्मी के मौसम में अपनो के बीच बेपानी होते रहते हैं. यहां के घरों में लगे हुए नलों से पानी की स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं. मजबूत घेरे के अंदर बने कई घरों में नलों को ताले में जड़ा हुआ देखा जा सकता है. जाहिर सी बात है ताले का इस्तेमाल चोरों से रखवाली के लिए ही होता है. पानी की चोरी की आशंका हो तो इसे कोई सामान्य चोरी तो मानी नही जा सकती. पानी के मामले में इस शहर की विवशता यहीं खत्म नहीं होती. यहां गरमियों में छुट्टी गुजारने कोई मेहमान आने को कह दे तो उसे विनम्रता से मना करने की नयी परंपरा भी बन  रही है. और इन सबके बाद यदि आंकड़ों की भाषा में बात करें तो गया शहर को आबादी के अनुसार प्रतिदिन छह करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है लेकिन गर्मी के दिनों में पांच लाख लीटर पानी की आपूर्ति ही हो पाती है. कल्पना कर सकते हैं, पानी के लिए कैसा दृश्य उत्पन्न होता होगा यहां.
पानी-बिजली के सवाल पर बवाल इस शहर की नियति-सी बनती जा रही है. जो उम्मीदों के सहारे गया में घर बनाकर गयवाल होने आ चुके हैं, उनमें कइयों को गरमी के दिनों में अपने गांव की ओर रूख करना पड़ता है. पहले किरायेदारों को घर छुड़ाया जाता है, फिर खुद मकानमालिक रखवाली का जिम्मा किसी एक के हवाले कर पूरी गर्मी कहीं और रहना मुनासिब समझते हैं.
रोजमर्रा के जीवन में पानी के लिए बेपानी होते गयवालों की मुश्किलें अपनी जगह है. सड़कों पर बजबजाती नालियां शहर की गलियों को पानी-पानी किये रहती हैं, वह अलग किस्म की समस्या है. गयावाले विवश हैं. उन्हें न कुछ उगलते बनता है, न निगलते. वे शहर के अनुसार अपने को ढालने की कोशिश में लगे हुए हैं. अधिकांश ढल गये हैं. जो बचे हुए हैं, उन्हें ढल जाना होगा. जो दूर-दराज से यात्रा कर सैकड़ों की संख्या में हर रोज गया पहुंचते हैं, उन  तीर्थयात्रियों को कोई कम मुश्किलों और चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता. लेकिन वे भी मन-मसोसकर रह जाते हैं. सरकार यह मानकर चलती है कि गयाजी में तीर्थयात्री पितृपक्ष के अवसर पर ही आते हैं. इसलिए पितृपक्ष के अवसर पर ही सुरक्षा और सुविधा के विशेष इंतजाम करने की कोशिश होती है. जबकि सच यह है कि पितृपक्ष के अलावा शेष दिनों में  दो गुना ज्यादा तीर्थयात्री गया पहुंचते हैं.
 सड़क पर बहती नालियों को पार करते, सड़क के बीचो-बीच विचरण करते जानवरों से खुद को बच-बचाकर जब पींड दान देने पहुंचते हैं तो बेदियों के आसपास की गंदगी का अंबार दिखता है. और जब सरोवरों में जाते हैं तो वहां के पानी का रंग देख आचमन-स्नान करने की बात क्या, उसमें उंगली डालने में भी डर-सा लगता है. इसके कई नतीजे सामने दिखने लगे हैं. हाल के वर्षों तक अधिकांश पींडदानी 17 दिनों तक गया में रहकर पित्तरों के मोक्ष के लिए जगह-जगह पींडदान करते थे. अब कुछ यात्री ही गया में 17 दिनों तक रहने को तैयार मिलते हैं, अधिकांश उस श्रेणी में आते जा रहे हैं, जो जल्दी से जल्दी रस्मों की अदायगी कर गयाजी की धरती को सादर प्रणाम कर लेना चाहते हैं. जिन्हें 17 दिन रूकना था, वे 17 मिनट में निकलना चाहते हैं. क्या गया और गयवालों पर इसका असर कई रूपों में नहीं पड़ता होगा!
