December 17, 2011

‘ललटेन’ में पढ़नेवाले पारंपरिक पीएम ‘फलनवा बो’ को भी जानते ही होंगे!



निराला

लालटेन और लैंप में जरा-सा फर्क होता है. बनावट-बुनावट की दृष्टि से ही नहीं. कुछ और मायनों में भी. सच है कि आखिरकार दोनों रौशनी ही देते हैं, बावजूद इसके लैंप की तुलना में लालटेन थोड़ा पारंपरिक-सा लगता है. पिछले दिनों अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहीं पर कहा कि मैं भी गांव-कस्बे को करीब से जानता हूं, मैंने भी लालटेन में पढ़ाई की है. यह जानकर अच्छा लगा. बड़ी आबादी में उनकी छवि उस अंगरेजीदां अर्थशास़्त्री की तरह ही है, जो विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि की पेंचिदगियों को तो अंदर तक बखूबी जानता-समझता है लेकिन अर्थशास्त्र का पारंपरिक फाॅर्मूला समझना उसके बस में नहीं. 

मनमोहन सिंह अगर सच में कभी लालटेन में पढ़ंे होंगे तो पारंपरिकता की कुछ और चीजों को भी जरूर वे करीब से जानते-समझते-महसूसते होंगे. गांव, कस्बे और बड़े शहरों की छोटी-छोटी गलियों में रहनेवालीफलनवां-चिलनवां बोकी जीवनचर्या, उनके रहन-सहन के तौर-तरीके से भी अवगत होंगे. गंवई भाषा में किसी की पत्नी को बो लगाकर संबोधित करते हैं. जैसे मुन्ना की पत्नी है तो गांव में उसे मुन्ना बो कहा जाता है. मनमोहन या उनके साथी थोड़ा भी इन बहुओं को जानते हों तो रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश का बड़े पैमाने पर श्रीगणेश करने का निर्णय शायद नहीं लेते. फिलहाल छोड़ दें कि भाजपा क्या कहकर इसका विरोध कर रही है और खुद उसने अपने राजपाट में क्या-क्या किये हैं! यह भी छोड़ दें कि बाजार और खुली अर्थव्यवस्था के पोषण में करीब पांच साल तक साथ देकर खुद भी उदारीकरण व्यवस्था में सहभागी रह चुकीं वामपंथी पार्टियां क्या कहकर संसद चलने के राह में रोड़े फंसा रही हैं. लालटेन में पढ़नेवाले मनमोहन एक बार किसी गाँव की किसीफलनवा बोको याद करें, उन्हें खुद ही इसका अहसास होगा कि रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश की जो हरी झंडी उन्होंने दिखायी है, उसका भविष्य भारत में कैसा होगा? या तो यह नया अभियान खुद--खुद अपनी मौत मरेगा या ढिठई से जिंदा रह गया तो अपनी दबंगई से हजारों-लाखोंफलनवा बोके समूह की आकांक्षा को निगल जाएगा.
बचपने की याद है और अब भी जाता हूं गांव तो वैसा ही देखता हूं. गांव के एक सावजी की दुकान पर कई परिवारों का खाता-बही चलता है. अचानक कोई मेहमान जाए, तोफलनवा बोपिछले दरवाजे से अपने घर की उधारी काॅपी के साथ किसी बच्चे को भेज देती है सावजी की दुकान पर. यह कहकर कि ‘‘ दू रूपइया के दलमोट, एक रुपइया के चाह पत्ति, एक रुपईया के चिनी लेले आओ.’’ गाँव का कोई भी बच्चा फलनवां बो का उधार काॅपी लेकर जाता है, सामान लाकर पहुंचा देता है. फलनवां बो में कई ऐसी हैं, जिनके पति बाहर काम-धाम करते हैं, होली-दशहरा-दिवाली या अन्य पर्व त्यौहारों में आते हैं तो दुकानदार से हिसाब-किताब क्लियर होता है. तब तक सारा गणित काॅपी पर चलते रहता है. यह गणित सिर्फ गांव के सावजी के दुकान तक ही नहीं चलता, पास के बाजार में भी ऐसी गणितबाजी हजारोंफलनवां बोने सेट कर रखा है. वर्षां से या यूं कहें कि पीढि़यों से. बाजार से भी कपड़े वगैरह की खरीदारी ऐसे ही होती है. अगर बाजार में उधार खाता परमानेंट भी चले तो फलनवा बो का इतना प्रगाढ़ रिश्ता तो जरूर रहता है कि कोई चीज अगर पसंद जाये तौर उसमें दस-बीस-पचास घट रहा हो तो इतने पैसे की कमी की वजह से आकांक्षाओं को मार खाली हाथ वापस नहीं लौटना पड़ता. दुकानदार दे देता है, यह कहते हुए कि बाद में दे दीजिएगा, भिजवा दीजिएगा... कई फलनवां बो का खाता गांव के साव जी से लेकर बाजार के जायसवाल जी तक के यहां अगहन के करारी पर भी चलता है कि जब अगहन में फसल से पैसे आयेंगे तो हिसाब-किताब हो जाएगा. शादी-ब्याह, मरनी-जीनी में भी अगहन करारी का फाॅर्मूला चलता है... 
वर्षों से, पीढि़यों से ऐसे ही अर्थशास़्त्र के सहारे लाखों-लाख फलनवां-चिलनवां बो अपने-अपने घर का राज-पाट चला रही हैं. मनमोहन सिंह ने अगर एक बार भी बचपने में इसे देखा-महसूसा होगा तो वह जानते होंगे कि कल जब विदेशी कंपनियों का रिटेल चेन खुलेगा, हिंग-हरदी से लेकर कजरौटा-खेलौना तक के बाजार पर उनका कब्जा होगा तो वहां लाखों फलनवां बो के लिए जगह नहीं होगा. वहां फलनवां बो सावजी के दुकान की तरह घर से उधार खाता वाली काॅपी भेज अपने घर-गृहस्थी को नहीं चला पाएगी. फलनवां बो को विदेशी रिटेल स्टोर में अपने बच्चे के लिए कोई कपड़ा पसंद जाए और दस-पांच रुपये कमते रहेंगे तो उसे आसानी से यह कहकर नहीं दे दिया जाएगा कि ले जाओ, भेज दिहो किसी से...! 
बचपन में लगता था कि गांव के सावजी, बाजार वाले जायसवाल लूटते हैं लेकिन जब से बड़े-बड़े रिटेल स्टोर्स को देखा, समझा और जाना है, तब से लगता है कि सावजी, जायसवालजी वगैरह इनकी तुलना में बहुत ठीक हैं. कम से कम भरोसे का, आत्मीयता का रिश्ता तो रखते हैं. उनकी दुकानों पर जाने से पहले तलाशी नहीं होती, आते समय तलाशी होती है. तलाशी के समय लगता है की जैसे दुकानदारी का मौका देकर कोई अहसान किया गया हो. सावजी-अग्रवालजी आदि-आदि का अपने-अपने ग्राहकों से पारिवारिक जैसा संबंध होता है. यह सच है की गाँव कसबे में एक दुकान पर सभी चीजें नहीं मिलती, अलग-अलग जाना पड़ता है. समय लगता है लेकिन उन अलग-अलग दुकानों पर जाने पर कुछ-कुछ आत्मीय संबंधों का भाव भी दिखता है. गांव का एक दिहाड़ी मजदूर हो या बड़ा जमींदार, सभी का अब के नये मध्यवर्ग की तरह कोई अपना फैमिली डाॅक्टर हो या हो लेकिन सबके अपनी हैसियत के अनुसार फैमिली गल्ला दुकान, सुनार, पार्चून दुकान आदि फिक्स होते हैं. 
ठीक है कि आज मनमोहन जी कह रहे हैं कि दस लाख से अधिक आबादी वाले 53 शहरों में ही यह जाल फैलेगा. उन 53 शहरों की गलियों में भी कई फलनवां-चिलनवां बो रहती हैं. और फिर यह भी याद रखना होगा की आज 53 शहरों में उनका दायरा फैलेगा तो कल वे 53 हजार कस्बों की मांग करेंगे. एक बार मानेंगे तो बार-बार मानना पड़ेगा. लालटेन में पढ़नेवाले मनमोहन सिंह एक बार अपने ही इलाके की किसी फलनवां बो के बारे में सोचें, शायद दक्षिणपंथियों वामपंथियों के विरोध की जरूरत नहीं पड़ेगी.