गया बनाम बोधगया- सौतिया डाह के बीच मनराखन की बात
गया और बोधगया के बीच लगभग उतनी ही दूरी है, जितनी की बनारस और सारनाथ के बीच. सारनाथ और बोधगया, दोनों बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण स्थल हैं. गया और बनारस सनातन धर्म के अहम केंद्र. सारनाथ भी कोई कम तेजी से विकसित नहीं हुआ है लेकिन बनारस वाले उसकी कोई खास परवाह नहीं करते और न ही बनारस शहर और बनारसीपन पर इस फैक्टर का कोई खास असर दिखता है. लेकिन गया और बोधगया के बीच का मामला भी ऐसा ही नहीं है. गया की बदहाली और बोधगया का सरपट विकास, इसने दोनों करीबी स्थलों को कुछ मायनों में काफी दूर ला खड़ा किया है.
हालांकि रेनेसां संस्थान के माध्यम से साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिये गया में राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तित्वों को बुलाकर समय-समय पर आयोजन करानेवाले संस्थान के प्रमुख संजय सहाय कहते हैं कि बनारस और गया की तुलना नहीं कर सकते. बनारस अपनी सांस्कृतिक पहचान और शैली के साथ जीनेवाला दुर्लभ शहर है, वैसे दूसरे शहर बहुत कम मिलेंगे. जबकि कथाकार शैवाल मानते हैं कि बात कुछ और है. शैवाल कहते हैं, गया कभी व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. यहां के मानपुर को भारत का मिनी मैनचेस्टर कहा जाता था. व्यापारिक नगरी होने के कारण यहां भोग और भक्ति के अहम स्थल विकसित हुए. गया में सराय रोड स्थापित हुआ, विष्णुपद मंदिर बना. दर्जनों की संख्या में धर्मशालाएं बनीं. अब अंतरराष्ट्रीय व्यापार का रिश्ता बोधगया से जुड़ता हुआ दिख रहा है तो वह जगह तेजी से विकसित हो रहा है. वहां नये निर्माण हो रहे है. बोधगया के सामने गयाजी का कद बौना पड़ता जा रहा है. मंदिरों के इस शहर में कोई नया मंदिर बनते हुए नहीं दिखेगा, यह कोई कम गौर करनेवाली बात है क्या?
बातें और भी हैं. इन बातों के बीच मान्य सच यह तो है ही कि बोधगया की तुलना में गया अतिप्राचीन शहर है. सनातनधर्मियों का अहम स्थल है. इसे विष्णु की नगरी माना जाता है. यहां महारानी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर है. वायुपुराण के अनुसार इस नगरी में 62 देवी-देवताओं का जीवंत वास है. सभी तीर्थों का जमघट तो यहां है ही. लेकिन गया इन तमाम आख्यानों-व्याख्यानों और संभावनाओं के बावजूद कई मायनों मंे जड़ शहर बना रहा और अब धीरे-धीरे पूरी पहचान दांव पर लगनी शुरू हुई है तो अपने ही बोझ से झूककर चलता हुआ यह बूढ़ा शहर अब अवसान की ओर जाता हुआ भी दिख रहा है. दूसरी ओर बोधगया है, जहां की चमचमाती सड़कें, शाम ढलते ही छा जानेवाली दुधिया रौशनी, तमाम आधुनिक सुविधाएं, आधुनिक होटल, रिसोर्ट, हवाई अड्डा, सालों भर देश-दुनिया से पहुंचनेवाले सैलानियों का जमावड़ा आदि. इन सभी उपलब्धियों ने बुद्ध की नगरी में तेजी से संभावनाओं के द्वार खोले हैं. गयावाले फटी आंखों से अपने पड़ोस की तेज रफ्तार देख रहे हैं. कुछ ही सालों में दोनो स्थान जुड़कर शहर के रूप में एकाकार हो जानेवाले हैं लेकिन असमानता सौतिया डाह का भाव भर रहा है. आनेवाले कल में दोनों के एकाकार हो जाने के बाद भी अगर दूरिया और बढ़ी हुई दिखे तो इसे कोई खास आश्चर्य नहीं माना जा सकता.
गयवाल पंडा समुदाय के वरिष्ठ सदस्य राजन सिजुआर कहते हैं, सरकार गया को अपने भरोसे छोड़ दी है और बोधगया के लिए सब कुछ कर रही है.मुख्यमंत्री खुद गया आने से बचते हैं जबकि बोधगया जब-तब जाते रहते हैं. सिजुआर कहते हैं कि इससे दुखद क्या होगा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद ही पिछले साल कहा कि गया में आॅनलाइन पिंडदान की व्यवस्था होनी चाहिए. सीएम गया की समस्या को तो खत्म नहीं कर पा रहे लेकिन ऐसा कहकर गया को खत्म कर देने का संकेत जरूर दे रहे हैं. बकौल सिजुआर, जब पिंडदान आॅनलाइन ही होने लगेगा तो कोई क्या करने गया आयेगा. जब गया कोई आयेगा ही नही ंतो यह शहर किसी उद्योग पर तो चलता नहीं कि सबकी दाल रोटी चलती रहेगी!
सिजुआर की नाराजगी अपनी जगह है. फिलहाल एक अहम बात गया बनाम बोधगया की करते हैं. दोनों के बीच मसला सिर्फ असमान चकाचैंधी विकास भर का नहीं है. गया और बोधगया के बीच सदियों से फंसा एक पेंच भी है, जो मौके-बेमौके जिन्न की तरह बाहर आते रहता है. बोधगया में हिंदू और बौद्ध आमने-सामने आते रहते हैं. विवाद काफी पुराना है. 25 फरवरी 1895 को श्रीलंका के बौद्धभिक्षु जब जापान से बुद्ध की प्रतिमा लेकर यहां उसे स्थापित करने पहुंचे थे तो बोधगया के महंथ ने मूर्ति स्थापना की इजाजत नहीं दी थी. दोनों धर्मावलंबियों के बीच तनाव के बीज तभी पड़े, अब समय-समय पर वह अंकुरित होकर निकलने की कोशिश करता है.  बोधगया मंदिर परिसर में एक पंच पांडव मंदिर भी है. तारा मंदिर, शिव मंदिर आदी भी हैं. हिंदुओं का एक खेमा कहता है कि जो पंच पांडव मंदिर है, उसमें पांचों पांडव और द्रौपदी की प्रतिमा है. बौद्ध कहते हैं, नहीं वे बुद्ध के भिन्न रूप में स्थापित प्रतिमाएं हैं या उनके शिष्यों की और बीच में जो महिला दिखती है, वह बुद्ध की मां महामाया हैं.बौद्ध कर्मकांड के विरोधी माने जाते हैं, हिंदू वहां शादी-ब्याह आदि के मौके पर कर्मकांड करते-करवाते रहते हैं. कभी मूर्तियों को वहां से हटवाने के लिए तो कभी मंदिर प्रबंधन समिति के एक्ट मे ंपरिवर्तन कर मंदिर को बौद्धों को अधीन कर देने के विषय को लेकर बहसबाजी का दौर चलता है. हिंदू खेमेवाले कहते हैं, बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार थे, इसलिए हिंदुओं का समिति में रहना जरूरी है. बौद्ध इस पर खुलकर नहीं बोल पाते लेकिन बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने उनकी ओर से बहुत पहले ही हिंदुओं को जवाब दे दिया था कि मानता हूं कि बुद्ध विष्णु के अवतार हैं लेकिन अगर ऐसा है तो हिंदू मंदिरों में बुद्ध की प्रतिमाएं स्थापित क्यों नहीं की जातीं? यह बात बहुत पुरानी हो चली है, विवाद अब एक्ट बदलने को लेकर है. दूसरी ओर गया का विष्णुपद मंदिर है, जहां के दरवाजे पर ही साफ-साफ शब्दों में लिखा हुआ मिलेगा- अहिंदुओं का प्रवेश वर्जित है. अहिंदू का एक बड़ा मतलब तो मुस्लिम से होता है लेकिन बौद्ध भी तो अपने को हिंदू नहीं मानते! वैसे भी बौद्धों का गया से वास्ता कम ही रहता है लेकिन यह बात तो उनकी ओर से समय-समय पर आते ही रहती है कि जो गया में विष्णुपद है, वह विष्णु के नहीं बुद्ध के पदचिह्न हैं. दोनों धर्मावलंबियों के बीच यह तुर्रा और तर्क का खेल वर्षों से चल रहा है. बुद्ध किसके थे, किसके हैं, इसे लेकर विवाद होते रहता है.
बुद्ध किसके थे, किसके हैं, इस पर तो दोनों धर्मावलंबी आपस में तर्क-वितर्क करते ही रहते हैं लेकिन इस बीच जरा एक तीसरे पक्ष की बात भी सुन सकते हैं. यह पक्ष मनराखन किस्कू की ओर से है. मनराखन किस्कू रांची में रहते हैं. उम्र यही करीब 65 साल की होगी. वे न तो साहित्यकार हैं, न आधिकारिक तौर पर अनुसंधानकर्ता. न ही इतिहासकार. लेकिन अपने आदिवासी धर्म की जड़ों की तलाश करते-करते मनराखन ने 15-20 वर्षों के अनवरत स्वाध्याय से कुछ तथ्य और तर्क जुटाये हैं. मनराखन की बात बहुत छोटी है. उसके फलक के विस्तार की गुंजाइश कितनी है, यह इतिहासकार ही बता पायेंगे. मनराखन कहते हैं कि गौतम बुद्ध और आदिवासी समाज के बीच गहरा रिश्ता रहा है. अगर विस्तार से चीजों को देखें तो यह बात सामने आती है कि आदिवासी ही बौद्ध धर्म के सच्चे अनुयायी हैं और यह भी कि बुद्ध आदिवासी ही थे!
वर्षों पहले मनराखन के मन में सवाल उठे कि फूलों का राजा गुलाब, सुंदरता के मामले में चंपा-चमेली का भी कोई जवाब नही ंतो फिर आदिवासी समाज इन सब को छोड़ सखुआ के फूलों से इतना मोह क्यों पाल लिया? क्यों सरहुल जैसे महत्वपूर्ण त्योहार में भी सखुआ ही प्रधान हो गया और उसके पेंड़ को सरना वृक्ष का नाम मिल गया. इस एक बात को लेकर मनराखन ने अपनी पहुंच के हिसाब से खोज शुरू की. गया-पटना जहां भी जाते, लाईब्रेरी की खाक छानते, अपने सामथ्र्य के अनुसार किताबें खरीदतें. सबको पढ़ लेने के बाद उन्हें इस बिंदु पर पहुंचकर संतुष्टि मिली कि आदिवासी समाज में इस सखुआ का प्रवेश बुद्ध के कारण हुआ. बुद्ध का जन्म सखुआ वृक्ष के शालकुंज में हुआ. और उनका महापरिनिर्वाण भी सखुआ वृक्ष के नीचे. बौद्ध धर्म से जब दो अलग-अलग धाराएं निकलीं तो हीनयानियों के लिए वृक्ष ओर धम्मचक्र प्रमुख हो गया. महायानी मूर्ति पूजक हो गये. मनराखन कहते हैं, आदिवसी समाज संभवतः हीनयान की राह पर चला अथवा हीनयानियों ने आदिवासी परंपरा को अपना लिया.  बौद्धकाल के पहले कभी भी आदिवासी जीवन में शालवृक्ष की चर्चा नहीं मिलती. मनराखन अपनी बातों को रखने के लिए मशहूर इतिहासकार  डीडी कौशांबी के लिखे का हवाला देते हैं. कौशांबी ने लिखा है कि बुद्ध का कोई गोत्र नहीं था, बल्कि टोटम था. टोटम का चलन आदिवासी समाज में ही है. बुद्ध का टोटम शाल ही था. फिर इतिहासकार डाॅ राधाकुमुद मुखर्जी की बात रखते हैं. मुखर्जी ने लिखा है कि बुद्ध का कुल मूल कोल मुंडा था. मनराखन एक-एक कर कई पुस्तकों और तर्कों का हवाला देते हैं. आगे कहते हैं कि रघुनाथ सिंह ने अपनी चर्चित किताब ‘ बुद्ध कथा’ में लिखा है कि बुद्ध की माता महामाया देवदह नामक कोल राज के राजा की पुत्री थी. मनराखन ने ऐसे कई तथ्य जुटाये हैं. वह अपनी बात कहना चाहते हैं लेकिन हिंदू और बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच एक पेंच तो सदियों से फंसा हुआ है, इसमें मनराखन जैसे गुमनाम व्यक्तित्व का मन रखने के लिए यह दूसरा पेंच कौन फंसाना चाहेगा!
भोग और भक्ति के बीच की संभावनाएं, जो शेष हैं...
गया में एक है राजेंद्र चैक. यह हालिया वर्षों में दिया हुआ नाम है. गयवालों के बीच वह टावर चैक के रूप में मशहूर है. वहां से चार रास्ते निकलते हैं. दो रास्ते एक-दूसरे की विपरित दिशा में जाते हुए दिखते हैं. एक सराय रोड ले जाता है, जिसे अब रेडलाइट का इलाका कहते हैं. जिस्म के धंधे के लिए मशहूर है वह अब. कभी वहां ढेलाबाई, जद्दनबाई की महफिलें भी सजती थीं. टावर चैक से सराय रोड के विपरित दिशावाला रास्ता विष्णुपद मंदिर की ओर जाता है. शाम को उस चैक पर जमकर चैपाली होती है. सराय रोड से आने, या सराय रोड में जानेवाले भी यहां आते हैं, विष्णुपद से आनेवाले या वहां जानेवाले भी. टावर चैक भोग और भक्ति के बीच का रास्ता है. संधिस्थल है. किस राह जाना है, यह यहां के रहनिहारों को और यहां आनेवालों को खुद ही तय करना होता है. भोग और भक्ति को जोड़नेवाले ऐसे स्थल गया के परिवेश में चप्पे-चप्पे पर मिलेंगे. भक्ति पर भोग और भोग पर भक्ति के विजय की गाथा भी यहां कोई कम नहीं है. अंगरेज अधिकारी इस शहर में आकर बस गये थे तो एक प्रमुख चैक वाले इलाके का नाम ही साहेबगंज हो गया था. यहां के बगल में ही एक मशहूर रजवाड़ा भी हुआ करता था. वहां के टेकारी राजा के प्रेम के किस्से हवा में अब भी तैरते रहते हैं. उन्होंने गया में व्हाईट हाउस अपने प्रेमिका के नाम कर दी थी, यह हर कोई जानता है. यह भी बतानेवाले कोई कम नहीं मिलते कि राजा सुबह-सुबह अपनी गाड़ी से कलकत्ते तक की यात्रा पर निकल जाते थे, अपनी प्रेमिका से मिलने.
गयवाल पंडों का जो इलाका है, जिसे अंदर गया कहते हैं, वह कभी गया का अहम सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था. चार दरवाजों के बीच की परिधि में बसे अंदर गया में कभी 14 जीवंत बैठकें होती थीं. गाना-बजाना का महफिल सजता था आनेवालों बड़े नामचीन तीर्थयात्रियों के लिए. जब भोग पर भक्ति हावी था तो तब उन्हें कलाकार माना जाता था, अब भोग हावी होने का दौर है तो अब गया में कुछ कलाकारों को गवैया-नचवैया या रखैलन तक की परिधि में भी बांध दिया जाता है.
पंडा समाज भी कोई कम द्वंद्व के रास्ते नहीं गुजर रहा. नये लड़कों की एक छोटी जमात ही सही, अपने इस पेशे से दूरियां बनाकर रखना चाहता हैं. विष्णुपद मंदिर के रास्ते में पंडा घरानों के कई नौजवानों को लस्सी वगैरह की दुकानें चलाते देख सकते हैं. जिस समाज में परदेदारी ऐसी कि डोली के बगैर महिलाएं निकलती नहीं थी या रिक्शे पर भी ओहार लगा रहता था, उस गली से निकलकर अब लड़कियां बदलते समाज से कदमताल करते हुए नौकरी करने भी जा रही हैं. यह शुकूनदायी संकेत हैं. अंदर गया में मिले शुभम कहते हैं कि मेरे बड़े भाई ने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई की है, मैं भी जल्दी से जल्दी यहां से निकलकर मैनेजमेंट पढ़ने चले जाना चाहता हूं.
भक्ति पर भोगवादी प्रवृत्ति के हावी होने की प्रक्रिया ने गया की नयी पहचान भी दी. अपराध की नगरी के रूप में भी जाना जाने लगा यह शहर. कभी यहां के जनप्रतिनिधि अपने जीत के जश्न में सड़कों पर गोलियां बरसाते हुए अपने ताकत का प्रदर्शन करते हैं तो एक बच्ची को मार देते हैं तो कोई नेता ऐसा भी निकलता है तो अपने सिपहसलारों से सरेआम गोलियां चलवाता है. हथियारों के जखीरे के साथ यहीं के जननेता पकड़े जाते हैं, हवाओं को भी अपने कहे अनुसार बहने की इजाजत देने की कामना करनेवाले भी यहां कोई कम नेता नहीं हुए. यह वह गया भी है, जहां बहनेवाली फल्गु मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, ठेकेदारों के लिए वही फल्गु प्राप्ति का सबसे बड़ा जरिया है. मुक्ति और प्राप्ति के बीच झूलता यह शहर नयी संभावनाओं की तलाश में भटक रहा है. संभावनाएं पटवा टोली में नजर आ रही हैं, जहां से हर साल गरीब बच्चे अपने दम पर आइआइटी की प्रवेश परीक्षा निकालकर देश के प्रतिष्ठित संस्थान में पहुंच रहे हैं. तिलकुट ने संभावना बचाकर रखी हैं, जो बिहार के ब्रांड के तौर पर स्थापित हो चुका है. संभावनाएं रोज-ब-रोज खुल रहे मार्केटिंग कांपलेक्स में नजर आ रही हैं. और इन सबके बाद आखिर में पानी पर काम करनेवाले प्रसिद्ध समाजसेवी प्रभात शांडिल्य की बात करें तो वे एक लाइन में अपनी बात रखते हैं. शांडिल्य कहते हैं- गया इकलौता प्राचीन शहर है, जिसका नाम नहीं बदल सका कोई. यह पुराणों में भी गया था, अब भी गया है जबकि काशी बनारस हो गया. प्रयागराज इलाहाबाद हो गया. गया तो गया था, गया है और गया ही रहेगा...












1 comment:

gunjesh said...

कुछ तस्वीरें भी लगते तो और अच्छी तस्वीर बनती। वैसे हमेशा की तरह ही एक और अछि रिपोर्ट।